अतएव हमने देखा कि कार्य कभी
कारण से भिन्न नहीं
होता। वह तो उसी कारण का स्थूलतर रूप में पुनः आविर्भाव मात्र है। उसके
बाद हमने
सीखा कि ये सब विशेष-विशेष रूप, जिन्हें हम
उद्भिद् अथवा
तिर्यग्जाति अथवा मानवजाति कहते हैं अनन्त काल से उठते-गिरते, घूमते-फिरते आ रहे हैं। बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष पुनः
बीज में चला
जाता है- बस, इसी प्रकार चल रहा है, इसका
कहीं अन्त नहीं है। जल की बूंदें पहाड़ पर गिरकर समुद्र में जाती हैं,
फिर वाष्प होकर उठती हैं- पहाड़ पर पहुँचती हैं और नदी
में लौट आती हैं।
बस, इस प्रकार उठते-गिरते हुए युगचक्र चल रहा
है। समस्त जीवन
का यही नियम है समस्त अस्तित्व जो हम देखते, सोचते,
सुनते और
कल्पना करते हैं, जो कुछ हमारे ज्ञान की सीमा
के भीतर है,
वह सब इसी प्रकार चल रहा है, ठीक
जैसे मनुष्य
के शरीर में श्वास-प्रश्वास। अतएव समस्त सृष्टि इसी प्रकार चल रही है।
एक तरंग
उठती है, एक गिरती है, फिर
उठकर पुनः
गिरती है। प्रत्येक उठती हुई तरंग के साथ एक पतन है, प्रत्येक
पतन
के साथ एक उठती हुई तरंग है। समस्त ब्रह्माण्ड एकरूप होने के कारण,
सर्वत्र एक ही नियम लागू होगा। अतएव हम देखते हैं कि
समस्त ब्रह्माण्ड एक
समय अपने कारण में लय होने को बाध्य है : सूर्य, चन्द्र,
ग्रह, तारे, पृथ्वी,
मन, शरीर, जो
कुछ इस
ब्रह्माण्ड में है, सब का सब अपने सूक्ष्म
कारण में लीन अथवा
तिरोभूत हो जाएगा, आपाततः विनष्ट हो जाएगा। पर
वास्तव में वे
सब अपने कारण में सूक्ष्म रूप से रहेंगे। इन सूक्ष्म रूपों से वे पुनः
बाहर
निकलेंगे और पुनः पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य,
यहाँ तक कि समस्त जगत् की सृष्टि होगी।
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