श्रीमद्भगवद्गीता >> श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2

महर्षि वेदव्यास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 6
आईएसबीएन :

Like this Hindi book 0

गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।17।।

नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्-दृश्यवर्ग  व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।।17।।

विद्वान लोग जानते हैं कि, इस जगत् की हर वस्तु के आधार का कोई न कोई निमित्त्त और उपादान कारण है। यदि इन कारणों के मूल की तार्किक खोज की जाये तो हम उस अविनाशी परमात्मा तक पहुँचते है, जो कि हर वस्तु के मूल में व्याप्त है। इस परमात्मा को अविनाशी इसलिए कहते हैं, क्योंकि विनाश न होने के कारण वह हर काल में और हर स्थान पर, हर वस्तु में विराजमान है। सर्वम् इदं अर्थात् जो कुछ भी हमें इस संसार में दिखता है अथवा अनुभव में आता है, वह सभी कुछ अविनाशी वस्तु के द्वारा आधार अथवा सम्बल पाता है और जो सबका आधार है, जिसके कारण अन्य वस्तुयें दिखती अथवा होती हैं, उस मूल वस्तु का विनाश कोई उन पर आधारित वस्तु किस प्रकार कर सकती है?

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।18।।

इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।।18।।

परमात्मा जिन भी रूपों में व्यक्त होता है वे सभी व्यक्त रूप पुनः अव्यक्त (विलीन) होने के लिए ही बने हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि परमात्मा के विभिन्न रूप आकार, आयु आदि ग्रहण करते हैं और फिर समय के साथ विलीन हो जाते हैं, लेकिन विलीन होने वाले तो केवल वे रूप, वे अभिव्यक्ति ही हैं, स्वयं परमात्मा तो नाशरहित और अप्रमेय है। भगवान् कृष्ण अर्जुन को भारत अर्थात् भरतवंशी के नाम से संबोधित करते हैं। ऐसा क्यों? भगवान् अर्जुन को स्मरण करवाना चाहते हैं कि तुम जिनके वंशज हो वे भरत भी आये और उनकी संताने भी आईँ और चली गईं। वे सब भी नित्यस्वरूप परमात्मा का ही व्यक्त रूप थीं और तुम भी उसी परमात्मा का व्यक्त रूप हो। यह आना जाना ही प्रकृति का नियम है। नाशरहित अप्रमेय (जिन्होंने हिन्दी में गणित पढ़ी है वे प्रमेय शब्द से अवश्य परिचित होंगे, गणित में प्रमेय शब्द का अर्थ होता है वह विषय वस्तु अथवा सिद्धान्त जिसे समझा अथवा समझाया जाता है, अर्थात् यहाँ अप्रमेय का अर्थ हुआ कि परमात्मा सैद्धान्तिक रूप से अथवा केवल बुद्धि द्वारा समझ में आने वाली वस्तु नहीं है। क्योंकि बुद्धि इस जगत् में व्याप्त सिद्धान्तों को ग्रहण करने का आधार है, लेकिन परमात्मा इस बुद्धि को प्रकट करने वाली चेतना है। इस प्रकार परमात्मा हर अभिव्यक्ति (मन, बुद्धि और शरीर का आधार है) परमात्मा का ही शरीर होने (अर्थात् परमात्मा का अंश होने) के कारण तुम्हें सोच-विचार त्याग कर इन जन्म लेने और मरने वाले (आने-जाने वाले, अन्त-वन्त) लोगों के लिए सोच-विचार त्याग कर युद्ध के लिए प्रवृत्त होना चाहिए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

लोगों की राय

No reviews for this book