रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (सुंदरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (सुंदरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 13
आईएसबीएन :

Like this Hindi book 0

भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। पंचम सोपान किष्किन्धाकाण्ड


समुद्र पार करने के लिए विचार, रावणदूत शुक का आना और लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर लौटना


सुनु कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँती॥


हे वीर वानरराज सुग्रीव और लङ्कापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्रको किस प्रकार पार किया जाय? अनेक जातिके मगर, साँप और मछलियोंसे भरा हुआ यह अत्यन्त अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकारसे कठिन है॥३॥

कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक।
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई॥

विभीषणजी ने कहा—हे रघुनाथजी! सुनिये, यद्यपि आपका एक बाण ही करोड़ों समुद्रों को सोखनेवाला है (सोख सकता है), तथापि नीति ऐसी कही गयी है (उचित यह होगा) कि [पहले] जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाय॥४॥

दो०- प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥५०॥

हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देंगे। तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जायगी॥५०॥

सखा कही तुम्ह नीकि उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा॥

[श्रीरामजीने कहा-] हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाय, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजीके मनको अच्छी नहीं लगी। श्रीरामजीके वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया॥१॥

नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा॥

[लक्ष्मणजीने कहा--] हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिये (ले आइये) और समुद्रको सुखा डालिये। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देनेका उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥२॥

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई॥

यह सुनकर श्रीरघुवीर हँसकर बोले-ऐसे ही करेंगे, मनमें धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाईको समझाकर प्रभु श्रीरघुनाथजी समुद्रके समीप गये॥३॥

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।
पाछे रावन दूत पठाए।

उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारेपर कुश बिछाकर बैठ गये। इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभुके पास आये थे, त्यों ही रावणने उनके पीछे दूत भेजे थे॥४॥

दो०- सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह॥५१॥

कपट से वानर का शरीर धारणकर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं। वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागतपर उनके स्नेह की सराहना करने लगे॥५१॥

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥

फिर वे प्रकटरूप में भी अत्यन्त प्रेमके साथ श्रीरामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे, उन्हें दुराव (कपट वेष) भूल गया। तब वानरों ने जाना कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीव के पास ले आये॥१॥

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर।
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
बाँधि कटक चहु पास फिराए।

सुग्रीव ने कहा-सब वानरो ! सुनो, राक्षसों के अङ्ग-भङ्ग करके भेज दो। सुग्रीव के वचन सुनकर वानर दौड़े। दूतों को बाँधकर उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया॥२॥

बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे।
जो हमार हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस कै आना।


वानर उन्हें बहुत तरहसे मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरोंने उन्हें नहीं छोड़ा। [तब दूतोंने पुकारकर कहा-] जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्रीरामजीकी सौगंध है॥३॥

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए।
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥

यह सुनकर लक्ष्मणजी ने सबको निकट बुलाया। उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़ा दिया।[और उनसे कहा-] रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना [और कहना-] हे कुलघातक! लक्ष्मणके शब्दों (सँदेसे) को बाँचो॥४॥

दो०- कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥५२॥

फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हुआ) सन्देश कहना कि सीताजी को देकर उनसे (श्रीरामजीसे) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया [समझो]॥ ५२॥

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book