रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
चौ.-बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।।
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी।।1।
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी।।1।
संत विषयों में लंपट (लिप्त) नहीं होते, शील
और सद्गुणोंकी खान होते है।
उन्हें पराया दुःख देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता है। वे [सबमें,
सर्वत्र, सब समय] समता रखते हैं, उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है, वे मदसे
रहित और वैराग्यवान् होते हैं तथा लोभ, क्रोध हर्ष और भयका त्याग किये हुए
रहते हैं।।1।।
कोमलचित दीनन्ह पर दया। मन बच क्रम मम भगति अयामा।।
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी।।2।।
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी।।2।।
उनका चित्त बड़ा कोमल होता है। वे दीनोंपर
दया करते हैं तथा मन, वचन और
कर्मसे मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं, पर
स्वयं मानरहित होते हैं। हे भरत ! वे प्राणी (संतजन) मेरे प्राणोंके समान
हैं।।2।।
बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन।।
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री।।3।।
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री।।3।।
उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नाम के
परायण होते हैं। शान्ति,
वैराग्य, विनय और प्रसन्नताके घर होते हैं। उनमें शीतलता, सरलता, सबके
प्रति मित्रभाव और ब्राह्मणके चरणोंमें प्रीति होती है, जो धर्मों को
उत्पन्न करनेवाली है।।3।।
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