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रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दो.-बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज।।23।।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज।।23।।
श्रीरामचन्द्रजीके राज्यमें चन्द्रमा अपनी
[अमृतमयी] किरणोंसे पृथ्वीको
पूर्ण कर देते हैं। सूर्य उतना ही तपते हैं जितने की आवश्यकता होती है और
मेघ माँगने से [जब जहाँ जितना चाहिये उतना ही] जल देते हैं।।23।।
चौ.-कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे।।
श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर।।1।।
श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर।।1।।
प्रभु श्रीरामजी ने करोड़ों अश्वमेध यज्ञ किये
और ब्राह्मणों को अनेकों दान
दिये। श्रीरामचन्द्रजी वेदमार्ग के पालनेवाले, धर्मकी धुरीको धारण
करनेवाले, [प्रकृतिजन्य सत्त्व रज और तम] तीनों गुणों से अतीत और भोगों
(ऐश्वर्य) में इन्द्र के समान हैं।।1।।
पति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील बिनीता।।
जानति कृपासिंधु प्रभुताई। सेवति चरन कमल मन लाई।।2।।
जानति कृपासिंधु प्रभुताई। सेवति चरन कमल मन लाई।।2।।
शोभा की खान, सुशील और विनम्र सीताजी सदा पति
के अनुकूल रहती हैं। वे
कृपासागर श्रीरामजीकी प्रभुता (महिमा) को जानती हैं और मन लगाकर उनके
चरणकमलों की सेवा करती हैं।।2।।
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