रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (सुंदरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (सुंदरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 13
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। पंचम सोपान किष्किन्धाकाण्ड


विभीषण का भगवान राम की शरण में जाना



देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी रिषिनारी।
दंडक कानन पावनकारी॥

[वे सोचते जाते थे-] मैं जाकर भगवानके कोमल और लाल वर्णके सुन्दर चरणकमलोंके दर्शन करूँगा, जो सेवकोंको सुख देनेवाले हैं, जिन चरणोंका स्पर्श पाकर ऋषिपत्नी अहल्या तर गयीं और जो दण्डकवनको पवित्र करनेवाले हैं॥३॥

जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए।
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥

जिन चरणों को जानकीजी ने हृदय में धारण कर रखा है, जो कपटमृग के साथ पृथ्वी पर [उसे पकड़नेको] दौड़े थे और जो चरणकमल साक्षात् शिवजी के हृदयरूपी सरोवर में विराजते हैं, मेरा अहोभाग्य है कि उन्हीं को आज मैं देखूगा॥४॥

दो०- जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ॥४२॥

जिन चरणोंकी पादुकाओं में भरतजी ने अपना मन लगा रखा है, अहा! आज मैं उन्हीं चरणों को अभी जाकर इन नेत्रों से देखूगा॥ ४२।।

एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥

इस प्रकार प्रेमसहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्रके इस पार (जिधर श्रीरामचन्द्रजीकी सेना थी) आ गये। वानरोंने विभीषणको आते देखा तो उन्होंने जाना कि शत्रुका कोई खास दूत है॥१॥

ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए।
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई॥

उन्हें [पहरेपर] ठहराकर वे सुग्रीवके पास आये और उनको सब समाचार कह सुनाये। सुग्रीवने [श्रीरामजीके पास जाकर] कहा-हे रघुनाथजी! सुनिये, रावणका भाई [आपसे] मिलने आया है॥२॥

कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया।

प्रभु श्रीरामजी ने कहा-हे मित्र! तुम क्या समझते हो (तुम्हारी क्या राय है)? वानरराज सुग्रीव ने कहा-हे महाराज! सुनिये, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती। यह इच्छानुसार रूप बदलनेवाला (छली) न जाने किस कारण आया है॥३॥

भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी॥

[जान पड़ता है] यह मूर्ख हमारा भेद लेने आया है, इसलिये मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बाँध रखा जाय। [श्रीरामजीने कहा-] हे मित्र! तुमने नीति तो अच्छी विचारी ! परन्तु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना!॥४॥

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना।

प्रभु के वचन सुनकर हनुमानजी हर्षित हुए [और मन-ही-मन कहने लगे कि] भगवान कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आये हुए पर पिता की भाँति प्रेम करनेवाले) हैं॥५॥

दो०- सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥४३॥

[श्रीरामजी फिर बोले-] जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं; उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)॥४३॥

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।

जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥१॥

पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई॥


पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह (रावण का भाई) निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था?॥२॥

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥

जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव ! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥३॥

जग महुँ सखा निसाचर जेते।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं।

क्योंकि हे सखे! जगत् में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभरमें उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरे शरण आया है तो मैं उसे प्राणोंकी तरह रखूगा॥४॥

दो०- उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत॥४४॥

कृपा के धाम श्रीरामजी ने हँसकर कहा-दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमानसहित सुग्रीवजी 'कृपालु श्रीरामकी जय हो' कहते हुए चले॥४४॥

सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर।
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता।
नयनानंद दान के दाता।

विभीषणजी को आदरसहित आगे करके वानर फिर वहाँ चले, जहाँ करुणा की खान श्रीरघुनाथजी थे। नेत्रों को आनन्द का दान देनेवाले (अत्यन्त सुखद) दोनों भाइयों को विभीषणजी ने दूर ही से देखा॥१॥

बहुरि राम छबिधाम बिलोकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन।

फिर शोभा के धाम श्रीरामजी को देखकर वे पलक [मारना] रोककर ठिठककर (स्तब्ध होकर) एकटक देखते ही रह गये। भगवान की विशाल भुजाएँ हैं, लाल कमल के समान नेत्र हैं और शरणागत के भय का नाश करनेवाला साँवला शरीर है।॥२॥

सिंघ कंध आयत उर सोहा।
आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मद् बाता॥

सिंहके-से कंधे हैं, विशाल वक्षःस्थल (चौड़ी छाती) अत्यन्त शोभा दे रहा है। असंख्य कामदेवोंके मनको मोहित करनेवाला मुख है। भगवानके स्वरूपको देखकर विभीषणजीके नेत्रोंमें [प्रेमाश्रुओंका] जल भर आया और शरीर अत्यन्त पुलकित हो गया। फिर मनमें धीरज धरकर उन्होंने कोमल वचन कहे॥३॥

नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा॥


हे नाथ! मैं दशमुख रावणका भाई हूँ। हे देवताओंके रक्षक! मेरा जन्म राक्षसकुलमें हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभावसे ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लूको अन्धकारपर सहज स्नेह होता है॥४॥

दो०- श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥४५॥


मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भयका नाश करनेवाले हैं। हे दुखियोंके दुःख दूर करनेवाले और शरणागतको सुख देनेवाले श्रीरघुवीर ! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये॥ ४५॥

अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥

प्रभुने उन्हें ऐसा कहकर दण्डवत् करते देखा तो वे अत्यन्त हर्षित होकर तुरंत उठे। विभीषणजीके दीन वचन सुननेपर प्रभुके मनको बहुत ही भाये। उन्होंने अपनी विशाल भुजाओंसे पकड़कर उनको हृदयसे लगा लिया।॥१॥

अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।
बोले बचन भगत भयहारी॥
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥

छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित गले मिलकर उनको अपने पास बैठाकर श्रीरामजी भक्तोंके भयको हरनेवाले वचन बोले-हे लंकेश! परिवारसहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है॥२॥

खल मंडली बसहु दिनु राती।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।
अति नय निपुन न भाव अनीती॥

दिन-रात दुष्टों की मण्डली में बसते हो। [ऐसी दशामें] हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? मैं तुम्हारी सब रीति (आचार-व्यवहार) जानता हूँ। तुम अत्यन्त नीतिनिपुण हो, तुम्हें अनीति नहीं सुहाती॥३॥

बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥

हे तात! नरकमें रहना वरं अच्छा है, परन्तु विधाता दुष्टका संग [कभी] न दे। [विभीषणजीने कहा-] हे रघुनाथजी! अब आपके चरणोंका दर्शन कर कुशलसे हूँ. जो आपने अपना सेवक जानकर मुझपर दया की है॥ ४॥

दो०- तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥४६॥

तबतक जीव की कुशल नहीं और न स्वप्न में भी उसके मन को शान्ति है, जबतक वह शोक के घर काम (विषय-कामना) को छोड़कर श्रीरामजी को नहीं भजता॥४६॥

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरें चाप सायक कटि भाथा॥

लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मंद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभीतक हृदयमें बसते हैं, जबतक कि धनुष-बाण और कमरमें तरकस धारण किये हुए श्रीरघुनाथजी हृदयमें नहीं बसते॥१॥

ममता तरुन तमी अँधिआरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥

ममता पूर्ण अँधेरी रात है, जो राग-द्वेषरूपी उल्लुओंको सुख देनेवाली है। वह (ममतारूपी रात्रि) तभीतक जीवके मनमें बसती है, जबतक प्रभु (आप) का प्रतापरूपी सूर्य उदय नहीं होता॥२॥

अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥

हे श्रीरामजी! आपके चरणारविन्द के दर्शन कर अब मैं कुशल से हूँ, मेरे भारी भय मिट गये। हे कृपालु! आप जिसपर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते॥३॥

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदय मोहि लावा॥

मैं अत्यन्त नीच स्वभाव का राक्षस हूँ। मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया। जिनका रूप मुनियों के भी ध्यान में नहीं आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया।४।।

दो०- अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज॥४७॥

हे कृपा और सुखके पुञ्ज श्रीरामजी! मेरा अत्यन्त असीम सौभाग्य है, जो मैंने ब्रह्मा और शिवजीके द्वारा सेवित युगल चरणकमलोंको अपने नेत्रोंसे देखा॥४७॥

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही।

[श्रीरामजीने कहा-] हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य [सम्पूर्ण] जड चेतन जगत्का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तककर आ जाय,॥ १॥

तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहद परिवारा॥

और मद, मोह तथा नाना प्रकारके छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधुके समान कर देता हूँ। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार-॥२॥

सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
 
इन सबके ममत्वरूपी तागोंको बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बटकर उसके द्वारा जो अपने मनको मेरे चरणों में बाँध देता है (सारे सांसारिक सम्बन्धोंका केन्द्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मनमें हर्ष, शोक और भय नहीं है॥३॥

अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें।

ऐसा सज्जन मेरे हृदयमें कैसे बसता है, जैसे लोभीके हृदयमें धन बसा करता है। तुम-सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसीके निहोरेसे (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता॥ ४॥

दो०- सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥४८॥

जो सगुण (साकार) भगवानके उपासक हैं, दूसरेके हितमें लगे रहते हैं, नीति और नियमोंमें दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणोंके चरणोंमें प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणोंके समान हैं॥ ४८॥

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा।

हे लङ्कापति ! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यन्त ही प्रिय हो। श्रीरामजी के वचन सुनकर सब वानरों के समूह कहने लगे-कृपा के समूह श्रीरामजी की जय हो!॥१॥

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी।
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥

प्रभु को वाणी सुनते हैं और उसे कानों के लिये अमृत जानकर विभीषणजी अघाते नहीं हैं। वे बार-बार श्रीरामजी के चरणकमलों को पकड़ते हैं। अपार प्रेम है, हृदयमें समाता नहीं है॥२॥

सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी।
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥

[विभीषणजीने कहा-] हे देव! हे चराचर जगत्के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिये, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी, वह प्रभु के चरणों की प्रीतिरूपी नदी में बह गयी॥३॥

अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥

अब तो हे कृपालु! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगनेवाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिये। 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्रीरामजी ने तुरंत ही समुद्र का जल माँगा॥४॥

जदपि सखा तव इच्छा नाहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥


[और कहा-] हे सखा! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत् में मेरा दर्शन अमोघ है (वह निष्फल नहीं जाता)। ऐसा कहकर श्रीरामजी ने उनको राजतिलक कर दिया। आकाश से पुष्पों की अपार वृष्टि हुई॥५॥

दो०- रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड॥४९ (क)॥


श्रीरामजी ने रावण के क्रोधरूपी अग्नि में, जो अपनी (विभीषण की) श्वास (वचन) रूपी पवनसे प्रचण्ड हो रही थी, जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखण्ड राज्य दिया। ४९ (क)॥

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥४९ (ख)।

शिवजी ने जो सम्पत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देनेपर दी थी, वही सम्पत्ति श्रीरघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी॥ ४९ (ख)॥

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥

ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, वे बिना सींग पूँछ के पशु हैं। अपना सेवक जानकर विभीषण को श्रीरामजी ने अपना लिया। प्रभुका स्वभाव वानरकुल के मनको [बहुत] भाया॥१॥

पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक।

फिर सब कुछ जाननेवाले, सबके हृदय में बसने वाले, सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट), सबसे रहित, उदासीन, कारणसे (भक्तों पर कृपा करने के लिये) मनुष्य बने हुए तथा राक्षसों के कुल का नाश करनेवाले श्रीरामजी नीति की रक्षा करने वाले वचन बोले-॥२॥

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