रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
श्रीगणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
सप्तम सोपान
उत्तरकाण्ड
श्लोक
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
सप्तम सोपान
उत्तरकाण्ड
श्लोक
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
शोभाढ्ढयं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्।।1।।
शोभाढ्ढयं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्।।1।।
मोर के कण्ठ की आभा के समान (हरिताभ) नीलवर्ण, देवताओं में श्रेष्ठ,
ब्राह्मण (भृगुजी) के चरणकमल के चिह्न से सुशोभित, शोभा से पूर्ण,
पीताम्बरधारी, कमलनेत्र, सदा परम प्रसन्न, हाथों में बाण और धनुष धारण किये
हुए वानरसमूह से युक्त भाई लक्ष्मणजी से सेवित स्तुति किये जाने योग्य,
श्रीजानकीजी के पति रघुकुल श्रेष्ठ पुष्पक-विमान पर सवार श्रीरामचन्द्रजी को
मैं निरन्तर नमस्कार करता हूँ।।1।।
कोसलेन्द्रपदकंजमजंलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृंगसंगनौ।।2।।
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृंगसंगनौ।।2।।
कोसलपुरी के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर और कोमल दोनों चरणकमल
ब्रह्माजी और शिवजी के द्वारा वन्दित हैं, श्रीजानकीजी के करकमलों से
दुलराये हुए हैं और चिन्तन करने वाले मनरूपी भौंरे के नित्य संगी हैं
अर्थात् चिन्तन करने वालों का मनरूपी भ्रमर सदा उन चरणकमलों में बसा रहता
है।।2।।
कुन्दइन्दुरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।
कारुणीककलकंजलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम्।।3।।
कारुणीककलकंजलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम्।।3।।
कुन्द के फूल, चन्द्रमा और शंख के समान सुन्दर गौरवर्ण, जगज्जननी
श्रीपार्वतीजी के पति, वांछित फलके देनेवाले, [दुखियोंपर सदा] दया
करनेवाले, सुन्दर कमलके समान नेत्रवाले, कामदेव से छुड़ानेवाले,
[कल्याणकारी] श्रीशंकरजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।3।।
दो.-रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग।।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग।।
[श्रीरामजीके लौटने की] अवधिका एक ही दिन बाकी रह गया, अतएव नगरके लोग
बहुत आतुर (अधीर) हो रहे हैं। राम के वियोग में दुबले हुए स्त्री-पुरुष
जहाँ-तहाँ सोच (विचार) कर रहे हैं [कि क्या बात है, श्रीरामजी क्यों नहीं
आये]।
सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर।।
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर।।
इतने में ही सब सुन्दर शकुन होने लगे और सबके मन प्रसन्न हो गये। नगर भी
चारो ओर से रमणीक हो गया। मानो ये सब-के-सब चिह्न प्रभु के [शुभ] आगमन को
जना रहे हैं।
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ।
आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोई।।
आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोई।।
कौसल्या आदि सब माताओं के मन में ऐसा आनन्द
हो रहा है जैसे अभी कोई कहना ही चाहता है कि सीताजी और लक्ष्मणजीसहित प्रभु
श्रीरामचन्द्रजी आ गये।।
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार।।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार।।
भरतजी की दाहिनी आँख और दाहिनी भुजा बार-बार
फड़क रही है। इसे शुभ शकुन
जानकर उनके मनमें अत्यन्त हर्ष हुआ और वे विचार करने लगे-
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