रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड
सती का भ्रम, श्रीरामजी का ऐश्वर्य और सती का खेद
एक बार त्रेता जुग माहीं।
संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।।
संग सती जगजननि भवानी।
पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी।।
एक बार त्रेतायुगमें शिवजी अगस्त्य ऋषिके पास गये। उनके साथ जगज्जननी भवानी
सतीजी भी थीं। ऋपिने सम्पूर्ण जगतके ईश्वर जानकर उनका पूजन किया ॥१॥ संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।।
संग सती जगजननि भवानी।
पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी।।
रामकथा मुनिबर्ज बखानी।
सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई।
कही संभु अधिकारी पाई।।
मुनिवर अगस्त्यजीने रामकथा विस्तारसे कही, जिसको महेश्वरने परम सुख मानकर सुना।
फिर ऋषिने शिवजीसे सुन्दर हरिभक्ति पूछी और शिवजीने उनको अधिकारी पाकर
[रहस्यसहित] भक्तिका निरूपण किया।२॥ सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई।
कही संभु अधिकारी पाई।।
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा।
कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।
चले भवन सँग दच्छकुमारी॥
श्रीरघुनाथजीके गुणोंकी कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनोंतक शिवजी वहाँ रहे। फिर
मुनिसे विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजीके साथ घर (कैलास) को चले ॥३॥ कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।
चले भवन सँग दच्छकुमारी॥
तेहि अवसर भंजन महिभारा।
हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी।
दंडक बन बिचरत अबिनासी।
उन्हीं दिनों पृथ्वीका भार उतारनेके लिये श्रीहरिने रघुवंशमें अवतार लिया था।
वे अविनाशी भगवान उस समय पिताके वचनसे राज्यका त्याग करके तपस्वी या साधुवेशमें
दण्डकवनमें विचर रहे थे॥४॥ हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी।
दंडक बन बिचरत अबिनासी।
दो०- हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥४८(क)।
शिवजी हृदयमें विचारते जा रहे थे कि भगवानके दर्शन मुझे किस प्रकार हों।
प्रभुने गुप्तरूपसे अवतार लिया है, मेरे जानेसे सब लोग जान जायेंगे॥ ४८ (क)।गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥४८(क)।
सो०-संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची।। ४८ (ख)॥
श्रीशङ्करजोके हृदयमें इस बातको लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गयी, परन्तु सती इस
भेदको नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजीके मनमें [भेद खुलनेका] डर
था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे।४८(ख)। तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची।। ४८ (ख)॥
रावन मरन मनुज कर जाचा।
प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा।
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा।
करत बिचारु न बनत बनावा॥
रावणने [ब्रह्माजीसे] अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से मांगी थी। ब्रह्माजी के
वचनोंको प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा
रह जायगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती
थी॥१॥ प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा।
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा।
करत बिचारु न बनत बनावा॥
एहि बिधि भए सोचबस ईसा।
तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा।
भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा।।
इस प्रकार महादेवजी चिन्ताके वश हो गये। उसी समय नीच रावणने जाकर मारीचको साथ
लिया और वह (मारीच) तुरंत कपटमृग बन गया॥२॥ तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा।
भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा।।
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही।
प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए।
आश्रमु देखि नयन जल छाए॥
मूर्ख (रावण)ने छल करके सीताजीको हर लिया। उसे श्रीरामचन्द्रजीके वास्तविक
प्रभावका कुछ भी पता न था। मृगको मारकर भाई लक्ष्मणसहित श्रीहरि आश्रममें आये
और उसे खाली देखकर (अर्थात् वहाँ सीताजीको न पाकर) उनके नेत्रोंमें आँसू भर
आये।।३।। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए।
आश्रमु देखि नयन जल छाए॥
बिरह बिकल नर इव रघुराई।
खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें।
देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें।
श्रीरघुनाथजी मनुष्योंकी भाँति विरहसे व्याकुल हैं और दोनों भाई वनमें सीताको
खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष
विरहका दुःख देखा गया॥ ४॥ खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें।
देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें।
दो०- अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥४९॥
श्रीरघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते
हैं। जो मन्दबुद्धि हैं, वे तो विशेषरूप से मोह के वश होकर हृदयमें कुछ दूसरी
ही बात समझ बैठते हैं।। ४९ ॥ जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥४९॥
संभु समय तेहि रामहि देखा।
उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा।
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी।
कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥
श्रीशिवजी ने उसी अवसरपर श्रीरामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनन्द
उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र (श्रीरामचन्द्रजी) को शिवजी ने नेत्र भरकर
देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया ॥१॥ उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा।
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी।
कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥
जय सच्चिदानंद जग पावन।
अस कहि चलेउ मनोज नसावन।
चले जात सिव सती समेता।
पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता।
जगतके पवित्र करने वाले सच्चिदानन्द की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेवका नाश
करनेवाले श्रीशिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनन्द से पुलकित होते हुए
सतीजी के साथ चले जा रहे थे।॥ २॥ अस कहि चलेउ मनोज नसावन।
चले जात सिव सती समेता।
पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता।
सती सो दसा संभु कै देखी।
उर उपजा संदेहु बिसेषी।।
संकरु जगतबंध जगदीसा।
सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥
सतीजी ने शङ्करजी की वह दशा देखी तो उनके मनमें बड़ा सन्देह उत्पन्न हो गया।
[वे मन-ही-मन कहने लगी कि] शङ्करजी को सारा जगत वन्दना करता है, वे जगतके ईश्वर
हैं; देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं॥३॥उर उपजा संदेहु बिसेषी।।
संकरु जगतबंध जगदीसा।
सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥
तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा।
कहि सच्चिदानंद परधामा।
भए मगन छबि तासु बिलोकी।
अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥
उन्होंने एक राजपत्रको सच्चिदानन्द परमधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर
वे इतने प्रेममग्न हो गये कि अबतक उनके हृदयमें प्रीति रोकनेसे भी नहीं
रुकती॥४॥कहि सच्चिदानंद परधामा।
भए मगन छबि तासु बिलोकी।
अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥
दो०- ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद ॥५०।।
जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित
है, और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है? ॥ ५०
॥ सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद ॥५०।।
बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी।
सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी।
ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥
देवताओं के हित के लिये मनुष्य शरीर धारण करनेवाले जो विष्णुभगवान हैं, वे भी
शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भण्डार, लक्ष्मीपति और असुरोंके
शत्रु भगवान विष्णु क्या अज्ञानीकी तरह स्त्रीको खोजेंगे?॥१॥ सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी।
ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥
संभुगिरा पुनि मृषा न होई।
सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा।
होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥
फिर शिवजी के वचन भी झुठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ
हैं। सतीके मनमें इस प्रकारका अपार सन्देह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके
हृदयमें ज्ञानका प्रादुर्भाव नहीं होता था ॥२॥सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा।
होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी।
हर अंतरजामी सब जानी।।
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ।
संसय अस न धरिअ उर काऊ॥
यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब
जान गये। वे बोले-हे सती ! सुनो, तुम्हारा स्त्रीस्वभाव है। ऐसा सन्देह मनमें
कभी न रखना चाहिये॥३॥ हर अंतरजामी सब जानी।।
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ।
संसय अस न धरिअ उर काऊ॥
जासु कथा कुंभज रिषि गाई।
भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई।
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा।
सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।।
जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषिने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनिको सुनायी, वे
वही मेरे इष्टदेव श्रीरघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते
हैं।॥ ४॥ भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई।
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा।
सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।।
छं०- मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं।।
सोइ रामु व्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी।
ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरन्तर निर्मल चित्तसे जिनका ध्यान करते हैं तथा
वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं
सर्वव्यापक. समस्त ब्रह्माण्डोंके स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतन्त्र
ब्रह्मरूप भगवान श्रीरामजीने अपने भक्तोंके हितके लिये [अपनी इच्छासे] रघुकुलके
मणिरूपमें अवतार लिया है। कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं।।
सोइ रामु व्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी।
सो०- लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवें बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥५१॥
यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया,फिर भी सतीजीके हृदयमें उनका उपदेश नहीं बैठा,
तब महादेवजी मनमें भगवानकी मायाका बल जानकर मुसकराते हुए बोले- ॥५१॥ बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥५१॥
जौं तुम्हरें मन अति संदेहू।
तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं।
जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥
जो तुम्हारे मन में बहत सन्देह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जबतक
तुम मेरे पास लौट आओगी तबतक मैं इसी बड़की छाँहमें बैठा हूँ॥१॥तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं।
जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥
जैसें जाइ मोह भ्रम भारी।
करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चली सती सिव आयसु पाई।
करहिं बिचारु करौं का भाई॥
जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, [भलीभाँति] विवेकके
द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिवजीकी आज्ञा पाकर सती चली और मनमें सोचने लगी
कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)?॥२॥करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चली सती सिव आयसु पाई।
करहिं बिचारु करौं का भाई॥
इहाँ संभु अस मन अनुमाना।
दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना।
मोरेहु कहें न संसय जाहीं।
बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥
इधर शिवजीने मनमें ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब
मेरे समझाने से भी सन्देह दूर नहीं होता तब [मालूम होता है] विधाता ही उलटे
हैं, अब सतीका कुशल नहीं है ॥ ३॥ दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना।
मोरेहु कहें न संसय जाहीं।
बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा।
अस कहि लगे जपन हरिनामा|
गई सती जहँ प्रभु सुखधामा।
जो कुछ रामने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे।
[मनमें] ऐसा कहकर शिवजी भगवान श्रीहरिका नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गयीं जहाँ
मुखके धाम प्रभु श्रीरामचन्द्रजी थे ॥ ४॥ को करि तर्क बढ़ावै साखा।
अस कहि लगे जपन हरिनामा|
गई सती जहँ प्रभु सुखधामा।
दो०- पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगे होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥५२॥
सती बार-बार मनमें विचारकर सीताजीका रूप धारण करके उस मार्गको और आगे होकर
चलीं, जिससे [सतीजी के विचारानुसार मनुष्यों के राजा रामचन्द्रजी आ रहे थे॥५२॥
आगे होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥५२॥
लछिमन दीख उमाकृत बेषा।
चकित भए भ्रम हृदय बिसेषा।।
कहि न सकत कछु अति गंभीरा।
प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥
सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गये और उनके हदयमें बड़ा भ्रम
हो गया। वे बहुत गम्भीर हो गये, कुछ कह नहीं सके। धीरबुद्धि लक्ष्मण प्रभु
रघुनाथजी के प्रभावको जानते थे।।१।।चकित भए भ्रम हृदय बिसेषा।।
कहि न सकत कछु अति गंभीरा।
प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी।
सबदरसी सब अंतरजामी।।
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना।
सोइ सरबग्य रामु भगवाना।
सब कुछ देखनेवाले और सबके हृदयकी जाननेवाले देवताओंके स्वामी श्रीरामचन्द्रजी
सतीके कपटको जान गये; जिनके स्मरणमात्रसे अज्ञानका नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ
भगवान श्रीरामचन्द्रजी हैं।। २।। सबदरसी सब अंतरजामी।।
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना।
सोइ सरबग्य रामु भगवाना।
सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ।
देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ।
निज माया बलु हृदयँ बखानी।
बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥
देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ।
निज माया बलु हृदयँ बखानी।
बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू।
पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू।
बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥
पहले प्रभुने हाथ जोड़कर सतीको प्रणाम किया और पितासहित अपना नाम बताया। फिर
कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वनमें अकेली किसलिये फिर रही हैं?॥४॥पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू।
बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥
दो०- राम बचन मृद गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चली हृदय बड़ सोचु॥५३॥
श्रीरामचन्द्रजीके कोमल और रहस्यभरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे
डरती हुई (चुपचाप) शिवजीके पास चलीं. उनके हदयमें बड़ी चिन्ता हो गयी-॥५३॥सती सभीत महेस पहिं चली हृदय बड़ सोचु॥५३॥
मैं संकर कर कहा न माना।
निज अग्यानु राम पर आना।।
जाइ उतरु अब देहउँ काहा।
उर उपजा अति दारुन दाहा।।
-कि मैंने शङ्करजीका कहना न माना और अपने अज्ञानका श्रीरामचन्द्रजीपर आरोप
किया। अब जाकर मैं शिवजीको क्या उत्तर दूंगी? [यों सोचते-सोचते] सतीजीके
हृदयमें अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गयी ॥१॥निज अग्यानु राम पर आना।।
जाइ उतरु अब देहउँ काहा।
उर उपजा अति दारुन दाहा।।
जाना राम सती दुखु पावा।
निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा।।
सती दीख कौतुकु मग जाता।
आगें रामु सहित श्री भाता।
श्रीरामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ; तब उन्होंने अपना कुछ
प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजीने मार्गमें जाते हुए यह कौतुक देखा कि
श्रीरामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजीसहित आगे चले जा रहे हैं। [इस अवसरपर
सीताजीको इसलिये दिखाया कि सतीजी श्रीरामके सच्चिदानन्दमय रूपको देखें, वियोग
और दुःखको कल्पना जो उन्हें हुई थी वह दूर हो जाय तथा वे प्रकृतिस्थ हों]॥२॥निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा।।
सती दीख कौतुकु मग जाता।
आगें रामु सहित श्री भाता।
फिरि चितवा पाछे प्रभु देखा।
सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना।
सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥
[तब उन्होंने] पीछे को ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजीके
साथ श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर वेषमें दिखायी दिये। वे जिधर देखती हैं, उधर ही
प्रभु श्रीरामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे
हैं।।३॥ सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना।
सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥
देखे सिव बिधि बिष्णु अनेका।
अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा।
बिबिध बेष देखे सब देवा ॥
सतीजीने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक-से-एक बढ़कर असीम प्रभाववाले
थे। [उन्होंने देखा कि] भाँति-भौतिके वेष धारण किये सभी देवता
श्रीरामचन्द्रजीकी चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं॥४॥अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा।
बिबिध बेष देखे सब देवा ॥
दो०- सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥५४॥
उन्होंने अनगिनत अनुपम सती,ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूपमें ब्रह्मा
आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूपमें [उनकी] ये सब [शक्तियाँ] भी थीं ॥ ५४॥जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥५४॥
देखे जहँ तहँ रघुपति जेते।
सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते।।
जीव चराचर जो संसारा।
देखे सकल अनेक प्रकारा॥
सतीजीने जहाँ-तहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियोंसहित वहाँ उतने ही सारे
देवताओं को भी देखा। संसारमें जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकारसे सब
देखे॥१॥ सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते।।
जीव चराचर जो संसारा।
देखे सकल अनेक प्रकारा॥
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा।
राम रूप दूसर नहिं देखा।
अवलोके रघुपति बहुतेरे।
सीता सहित न बेष घनेरे।।
[उन्होंने देखा कि] अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको पूजा
कर रहे हैं। परन्तु श्रीरामचन्द्रजीका दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीतासहित
श्रीरघुनाथजी बहुत-से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे॥२॥राम रूप दूसर नहिं देखा।
अवलोके रघुपति बहुतेरे।
सीता सहित न बेष घनेरे।।
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता।
देखि सती अति भई सभीता।
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं।
नयन मूदि बैठी मग माहीं॥
[सब जगह] वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी-सती ऐसा देखकर बहुत ही डर
गयीं। उनका हृदय काँपने लगा और देहकी सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूंदकर
मार्ग में बैठ गयीं।। ३।।देखि सती अति भई सभीता।
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं।
नयन मूदि बैठी मग माहीं॥
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी।
कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा।
चली तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥
फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दीख पड़ा। तब वे
बार-बार श्रीरामचन्द्रजीके चरणों में सिर नवाकर वहाँ चली जहाँ श्रीशिवजी थे॥४॥कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा।
चली तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥
दो०- गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥५५॥
जब पास पहुँची, तब श्रीशिवजीने हँसकर कुशल-प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजीकी
किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो ॥५५॥लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥५५॥
मासपारायण, दूसरा विश्राम
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लोगों की राय
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