अब इस विषय के अन्य ब्योरों
में हम नहीं जाएँगे।
पुनर्जन्म के बारे में केवल एक और बात की ओर तुम लोगों का ध्यान आकर्षित
कर मैं यह
चर्चा समाप्त करूँगा। यह पुनर्जन्मवाद ही एक ऐसा मत है,
जो जीवात्मा की स्वाधीनता की घोषणा करता है। यही एक ऐसा
मत है, जो हमारी सारी दुर्बलताओं का दोष किसी
दूसरे के मत्थे नहीं मढ़ता। अपने
निज के दोष दूसरे के मत्थे मढ़ना मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलता है। हम
अपने दोष
नहीं देखते। आँखें अपने को कभी नहीं देखतीं, पर
वे अन्य सब
की आँखें देखा करती हैं। हम मनुष्य अपनी दुर्बलताएँ, अपनी
गलतियाँ
मानने को राजी नहीं होते। साधारणतः मनुष्य अपने दोषों और भूलों को
पड़ोसियों पर लादना चाहता है; यह न जमा,
तो उन सब को ईश्वर के मत्थे मढ़ना चाहता है; और
इसमें भी यदि सफल न हुआ, तो फिर 'भाग्य'
नामक एक भूत की कल्पना करता है और उसी को उन सब के लिए
उत्तरदायी बनाकर
निश्चिन्त हो जाता है। पर प्रश्न यह है कि 'भाग्य'
नामक यह वस्तु है क्या और रहती कहाँ है? हम तो जो
कुछ बोते हैं, बस वही काटते हैं। हम स्वयं
अपने भाग्य के
विधाता हैं। हमारा भाग्य यदि खोटा हो,
तो भी कोई दूसरा दोषी नहीं; और
यदि हमारे भाग्य
अच्छे हों, तो भी कोई दूसरा प्रशंसा का पात्र
नहीं। वायु
सर्वदा बह रही है। जिन-जिन जहाजों के पाल खुले
रहते हैं,
वायु उन्हीं का साथ देती है और वे आगे बढ़ जाते हैं। पर
जिनके पाल
नहीं खुले रहते, उन पर वायु नहीं लगती। तो
क्या यह वायु का
दोष है? हममें कोई सुखी है, तो
कोई
दुःखी। यह क्या उन करूणामय पिता का दोष है, जिनकी
कृपावायु
दिन-रात बह रही है, जिनकी दया का अन्त नहीं है?
हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं। उनका सूर्य दुर्बल,
बलवान सब के लिए उगता है। साधु, पापी
सभी के लिए
उनकी वायु बह रही है। वे सब के प्रभु हैं, पिता
हैं, दयामय और समदर्शी हैं। क्या तुम सोचते हो
कि हम छोटी-छोटी चीजों को जिस
दृष्टि से देखते हैं, वे भी उसी दृष्टि से
देखते हैं?
भगवान् के सम्बन्ध में यह कितनी भ्रष्ट धारणा ! कुत्ते
के पिल्लों
की तरह हम यहाँ पर नाना विषयों के लिए प्राणपण से चेष्टा कर रहे हैं और
मूर्ख की
तरह समझते हैं कि भगवान् भी उन विषयों को ठीक उसी तरह सत्य समझकर ग्रहण
करेंगे। इन
पिल्लों के इस खेल का क्या अर्थ है, भगवान्
अच्छी तरह जानते
हैं। उन पर सब दोष लाद देना या यह कहना कि वे ही दण्ड-पुरस्कार देने के
मालिक हैं,
मूर्खता की बातें हैं। वे किसी को न दण्ड देते हैं,
न पुरस्कार। प्रत्येक देश में, प्रत्येक
काल में,
प्रत्येक अवस्था में हर एक जीव उनकी अनन्त दया प्राप्त
करने का
अधिकारी है। उसका किस प्रकार उपयोग किया जाए, यह
हम पर
निर्भर करता है। मनुष्य, ईश्वर या और किसी पर
दोष लादने की
चेष्टा न करा। जब तुम कष्ट पाते हो, तो अपने
को ही उसके लिए
दोषी समझो और जिससे अपना कल्याण हो सके, उसी
की चेष्टा करो।
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