रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (किष्किन्धाकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (किष्किन्धाकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 12
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। चतुर्थ सोपान अरण्यकाण्ड

भगवान् राम की ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव से भेंट


आगे चले बहुरि रघुराया।
रिष्यमूक पर्बत निअराया।
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा।
आवत देखि अतुल बल सींवा॥

श्रीरघुनाथजी फिर आगे चले। ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। वहाँ (ऋष्यमूक पर्वतपर) मन्त्रियोंसहित सुग्रीव रहते थे। अतुलनीय बलकी सीमा श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीको आते देखकर-॥१॥

अति सभीत कह सुनु हनुमाना।
पुरुष जुगल बल रूप निधाना॥
धरि बटु रूप देखु तैं जाई।
कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई॥

सुग्रीव अत्यन्त भयभीत होकर बोले-हे हनुमान् ! सुनो, ये दोनों पुरुष बल और रूपके निधान हैं। तुम ब्रह्मचारीका रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदयमें उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारेसे समझाकर कह देना॥२॥

पठए बालि होहिं मन मैला।
भागौँ तुरत तजौं यह सैला॥
बिग्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ।
माथ नाइ पूछत अस भयऊ।

यदि वे मनके मलिन बालिके भेजे हुए हों तो मैं तुरंत ही इस पर्वतको छोड़कर भाग जाऊँ। [यह सुनकर] हनुमान्जी ब्राह्मणका रूप धरकर वहाँ गये और मस्तक नवाकर इस प्रकार पूछने लगे-॥३॥

को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा।
छत्री रूप फिरहु बन बीरा॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी।
कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी।

हे वीर! साँवले और गोरे शरीरवाले आप कौन हैं, जो क्षत्रियके रूपमें वनमें फिर रहे हैं? हे स्वामी! कठोर भूमिपर कोमल चरणोंसे चलनेवाले आप किस कारण वनमें विचर रहे हैं ?॥ ४॥

मृदुल मनोहर सुंदर गाता।
सहत दुसह बन आतप बाता।
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ।
नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥

मनको हरण करनेवाले आपके सुन्दर, कोमल अंग हैं, और आप वनके दुःसह धूप और वायुको सह रहे हैं। क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश-इन तीन देवताओंमेंसे कोई हैं, या आप दोनों नर और नारायण हैं।। ५।।

दो०- जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार॥१॥

अथवा आप जगत्के मूल कारण और सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी स्वयं भगवान् हैं, जिन्होंने लोगोंको भवसागरसे पार उतारने तथा पृथ्वीका भार नष्ट करनेके लिये मनुष्य रूपमें अवतार लिया है ?॥१॥

कोसलेस दसरथ के जाए।
हम पितु बचन मानि बन आए॥
नाम राम लछिमन दोउ भाई।
संग नारि सुकुमारि सुहाई॥

[श्रीरामचन्द्रजीने कहा- हम कोसलराज दशरथजी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन आये हैं। हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनों भाई हैं। हमारे साथ सुन्दर सुकुमारी स्त्री थी॥१॥

इहाँ हरी निसिचर बैदेही।
बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥
आपन चरित कहा हम गाई।
कहहु बिप्र निज कथा बुझाई।

यहाँ (वनमें) राक्षसने [मेरी पत्नी] जानकीको हर लिया। हे ब्राह्मण! हम उसे ही खोजते फिरते हैं। हमने तो अपना चरित्र कह सुनाया। अब हे ब्राह्मण! अपनी कथा समझाकर कहिये॥२॥

प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना।
सो सुख उमा जाइ नहिं बरना।
पुलकित तन मुख आव न बचना।
देखत रुचिर बेष कै रचना॥

प्रभुको पहचानकर हनुमान्जी उनके चरण पकड़कर पृथ्वीपर गिर पड़े (उन्होंने साष्टाङ्ग दण्डवत्-प्रणाम किया)। [शिवजी कहते हैं-] हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुखसे वचन नहीं निकलता। वे प्रभुके सुन्दर वेषकी रचना देख रहे हैं !॥३॥

पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही।
हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं।
तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं।

फिर धीरज धरकर स्तुति की। अपने नाथको पहचान लेनेसे हृदयमें हर्ष हो रहा है। [फिर हनुमान्जीने कहा-] हे स्वामी ! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, [वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वीके वेषमें और मेरी वानरी-बुद्धि, इससे मैं तो आपको पहचान न सका और अपनी परिस्थितिके अनुसार मैंने आपसे पूछा] परन्तु आप मनुष्यकी तरह कैसे पूछ रहे हैं ?॥४॥

तव माया बस फिरउँ भुलाना।
ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥

मैं तो आपकी मायाके वश भूला फिरता हूँ; इसीसे मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना॥५॥

दो०- एक मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥२॥

एक तो मैं यों ही मन्द हूँ, दूसरे मोहके वशमें हूँ, तीसरे हृदयका कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर हे दीनबन्धु भगवान् ! प्रभु (आप) ने भी मुझे भुला दिया !॥ २॥

जदपि नाथ बह अवगुन मोरें।
सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥
नाथ जीव तव मायाँ मोहा।
सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥

हे नाथ! यद्यपि मुझमें बहुत-से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामीकी विस्मृतिमें न पड़े (आप उसे न भूल जायँ) हे नाथ! जीव आपकी मायासे मोहित है। वह आपहीकी कृपासे निस्तार पा सकता है॥१॥

ता पर मैं रघुबीर दोहाई।
जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥
सेवक सुत पति मातु भरोसें।
रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें।

उसपर हे रघुवीर ! मैं आपकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि मैं भजन साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामीके और पुत्र माताके भरोसे निश्चिन्त रहता है। प्रभुको सेवकका पालन-पोषण करते ही बनता है (करना ही पड़ता है)॥२॥

अस कहि परेउ चरन अकुलाई।
निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई॥
तब रघुपति उठाइ उर लावा।
निज लोचन जल सींचि जुड़ावा॥

ऐसा कहकर हनुमानजी अकलाकर प्रभु के चरणों पर गिर पडे, उन्होंने अपना असली शरीर प्रकट कर दिया। उनके हृदयमें प्रेम छा गया। तब श्रीरघुनाथजीने उन्हें उठाकर हृदयसे लगा लिया और अपने नेत्रोंके जलसे सींचकर शीतल किया॥३॥

सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना।
तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥
समदरसी मोहि कह सब कोऊ।
सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥

[फिर कहा-] हे कपि! सुनो, मनमें ग्लानि मत मानना (मन छोटा न करना)। तुम मुझे लक्ष्मणसे भी दूने प्रिय हो। सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं (मेरे लिये न कोई प्रिय है न अप्रिय) पर मुझको सेवक प्रिय है, क्योंकि वह अनन्यगति होता है (मुझे छोड़कर उसको कोई दूसरा सहारा नहीं होता)॥४॥

दो०- सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥३॥

और हे हनुमान्! अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और यह चराचर (जड-चेतन) जगत् मेरे स्वामी भगवान्का रूप है॥३॥

देखि पवनसुत पति अनुकूला।
हृदयँ हरष बीती सब सूला॥
नाथ सैल पर कपिपति रहई।
सो सुग्रीव दास तव अहई॥

स्वामीको अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवनकुमार हनुमान् जीके हृदयमें हर्ष छा गया और उनके सब दुःख जाते रहे। [उन्होंने कहा--] हे नाथ! इस पर्वतपर वानरराज सुग्रीव रहता है, वह आपका दास है॥१॥

तेहि सन नाथ मयत्री कीजे।
दीन जानि तेहि अभय करीजे॥
सो सीता कर खोज कराइहि।
जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥

हे नाथ! उससे मित्रता कीजिये और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिये। वह सीताजीकी खोज करावेगा और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरोंको भेजेगा॥२॥

एहि बिधि सकल कथा समुझाई।
लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई॥
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा।
अतिसय जन्म धन्य करि लेखा॥

इस प्रकार सब बातें समझाकर हनुमान् जीने (श्रीराम-लक्ष्मण) दोनों जनों को पीठपर चढ़ा लिया। जब सुग्रीवने श्रीरामचन्द्रजीको देखा तो अपने जन्मको अत्यन्त धन्य समझा॥३॥

सादर मिलेउ नाइ पद माथा।
भेंटेउ अनुज सहित रघुनाथा॥
कपि कर मन बिचार एहि रीती।
करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती॥

सुग्रीव चरणोंमें मस्तक नवाकर आदरसहित मिले। श्रीरघुनाथजी भी छोटे भाईसहित उनसे गले लगकर मिले। सुग्रीव मनमें इस प्रकार सोच रहे हैं कि हे विधाता! क्या ये मुझसे प्रीति करेंगे?॥४॥

दो०- तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ।
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढाइ॥४॥

तब हनुमान् जी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर दृढ़ करके प्रीति जोड़ दी (अर्थात् अग्निकी साक्षी देकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मैत्री करवा दी)॥४॥

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