नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरुपं।।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।1।।
सारे व्यक्त जगत के नियंताओं (ईशानों) के भी ईश्वर को मेरा नमस्कार है। वे ईश्वर जो निर्वाण अर्थात् विभिन्न प्रकार के वाणों से होने कष्ट को निर्मूल करने वाले रूप (आधार को) धारण करते हैं। इस जगत् में विभु अर्थात् विभिन्न रूपों में व्यक्त होते हुए व्यापक रूप से उपस्थित हैं। हे ब्रह्म आप वेदों में वर्णित ज्ञान का वास्तविक रूप हैं, अर्थात् वेदों में आपके विभिन्न रूपों का नाना प्रकार से वर्णन आता है। हे प्रभु आप हमारा वह नितांत निजी रूप हैं जो किसी एक गुण से अर्थात् किसी एक विशेष गुण से न बंधकर बल्कि सारे गुणों के परे होकर निर्गुण हैं। हे ब्रह्म हममें आपकी उपस्थिति विकल्परहित है, अर्थात् हे भगवन् हमारे संपूर्ण जीवन में आपका किसी भी प्रकार का कोई भी विकल्प नहीं है। आपके बिना इस जगत् का कार्य एक क्षण के लिए भी नहीं चल पाता। आप निरीह अर्थात् जिनकी अपनी कोई इच्छा नहीं है (जिस प्रकार मनुष्यों और अन्य प्राणियों में इच्छाएँ होती हैं, उस तरह की किसी इच्छा से आप कोई काम नहीं करते हैं। मेरे चिदाकाश अर्थात् चित् (हमारी चेतना का केन्द्र) रूपी आकाश में वास करने वाले हे प्रभु मैं आपको भजता हूँ। यहाँ चिदाकाश का विशेष महत्व है, क्योंकि हम सभी इस जगत् का व्यक्तिगत अनुभव अपनी चेतना के आकाश में ही करते हैं। यह समस्त जगत् हमारे विचारों और अनुभवों के रूप में हमारे चित् के आकाश में परिलक्षित होता है। अन्य शब्दों में जिस प्रकार हमारे शरीर का प्रतिबिम्ब दर्पण में प्रतिलक्षित होता है, उसी प्रकार यह जगत् हमारे चिदाकाश में परिलक्षित होकर ही हमारा अनुभव बनता है। यों तो समस्त जगत् परमात्मा में स्थित है, परंतु उस परमात्मा का अनुभव हमें अपने चिदाकाश में ही होता है।
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।2।।
आप निराकार अर्थात् किसी एक विशेष आकार में न होकर किसी भी आकार और सभी आकारों में हैं, अर्थात् इस जगत् में लक्षित हर आकार का वास्तविक आधार हैं। आप ओंकार हैं। ओंकार अर्थात् ओम (भूत, वर्तमान, भविष्य और इनसे भी परे अथवा (जागृत, सुषुप्त और स्वप्न अर्थात् इन तीनों अवस्थाओँ में) तुरीय हैं। आप इन सभी अवस्थाओँ के मूल हैं। आप वह सर्वोच्च ज्ञान और इस जगत् के संपूर्ण आधार हैं जो नेत्रों की दृष्टि क्षमता से परे हैं, परंतु इस व्यक्त जगत् के सबसे गूढ़ और उच्चतम ज्ञान के भी स्वामी (भगवान) हैं। इस जगत् की दुर्घुर्षतम वस्तु से भी दुरूह और काल (समय) जो कि प्रलय के साथ समाप्त हो जाता है उस समय और इस समस्त व्यक्त जगत् के समाप्त होने के पश्चात् भी बने रहते हैं। अर्थात् काल के भी काल हैं और उस काल पर कृपा करके उसके अस्तित्व को बने रहने देते हैं। हे प्रभु सभी गुण आप से ही उत्पन्न होते हैं, अर्थात् आप गुणों का आगार (घर) हैं। संसार (हर व्यक्ति इस जगत् को अपनी बुद्धि और मन से अनुभव करता है, उसका यह अनुभव वास्तविक जगत से भिन्न हो सकता है), इसलिए कहते हैं कि हर व्यक्ति का संसार अलग-अलग होता है। हे भगवन् आप इन सभी संसारों से परे होकर उनको आधार देने वाले जगत् की उत्पत्ति का कारण हैं। मैं आपको नतमस्तक हूँ। ।।2।।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।3।।
आप हिमालय के समान गौर वर्ण तथा गम्भीर हैं, मनुष्यों की कोटि-कोटि कामनाओं की ज्योति और शोभा को आपसे ही आधार मिलता है। सुन्दर गंगाजी आपके सिर में आश्रय लेकर विराजमान हैं, अर्थात् गंगाजी की तरह पवित्र और मानवमात्र के लिए सुखदायिनी बुद्धि आपसे स्फुरित होती है। आपके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा मनस की शांति का प्रतीक है। गले में लिपटे हुए सुशोभित सर्प आपकी शक्ति का प्रतीक हैं।।3।।
चलत्कुंलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नानं नीलकंठं दयालं।।
मृगाधीशचरमाम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।4।।
जिनके कानों के कुण्डल हिल रहे हैं, सुन्दर भृकुटी और विशाल नेत्र हैं; जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं; सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये और मुण्डमाला पहने हैं; उन सबके प्यारे और सबके नाथ [कल्याण करनेवाले] श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।4।।
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।5।।
प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ (सबसे उत्तम), तेजस्वी (तेज जिनका स्वरूप है), परमेश्वर (सभी ईश्वरों के ईश्वर), अखण्ड (जिनका कोई खण्ड नहीं है, जैसे आकाश का कोई खण्ड नहीं होता है, आप उससे भी विशाल हैं, जिनका कोई खण्ड नहीं है), अजन्मा (जगत् में हर व्यक्त वस्तु का कभी-न-कभी जन्म होता है, तभी वह वस्तु इंद्रियों से जानी जाती है, हे प्रभु आपका जन्म नहीं होता है, बल्कि आप इस जगत् को जन्म देने वाले हैं), करोड़ों सूर्यों के समान (न केवल इस सौर-मंडल में, बल्कि अन्य सभी सौर-मण्डलों जो कि इस समस्त ब्रमाण्ड में व्याप्त हैं) प्रकाशवाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करनेवाले, हाथमें त्रिशूल धारण किये, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होनेवाले भवानी के पति श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।5।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।।
चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद पसीद प्रभो मन्मथारी।।6।।
कलाओं से परे, कल्याण करने वाले, कल्प का अन्त (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानन्दघन, मोह को हरनेवाले, मनको मथ डालनेवाले (इच्छाओँ का जन्म मन में होता है और इन इच्छाओँ के स्वामी कामदेव कहे गये हैं) कामदेव के शत्रु हे प्रभो ! प्रसन्न हों प्रसन्न हों।।6।।
न यावद् उमानाथ पादारविन्द। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।7।।
हे पार्वती के पति जब तक मनुष्य गण आपके चरणकमलों को नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इहलोक और न ही परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और न ही उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो ! प्रसन्न हों।।7।।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।8।।
मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो ! मैं तो सदा-सर्वदा आपको नत-मस्तक हूँ। हे प्रभो ! बुढा़पा तथा जन्म [मृत्यु] के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखीको दुःखसे रक्षा करिये। हे ईश्वर ! हे शम्भो ! मैं नमस्कार करता हूँ।।8।।
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।याचना।।
भगवान् रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकर जी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिये ब्राह्मणद्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्ति पूर्वक पढ़ते हैं, उनपर भगवान् शम्भु प्रसन्न हो जाते हैं।।याचना।।