रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (किष्किन्धाकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (किष्किन्धाकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। चतुर्थ सोपान अरण्यकाण्ड
शरद ऋतु के आगमन तक भी सीताजी के संबंध में कोई सूचना न मिलने से विषाद
दो०- भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।
सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥१७॥
सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥१७॥
वर्षा-ऋतुके कारण] पृथ्वीपर जो जीव भर गये थे, वे शरद्-ऋतुको पाकर वैसे ही नष्ट हो गये जैसे सद्गुरुके मिल जानेपर सन्देह और भ्रमके समूह नष्ट हो जाते हैं॥ १७॥
बरषा गत निर्मल रितु आई।
सुधि न तात सीता कै पाई॥
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं।
कालहु जीति निमिष महुँ आनौं।
सुधि न तात सीता कै पाई॥
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं।
कालहु जीति निमिष महुँ आनौं।
वर्षा बीत गयी, निर्मल शरद्-ऋतु आ गयी। परन्तु हे तात! सीताकी कोई खबर नहीं मिली। एक बार कैसे भी पता पाऊँ तो कालको भी जीतकर पलभरमें जानकीको ले आऊँ॥१॥
कतहुँ रहउ जौं जीवति होई।
तात जतन करि आनउँ सोई॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी।
पावा राज कोस पुर नारी।।
तात जतन करि आनउँ सोई॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी।
पावा राज कोस पुर नारी।।
कहीं भी रहे, यदि जीती होगी तो हे तात! यत्न करके मैं उसे अवश्य लाऊँगा। राज्य, खजाना, नगर और स्त्री पा गया, इसलिये सुग्रीवने भी मेरी सुधि भुला दी॥२॥
जेहिं सायक मारा मैं बाली।
तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली॥
जासु कृपाँ छूटहिं मद मोहा।
ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा॥
तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली॥
जासु कृपाँ छूटहिं मद मोहा।
ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा॥
जिस बाणसे मैंने बालिको मारा था, उसी बाणसे कल उस मूढ़को मारूँ! [शिवजी कहते हैं-] हे उमा! जिनकी कृपासे मद और मोह छूट जाते हैं, उनको कहीं स्वप्नमें भी क्रोध हो सकता है? [यह तो लीलामात्र है]॥३॥
जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी।
जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी॥
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना।
धनुष चढ़ाइ गहे कर बाना॥
जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी॥
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना।
धनुष चढ़ाइ गहे कर बाना॥
ज्ञानी मुनि जिन्होंने श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें प्रीति मान ली है (जोड़ ली है), वे ही इस चरित्र (लीलारहस्य) को जानते हैं। लक्ष्मणजीने जब प्रभुको क्रोधयुक्त जाना, तब उन्होंने धनुष चढ़ाकर बाण हाथमें ले लिये॥४॥
दो०- तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव।
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव॥१८॥
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव॥१८॥
तब दयाकी सीमा श्रीरघुनाथजीने छोटे भाई लक्ष्मणजीको समझाया कि हे तात! सखा सुग्रीवको केवल भय दिखलाकर ले आओ [उसे मारनेकी बात नहीं है]॥१८॥
इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा।
राम काजु सुग्रीव बिसारा॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा।
चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥
राम काजु सुग्रीव बिसारा॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा।
चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥
यहाँ (किष्किन्धानगरीमें) पवनकुमार श्रीहनुमान्जीने विचार किया कि सुग्रीवने श्रीरामजीके कार्यको भुला दिया। उन्होंने सुग्रीवके पास जाकर चरणोंमें सिर नवाया। [साम, दान, दण्ड, भेद] चारों प्रकारकी नीति कहकर उन्हें समझाया।॥ १॥
सुनि सुग्रीवं परम भय माना।
बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना॥
अब मारुतसुत दूत समूहा।
पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥
बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना॥
अब मारुतसुत दूत समूहा।
पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥
हनुमान्जीके वचन सुनकर सुग्रीवने बहुत ही भय माना। [और कहा-] विषयोंने मेरे ज्ञानको हर लिया। अब हे पवनसुत! जहाँ-तहाँ वानरोंके यूथ रहते हैं; वहाँ दूतोंके समूहोंको भेजो॥२॥
कहहु पाख महुँ आव न जोई।
मोरें कर ता कर बध होई॥
तब हनुमंत बोलाए दूता।
सब कर करि सनमान बहूता।
मोरें कर ता कर बध होई॥
तब हनुमंत बोलाए दूता।
सब कर करि सनमान बहूता।
और कहला दो कि एक पखवाड़ेमें (पंद्रह दिनोंमें) जो न आ जायगा, उसका मेरे हाथों वध होगा। तब हनुमानजीने दूतोंको बुलाया और सबका बहुत सम्मान करके-॥३॥
भय अरु प्रीति नीति देखराई।
चले सकल चरनन्हि सिर नाई॥
एहि अवसर लछिमन पुर आए।
क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए।
चले सकल चरनन्हि सिर नाई॥
एहि अवसर लछिमन पुर आए।
क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए।
सबको भय, प्रीति और नीति दिखलायी। सब बंदर चरणोंमें सिर नवाकर चले। इसी समय लक्ष्मणजी नगरमें आये। उनका क्रोध देखकर बंदर जहाँ-तहाँ भागे॥४॥
दो०- धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार।
ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार॥१९॥
ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार॥१९॥
तदनन्तर लक्ष्मणजीने धनुष चढ़ाकर कहा कि नगरको जलाकर अभी राख कर दूंगा। तब नगरभरको व्याकुल देखकर बालिपुत्र अंगदजी उनके पास आये॥ १९॥
चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही।
लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही॥
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना।
कह कपीस अति भयँ अकुलाना॥
लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही॥
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना।
कह कपीस अति भयँ अकुलाना॥
अंगद ने उनके चरणों में सिर नवाकर विनती की (क्षमायाचना की)। तब लक्ष्मणजी ने उनको अभय बाँह दी (भुजा उठाकर कहा कि डरो मत)। सुग्रीव ने अपने कानों से लक्ष्मणजी के क्रोधयुक्त सुनकर भय से अत्यन्त व्याकुल होकर कहा-॥१॥
सुनु हनुमंत संग लै तारा।
करि बिनती समुझाउ कुमारा॥
तारा सहित जाइ हनुमाना।
चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥
करि बिनती समुझाउ कुमारा॥
तारा सहित जाइ हनुमाना।
चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥
हे हनुमान्! सुनो, तुम तारा को साथ ले जाकर विनती करके राजकुमारको समझाओ (समझा-बुझाकर शान्त करो)। हनुमान् जीने तारासहित जाकर लक्ष्मणजीके चरणोंकी वन्दना की और प्रभुके सुन्दर यशका बखान किया॥२॥
करि बिनती मंदिर लै आए।
चरन पखारि पलँग बैठाए॥
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा।
गहि भुज लछिमन कंठ लगावा॥
चरन पखारि पलँग बैठाए॥
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा।
गहि भुज लछिमन कंठ लगावा॥
वे विनती करके उन्हें महलमें ले आये तथा चरणोंको धोकर उन्हें पलँगपर बैठाया। तब वानरराज सग्रीवने उनके चरणोंमें सिर नवाया और लक्ष्मणजीने हाथ पकड़कर उनको गलेसे लगा लिया॥३॥
नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं।
मुनि मन मोह करइ छन माहीं॥
सुनत बिनीत बचन सुख पावा।
लछिमन तेहि बहुबिधि समुझावा॥
मुनि मन मोह करइ छन माहीं॥
सुनत बिनीत बचन सुख पावा।
लछिमन तेहि बहुबिधि समुझावा॥
सुग्रीवने कहा-] हे नाथ! विषयके समान और कोई मद नहीं है। यह मुनियोंके मनमें भी क्षणमात्रमें मोह उत्पन्न कर देता है [फिर मैं तो विषयी जीव ही ठहरा]। सुग्रीव के विनययुक्त वचन सुनकर लक्ष्मणजी ने सुख पाया और उनको बहुत प्रकार से समझाया॥४॥
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