रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 10
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥२२४॥


उस दिन वहीं ठहरकर दूसरे दिन प्रात:काल ही श्रीरघुनाथजीका स्मरण करके चले। साथके सब लोगोंको भी भरतजीके समान ही श्रीरामजीके दर्शनकी लालसा [लगी हुई है ॥ २२४॥

मंगल सगुन होहिं सब काहू।
फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥
भरतहि सहित समाज उछाहू।
मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू॥

सबको मङ्गलसूचक शकुन हो रहे हैं। सुख देनेवाले [पुरुषोंके दाहिने और स्त्रियोंके बायें] नेत्र और भुजाएँ फड़क रही हैं। समाजसहित भरतजीको उत्साह हो रहा है कि श्रीरामचन्द्रजी मिलेंगे और दुःखका दाह मिट जायगा ॥१॥

करत मनोरथ जस जियँ जाके।
जाहिं सनेह सुराँ सब छाके॥
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं।
बिहबल बचन पेम बस बोलहिं॥

जिसके जीमें जैसा है, वह वैसा ही मनोरथ करता है। सब स्नेहरूपी मदिरासे छके (प्रेममें मतवाले हुए) चले जा रहे हैं। अङ्ग शिथिल हैं, रास्तेमें पैर डगमगा रहे हैं और प्रेमवश विह्वल वचन बोल रहे हैं ॥२॥

रामसखाँ तेहि समय देखावा।
सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप सरित पय तीरा।
सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥


रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि दिखलाया, जिसके निकट ही पयस्विनी नदीके तटपर सीताजीसमेत दोनों भाई निवास करते हैं॥३॥

देखि करहिं सब दंड प्रनामा।
कहि जय जानकि जीवन रामा॥
प्रेम मगन अस राज समाजू।
जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥


सब लोग उस पर्वतको देखकर 'जानकी-जीवन श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो।' ऐसा कहकर दण्डवत् प्रणाम करते हैं। राजसमाज प्रेममें ऐसा मग्न है मानो श्रीरघुनाथजी अयोध्याको लौट चले हों ॥४॥

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