रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर।।
मिलत प्रेम नहिं हृदय समाता। नयन स्रवत जल पुलकित गाता।।5।।
मिलत प्रेम नहिं हृदय समाता। नयन स्रवत जल पुलकित गाता।।5।।
मैं दीनों के बन्धु श्रीरघुनाथजी का दास हूँ।
यह सुनते ही भरत जी उठकर
आदरपूर्वक हनुमान् जी से गले लगकर मिले। मिलते समय प्रेम हृदय में नहीं
समाता। नेत्रों से [आनन्द और प्रेमके आँसुओंका] जल बहने लगा और शरीर पुलकित
हो गया।।5।।
कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते।।
बार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता।।6।।
बार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता।।6।।
[भरतजीने कहा-] हे हनुमान् ! तुम्हारे दर्शन
से मेरे समस्त दुःख समाप्त हो
गये (दुःखों का अन्त हो गया)। [तुम्हारे रूपमें] आज मुझे प्यारे राम जी मिल
गये। भरतजी ने बार बार कुशल पूछी [और कहा-] हे भाई ! सुनो; [इस शुभ संवाद के
बदले में] तुम्हें क्या दूँ ?।।6।।
एहि संदेस सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं।।
नाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।।7।।
नाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।।7।।
इस सन्देश के समान (इसके बदल में देने लायक
पदार्थ) जगत् में कुछ भी नहीं
है, मैंने यह विचार कर देख लिया है। [इसलिये] हे तात ! मैं तुमसे किसी
प्रकार भी उऋण नहीं हो सकता। अब मुझे प्रभु का चरित्र (हाल) सुनाओ।।7।।
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