रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड
प्रतापभानु की कथा
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥
हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिवजीने पार्वतीसे कही थी। संसारमें प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वहाँ सत्यकेतु नामका राजा रहता (राज्य करता) था॥१॥
तेज प्रताप सील बलवाना॥
तेहि के भए जुगल सुत बीरा।
सब गुन धाम महा रनधीरा॥
वह धर्मकी धुरीको धारण करनेवाला, नीतिकी खान, तेजस्वी, प्रतापी, सुशील और बलवान् था, उसके दो वीर पुत्र हुए, जो सब गुणोंके भण्डार और बड़े ही रणधीर थे॥२॥
नाम प्रतापभानु अस ताही॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा।
भुजबल अतुल अचल संग्रामा।।
राज्यका उत्तराधिकारी जो बड़ा लड़का था, उसका नाम प्रतापभानु था। दूसरे पुत्रका नाम अरिमर्दन था, जिसकी भुजाओंमें अपार बल था और जो युद्धमें [पर्वतके समान] अटल रहता था॥३॥
सकल दोष छल बरजित प्रीती।
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा।
हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥
भाई-भाईमें बड़ा मेल और सब प्रकारके दोषों और छलोंसे रहित [सच्ची] प्रीति थी। राजाने जेठे पुत्रको राज्य दे दिया और आप भगवान [के भजन] के लिये वनको चल दिया॥४॥
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥१५३॥
जब प्रतापभानु राजा हुआ, देश में उसकी दुहाई फिर गयी। वह वेदमें बतायी हुई विधिके अनुसार उत्तम रीतिसे प्रजाका पालन करने लगा। उसके राज्यमें पापका कहीं लेश भी नहीं रह गया।। १५३ ॥
नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा।
आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥
राजाका हित करनेवाला और शुक्राचार्यक समान बुद्धिमान् धर्मरुचि नामक उसका मन्त्री था। इस प्रकार बुद्धिमान् मन्त्री और बलवान् तथा वीर भाईके साथ ही स्वयं राजा भी बड़ा प्रतापी और रणधीर था॥१॥
अमित सुभट सब समर जुझारा॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना।
अरु बाजे गहगहे निसाना॥
साथमें अपार चतुरङ्गिणी सेना थी, जिसमें असंख्य योद्धा थे, जो सब-के-सब रणमें जूझ मरनेवाले थे। अपनी सेनाको देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और घमाघम नगाड़े बजने लगे॥२॥
सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
जहँ तहँ परी अनेक लराई।
जीते सकल भूप बरिआईं।
दिग्विजयके लिये सेना सजाकर वह राजा शुभ दिन (मुहूर्त) साधकर और डंका बजाकर चला। जहाँ-तहाँ बहुत-सी लड़ाइयाँ हुईं। उसने सब राजाओंको बलपूर्वक जीत लिया ॥३॥
लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हे।
सकल अवनि मंडल तेहि काला।
एक प्रतापभानु महिपाला॥
अपनी भुजाओंके बलसे उसने सातों द्वीपों (भूमिखण्डों) को वशमें कर लिया और राजाओंसे दण्ड (कर) ले-लेकर उन्हें छोड़ दिया। सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डलका उस समय प्रतापभानु ही एकमात्र (चक्रवर्ती) राजा था॥४॥ .
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समय नरेसु॥१५४॥
संसारभरको अपनी भुजाओंके बलसे वशमें करके राजाने अपने नगरमें प्रवेश किया। राजा अर्थ, धर्म और काम आदिके सुखोंका समयानुसार सेवन करता था॥१५४॥
भूप प्रतापभानु बल पाई।
कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी।
धरमसील सुंदर नर नारी॥
राजा प्रतापभानुका बल पाकर भूमि सुन्दर कामधेनु (मनचाही वस्तु देनेवाली) हो गयी। [उनके राज्यमें ] प्रजा सब [प्रकारके] दुःखोंसे रहित और सुखी थी, और सभी स्त्री-पुरुष सुन्दर और धर्मात्मा थे॥१॥
नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा।
करइ सदा नृप सब कै सेवा।
धर्मरुचि मन्त्रीका श्रीहरिके चरणोंमें प्रेम था। वह राजाके हितके लिये सदा उसको नीति सिखाया करता था। राजा गुरु, देवता, संत, पितर और ब्राह्मण-इन सबकी सदा सेवा करता रहता था॥ २॥
सकल करइ सादर सुख माने॥
दिन प्रति देइ बिबिध बिधि दाना।
सुनइ सास्त्र बर बेद पुराना।
वेदोंमें राजाओंके जो धर्म बताये गये हैं, राजा सदा आदरपूर्वक और सुख मानकर उन सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकारके दान देता और उत्तम शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था ॥३॥
सुमन बाटिका सुंदर बागा॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए।
सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥
उसने बहुत-सी बावलियाँ, कुएँ, तालाब, फुलवाड़ियाँ, सुन्दर बगीचे, ब्राह्मणोंके लिये घर और देवताओंके सुन्दर विचित्र मन्दिर सब तीर्थों में बनवाये ॥४॥
बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग॥१५५॥
वेद और पुराणोंमें जितने प्रकारके यज्ञ कहे गये हैं, राजाने एक-एक करके उन सब यज्ञोंको प्रेमसहित हजार-हजार बार किया।। १५५ ॥
भूप बिबेकी परम सुजाना॥
करइ जे धरम करम मन बानी।
बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥
- [राजाके] हृदयमें किसी फलकी टोह (कामना) न थी। राजा बड़ा ही बुद्धिमान् और ज्ञानी था। वह ज्ञानी राजा कर्म, मन और वाणीसे जो कुछ भी धर्म करता था, सब भगवान वासुदेवके अर्पित करके करता था ॥१॥
मृगया कर सब साजि समाजा॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ।
मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥
एक बार वह राजा एक अच्छे घोड़ेपर सवार होकर, शिकारका सब सामान सजाकर विन्ध्याचलके घने जंगलमें गया और वहाँ उसने बहुत-से उत्तम-उत्तम हिरन मारे ॥२॥
जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं।
मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं॥
राजाने वनमें फिरते हुए एक सूअरको देखा। [दाँतोंके कारण वह ऐसा दीख पड़ता था] मानो चन्द्रमाको ग्रसकर (मुँहमें पकड़कर) राहु वनमें आ छिपा हो। चन्द्रमा बड़ा होनेसे उसके मुँहमें समाता नहीं है और मानो क्रोधवश वह भी उसे उगलता नहीं है ॥ ३ ॥
तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ।
चकित बिलोकत कान उठाएँ।
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हॉकि न होइ निबाहु॥१५६ ॥
नील पर्वतके शिखरके समान विशाल [शरीरवाले] उस सूअरको देखकर राजा घोड़ेको चाबुक लगाकर तेजीसे चला और उसने सूअरको ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता।। १५६ ॥
चलेउ बराह मरुत गति भाजी।।
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना।
महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥
अधिक शब्द करते हुए घोड़ेको [अपनी तरफ] आता देखकर सूअर पवनवेगसे भाग चला। राजाने तुरंत ही बाणको धनुषपर चढ़ाया। सूअर बाणको देखते ही धरतीमें दुबक गया ॥१॥
करि छल सुअर सरीर बचावा॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा।
रिस बस भूप चलेउ सँग लागा॥
राजा तक-तककर तीर चलाता है, परन्तु सूअर छल करके शरीरको बचाता जाता है। वह पशु कभी प्रकट होता और कभी छिपता हुआ भागा जाता था; और राजा भी क्रोधके वश उसके साथ (पीछे) लगा चला जाता था॥२॥
जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू।
तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥
सूअर बहुत दूर ऐसे घने जंगलमें चला गया, जहाँ हाथी-घोड़ेका निबाह (गम) नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वनमें क्लेश भी बहुत था, फिर भी राजाने उस पशुका पीछा नहीं छोड़ा ॥३॥
भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
अगम देखि नृप अति पछिताई।
फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥१५७॥
बहुत परिश्रम करनेसे थका हुआ और घोड़ेसमेत भूख-प्याससे व्याकुल राजा नदी-तालाब खोजता-खोजता पानी बिना बेहाल हो गया॥१५७ ॥
तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई।
समर सेन तजि गयउ पराई।
वनमें फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा; वहाँ कपटसे मुनिका वेष बनाये एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानुने छीन लिया था और जो सेनाको छोड़कर युद्धसे भाग गया था ॥१॥
आपन अति असमय अनुमानी।।
गयउ न गृह मन बहुत गलानी।
मिला न राजहि नृप अभिमानी।।
प्रतापभानुका समय (अच्छे दिन) जानकर और अपना कुसमय (बुरे दिन) अनुमानकर उसके मनमें बड़ी ग्लानि हुई। इससे वह न तो घर गया और न अभिमानी होनेके कारण राजा प्रतापभानुसे ही मिला (मेल किया) ॥ २ ॥
बिपिन बसइ तापस के साजा॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा।
यह प्रतापरबि तेहिं तब चीन्हा॥
देखि सुबेष महामुनि जाना॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा।
परम चतुर न कहेउ निज नामा॥
राजा प्यासा होनेके कारण [व्याकुलतामें] उसे पहचान न सका। सुन्दर वेष देखकर राजाने उसे महामुनि समझा और घोड़ेसे उतरकर उसे प्रणाम किया। परन्तु बड़ा चतुर होनेके कारण राजाने उसे अपना नाम नहीं बतलाया ॥४॥
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥१५८॥
राजाको प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया। हर्षित होकर राजाने घोड़ेसहित उसमें स्नान और जलपान किया॥१५८॥
निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी।
पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥
सारी थकावट मिट गयी, राजा सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रममें ले गया और सूर्यास्तका समय जानकर उसने [राजाको बैठनेके लिये] आसन दिया। फिर वह तपस्वी कोमल वाणीसे बोला- ॥१॥
सुंदर जुबा जीव परहेलें।
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें।
देखत दया लागि अति मोरें॥
तुम कौन हो? सुन्दर युवक होकर. जीवनकी परवा न करके, वनमें अकेले क्यों फिर रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती राजाके-से लक्षण देखकर मुझे बड़ी दया आती है॥२॥
तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई।
बड़ें भाग देखेउँ पद आई।
- [राजाने कहा-] हे मुनीश्वर! सुनिये. प्रतापभानु नामका एक राजा है, मैं उसका मन्त्री हूँ। शिकारके लिये फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बड़े भाग्यसे यहाँ आकर मैंने आपके चरणोंके दर्शन पाये हैं॥३॥
जानत हौँ कछु भल होनिहारा॥
कह मुनि तात भयउ अँधिआरा।
जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा।
हमें आपका दर्शन दुर्लभ था, इससे जान पड़ता है कुछ भला होनेवाला है। मुनिने कहा-हे तात ! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँसे सत्तर योजनपर है ॥४॥
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान ॥१५९ (क)॥
हे सुजान ! सुनो, घोर अँधेरी रात है. घना जंगल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ. सबेरा होते ही चले जाना ॥ १५९ (क)॥
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥१५९ (ख)॥
तुलसीदासजी कहते हैं- जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है. वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है, या उसको वहाँ ले जाती है ॥ १५९ (ख)॥
बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही।
चरन बंदि निज भाग्य सराही॥
हे नाथ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़ेको वृक्षसे बाँधकर राजा बैठ गया। राजाने उसकी बहुत प्रकारसे प्रशंसा की और उसके चरणोंकी वन्दना करके अपने भाग्यकी सराहना की॥१॥
जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई।
मोहि मुनीस सुत सेवक जानी।
नाथ नाम निज कहहु बखानी॥
फिर सुन्दर कोमल वाणीसे कहा-हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम [धाम] विस्तारसे बतलाइये॥२॥
भूप सुहृद सो कपट सयाना॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा।
छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥
राजाने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजाको पहचान गया था। राजा तो शुद्धहृदय था और वह कपट करनेमें चतुर था। एक तो वैरी, फिर जातिका क्षत्रिय, फिर राजा। वह छल-बलसे अपना काम बनाना चाहता था ॥३॥
अवाँ अनल इव सुलगइ छाती।
सरल बचन नृप के सुनि काना।
बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥१६०॥
वह कपटमें डुबोकर बड़ी युक्तिके साथ कोमल वाणी बोला-अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन) हैं ॥ १६०।।
तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ।
सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ।
राजाने कहा-जो आपके सदृश विज्ञानके निधान और सर्वथा अभिमानरहित होते हैं, वे अपने स्वरूपको सदा छिपाये रहते हैं। क्योंकि कुवेष बनाकर रहनेमें ही सब तरहका कल्याण है (प्रकट संतवेषमें मान होनेकी सम्भावना है और मानसे पतनकी)॥१॥
परम अकिंचन प्रिय हरि करें।
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा।
होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥
इसीसे तो संत और वेद पुकारकर कहते हैं कि परम अकिञ्चन (सर्वथा अहंकार, ममता और मानरहित) ही भगवानको प्रिय होते हैं। आप-सरीखे निर्धन, भिखारी और गृहहीनोंको देखकर ब्रह्मा और शिवजीको भी सन्देह हो जाता है [कि वे वास्तविक संत हैं या भिखारी] ॥ २॥
मो पर कृपा करिअ अब स्वामी।
सहज प्रीति भूपति कै देखी।
आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥
आप जो हो सो हों (अर्थात् जो कोई भी हों), मैं आपके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझपर कृपा कीजिये। अपने ऊपर राजाकी स्वाभाविक प्रीति और अपने विषयमें उसका अधिक विश्वास देखकर- ॥३॥
बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला।
इहाँ बसत बीते बहु काला॥
सब प्रकारसे राजाको अपने वशमें करके, अधिक स्नेह दिखाता हुआ वह (कपट-तपस्वी) बोला-हे राजन् ! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया॥ ४॥
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥१६१ (क)॥
अबतक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपनेको किसीपर प्रकट करता हूँ; क्योंकि लोकमें प्रतिष्ठा अग्निके समान है जो तपरूपी वनको भस्म कर डालती है॥ १६१ (क)॥
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥१६१ (ख)॥
तुलसीदासजी कहते हैं-सुन्दर वेष देखकर मूढ़ नहीं, [मूढ़ तो मूढ़ ही हैं,] चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। सुन्दर मोरको देखो, उसका वचन तो अमृतके समान है और आहार साँपका है।। १६१ (ख)।
हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ ।
कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ।
[कपट-तपस्वीने कहा-] इसीसे मैं जगतमें छिपकर रहता हूँ। श्रीहरिको छोड़कर किसीसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाये ही सब जानते हैं। फिर कहो संसारको रिझानेसे क्या सिद्धि मिलेगी॥१॥
प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही ।
दारुन दोष घटइ अति मोही।
तुम पवित्र और सुन्दर बुद्धिवाले हो, इससे मुझे बहुत ही प्यारे हो और तुम्हारी भी मुझपर प्रीति और विश्वास है। हे तात! अब यदि मैं तुमसे कुछ छिपाता हूँ तो मुझे बहुत ही भयानक दोष लगेगा॥२॥
तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी ।
तब बोला तापस बगध्यानी॥
ज्यों-ज्यों वह तपस्वी उदासीनताकी बातें कहता था, त्यों-ही-त्यों राजाको विश्वास उत्पन्न होता जाता था। जब उस बगुलेकी तरह ध्यान लगानेवाले (कपटी) मुनिने राजाको कर्म, मन और वचनसे अपने वशमें जाना, तब वह बोला- ॥३॥
सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी ।
मोहि सेवक अति आपन जानी॥
हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजाने फिर सिर नवाकर कहा-मुझे अपना अत्यन्त [अनुरागी] सेवक जानकर अपने नामका अर्थ समझाकर कहिये॥४॥
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥१६२॥
[कपटी मुनिने कहा-] जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तबसे मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसीसे मेरा नाम एकतनु है॥ १६२॥
सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
तपबल तें जग सृजइ बिधाता ।
तपबल बिष्नु भए परित्राता॥
हे पुत्र! मनमें आश्चर्य मत करो, तपसे कुछ भी दुर्लभ नहीं है, तपके बलसे ब्रह्मा जगतको रचते हैं। तपहीके बलसे विष्णु संसारका पालन करनेवाले बने हैं॥१॥
तप तें अगम न कछु संसारा॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा ।
कथा पुरातन कहै सो लागा॥
तपहीके बलसे रुद्र संहार करते हैं। संसारमें कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तपसे न मिल सके। यह सुनकर राजाको बड़ा अनुराग हुआ। तब वह (तपस्वी) पुरानी कथाएँ कहने लगा ॥२॥
करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
उदभव पालन प्रलय कहानी ।
कहेसि अमित आचरज बखानी॥
कर्म, धर्म और अनेकों प्रकारके इतिहास कहकर वह वैराग्य और ज्ञानका निरूपण करने लगा। सृष्टिकी उत्पत्ति, पालन (स्थिति) और संहार (प्रलय) की अपार आश्चर्यभरी कथाएँ उसने विस्तारसे कहीं ॥३॥
आपन नाम कहन तब लयऊ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही ।
कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥
राजा सुनकर उस तपस्वीके वशमें हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तपस्वीने कहा-राजन् ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा॥४॥
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥१६३॥
हे राजन् ! सुनो, ऐसी नीति है कि राजालोग जहाँ-तहाँ अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी वही चतुराई समझकर तुमपर मेरा बड़ा प्रेम हो गया है ।। १६३ ॥
सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा ।
कहिअ न आपन जानि अकाजा॥
तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन् ! गुरुकी कृपासे मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं ॥१॥
प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई।
उपजि परी ममता मन मोरें ।
कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥
हे तात! तुम्हारा स्वाभाविक सीधापन (सरलता), प्रेम, विश्वास और नीतिमें निपुणता देखकर मेरे मनमें तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता उत्पन्न हो गयी है; इसीलिये मैं तुम्हारे पूछनेपर अपनी कथा कहता हूँ॥२॥
मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना ।
गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥
अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें सन्देह न करना। हे राजन् ! जो मनको भावे वही माँग लो। सुन्दर (प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और [मुनिके] पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकारसे विनती की ।। ३ ।।
चारि पदारथ करतल मोरें।
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी ।
मागि अगम बर होउँ असोकी।
हे दयासागर मुनि! आपके दर्शनसे ही चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) मेरी मुट्ठीमें आ गये। तो भी स्वामीको प्रसन्न देखकर मैं यह दुर्लभ वर माँगकर [क्यों न] शोकरहित हो जाऊँ॥४॥
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥१६४॥
मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःखसे रहित हो जाय; मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वीपर मेरा सौ कल्पतक एकच्छत्र अकण्टक राज्य हो॥ १६४॥
कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा ।
एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा ।।
तपस्वीने कहा-हे राजन्! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वीके स्वामी ! केवल ब्राह्मणकुलको छोड़ काल भी तुम्हारे चरणोंपर सिर नवायेगा ॥१॥
तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा ।
तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥
तपके बलसे ब्राह्मण सदा बलवान् रहते हैं। उनके क्रोधसे रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। हे नरपति ! यदि तुम ब्राह्मणोंको वशमें कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जायँगे॥२॥
सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई।
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला ।
तोर नास नहिं कवनेहुँ काला॥
ब्राह्मणकुलसे जोर-जबर्दस्ती नहीं चल सकती, मैं दोनों भुजा उठाकर सत्य कहता हूँ। हे राजन् ! सुनो, ब्राह्मणोंके शाप बिना तुम्हारा नाश किसी कालमें नहीं होगा ॥३॥
नाथ न होइ मोर अब नासू॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना ।
मो कहुँ सर्ब काल कल्याना॥
राजा उसके वचन सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा-हे स्वामी! मेरा नाश अब नहीं होगा। हे कृपानिधान प्रभु! आपकी कृपासे मेरा सब समय कल्याण होगा॥४॥
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥१६५॥
"एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर वह कुटिल कपटी मुनि फिर बोला-[किन्तु] तुम मेरे मिलने तथा अपने राह भूल जानेकी बात किसीसे [कहना नहीं, यदि] कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं ॥ १६५ ।।
कहें कथा तव परम अकाजा॥
छठे श्रवन यह परत कहानी ।
नास तुम्हार सत्य मम बानी॥
हे राजन्! मैं तुमको इसलिये मना करता हूँ कि इस प्रसङ्गको कहनेसे तुम्हारी बड़ी हानि होगी। छठे कानमें यह बात पड़ते ही तुम्हारा नाश हो जायगा, मेरा यह वचन सत्य जानना ॥१॥
नास तोर सुनु भानुप्रतापा।
आन उपायँ निधन तव नाहीं ।
जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥
हे प्रतापभानु ! सुनो, इस बातके प्रकट करनेसे अथवा ब्राह्मणोंके शापसे तुम्हारा नाश होगा और किसी उपायसे, चाहे ब्रह्मा और शंकर भी मनमें क्रोध करें, तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी ॥२॥
द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
राखइ गुर जौ कोप बिधाता ।
गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता।
राजाने मुनिके चरण पकड़कर कहा-हे स्वामी! सत्य ही है। ब्राह्मण और गुरुके क्रोधसे कहिये, कौन रक्षा कर सकता है ? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं; पर गुरुसे विरोध करनेपर जगतमें कोई भी बचानेवाला नहीं है ॥३॥
होउ नास नहिं सोच हमारें।
एकहिं डर डरपत मन मोरा ।
प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥
यदि मैं आपके कथनके अनुसार नहीं चलूँगा, तो [भले ही] मेरा नाश हो जाय। मुझे इसकी चिन्ता नहीं है। मेरा मन तो हे प्रभो! [केवल] एक ही डरसे डर रहा है कि ब्राह्मणोंका शाप बड़ा भयानक होता है।॥ ४॥
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥१६६॥
वे ब्राह्मण किस प्रकारसे वशमें हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइये। हे दीनदयालु ! आपको छोड़कर और किसीको मैं अपना हितू नहीं देखता ॥ १६६ ।।
कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
अहइ एक अति सुगम उपाई।
तहाँ परंतु एक कठिनाई॥
[तपस्वीने कहा-] हे राजन् ! सुनो, संसारमें उपाय तो बहुत हैं; पर वे कष्टसाध्य हैं (बड़ी कठिनतासे बननेमें आते हैं) और इसपर भी सिद्ध हों या न हों (उनकी सफलता निश्चित नहीं है) हाँ, एक उपाय बहुत सहज है: परन्तु उसमें भी एक कठिनता है॥१॥
मोर जाब तव नगर न होई॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ ।
काहू के गृह ग्राम न गयऊँ।
हे राजन्! वह युक्ति तो मेरे हाथ है. पर मेरा जाना तुम्हारे नगरमें हो नहीं सकता। जबसे पैदा हुआ हूँ, तबसे आजतक मैं किसीके घर अथवा गाँव नहीं गया ॥ २ ॥
बना आइ असमंजस आजू॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी ।
नाथ निगम असि नीति बखानी॥
परन्तु यदि नहीं जाता हूँ, तो तुम्हारा काम बिगड़ता है। आज यह बड़ा असमंजस आ पड़ा है। यह सुनकर राजा कोमल वाणीसे बोला, हे नाथ! वेदोंमें ऐसी नीति कही है कि- ॥३॥
गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं।
जलधि अगाध मौलि बह फेनू ।
संतत धरनि धरत सिर रेनू॥
बड़े लोग छोटोंपर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरोंपर सदा तृण (घास) को धारण किये रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तकपर फेनको धारण करता है, और धरती अपने सिरपर सदा धूलिको धारण किये रहती है॥४॥
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥१६७॥
ऐसा कहकर राजाने मुनिके चरण पकड़ लिये। [और कहा-] हे स्वामी! कृपा कीजिये। आप संत हैं। दीनदयालु हैं। [अतः] हे प्रभो! मेरे लिये इतना कष्ट [अवश्य] सहिये॥१६७॥
बोला तापस कपट प्रबीना॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही।
जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही।
राजाको अपने अधीन जानकर कपटमें प्रवीण तपस्वी बोला-हे राजन्! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगतमें मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है ॥१॥
मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ ।
फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥
मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा; [क्योंकि] तुम मन, वाणी और शरीर [तीनों] से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति, तप और मन्त्रका प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किये जाते हैं ॥२॥
तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई ।
सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥
हे नरपति! मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जानने न पावे, तो उस अन्नको जो-जो खायगा, सो-सो तुम्हारा आज्ञाकारी बन जायगा ।। ३॥
तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू ।
संबत भरि संकलप करेहू॥
यही नहीं, उन (भोजन करनेवालों) के घर भी जो कोई भोजन करेगा, हे राजन् ! सुनो, वह भी तुम्हारे अधीन हो जायगा। हे राजन् ! जाकर यही उपाय करो और वर्षभर [भोजन कराने] का सङ्कल्प कर लेना ॥ ४ ॥
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करबि जेवनार ॥१६८॥
नित्य नये एक लाख ब्राह्मणोंको कुटुम्बसहित निमन्त्रित करना। मैं तुम्हारे सङ्कल्प [के काल अर्थात् एक वर्ष] तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा ॥ १६८॥
होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें।
करिहहिं बिप्र होम मख सेवा ।
तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा।
हे राजन् ! इस प्रकार बहुत ही थोड़े परिश्रमसे सब ब्राह्मण तुम्हारे वशमें हो जायँगे। ब्राह्मण हवन, यज्ञ और सेवा-पूजा करेंगे, तो उस प्रसंग (सम्बन्ध) से देवता भी सहज ही वशमें हो जायँगे ॥१॥
मैं एहिं बेष न आउब काऊ।
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया ।
हरि आनब मैं करि निज माया॥
मैं एक और पहचान तुमको बताये देता हूँ कि मैं इस रूपमें कभी न आऊँगा। हे राजन् ! मैं अपनी मायासे तुम्हारे पुरोहितको हर लाऊँगा ॥२॥
रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा ।
सब बिधि तोर सँवारब काजा॥
तप के बल से उसे अपने समान बनाकर एक वर्षतक यहाँ रखूगा और हे राजन्! सुनो, मैं उसका रूप बनाकर सब प्रकारसे तुम्हारा काम सिद्ध करूँगा ॥३॥
मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता ।
पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता॥
हे राजन्! रात बहुत बीत गयी, अब सो जाओ। आजसे तीसरे दिन मुझसे तुम्हारी भेंट होगी। तपके बलसे मैं घोड़ेसहित तुमको सोतेहीमें घर पहुँचा दूंगा ॥४॥
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि ॥१६९॥
मैं वही (पुरोहितका) वेष धरकर आऊँगा। जब एकान्तमें तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब तुम मुझे पहचान लेना ॥१६९ ॥
आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई ।
सो किमि सोव सोच अधिकाई॥
राजाने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट-ज्ञानी आसनपर जा बैठा। राजा थका था, [उसे] खूब (गहरी) नींद आ गयी। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहुत चिन्ता हो रही थी॥१॥
जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
परम मित्र तापस नृप केरा ।
जानइ सो अति कपट घनेरा॥ ।
[उसी समय] वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजाको भटकाया था। वह तपस्वी राजाका बड़ा मित्र था और खूब छल-प्रपञ्च जानता था॥२॥
खल अति अजय देव दुखदाई॥
प्रथमहिं भूप समर सब मारे ।
बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥
उसके सौ पुत्र और दस भाई थे, जो बड़े ही दुष्ट, किसीसे न जीते जानेवाले और देवताओंको दुःख देनेवाले थे। ब्राह्मणों, संतों और देवताओंको दु:खी देखकर राजाने उन सबको पहले ही युद्धमें मार डाला था॥ ३ ॥
तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥
जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ ।
भावी बस न जान कछु राऊ।
उस दुष्टने पिछला वैर याद करके तपस्वी राजासे मिलकर सलाह विचारी (षड्यन्त्र किया) और जिस प्रकार शत्रुका नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा (प्रतापभानु) कुछ भी न समझ सका॥४॥
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥१७०॥
तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिये। जिसका सिरमात्र बचा था, वह राहु आजतक सूर्य-चन्द्रमाको दुःख देता है॥ १७०॥
हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी।
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई ।
जातुधान बोला सुख पाई।
तपस्वी राजा अपने मित्रको देख प्रसन्न हो उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्रको सब कथा कह सुनायी, तब राक्षस आनन्दित होकर बोला ॥१॥
जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई ।
बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥
हे राजन् ! सुनो, जब तुमने मेरे कहनेके अनुसार [इतना] काम कर लिया, तो अब मैंने शत्रुको काबूमें कर ही लिया [समझो] । तुम अब चिन्ता त्याग सो रहो। विधाताने बिना ही दवाके रोग दूर कर दिया ॥२॥
चौथे दिवस मिलब मैं आई।
तापस नृपहि बहुत परितोषी ।
चला महाकपटी अतिरोषी॥
कुलसहित शत्रुको जड़-मूलसे उखाड़-बहाकर, [आजसे] चौथे दिन मैं तुमसे आ मिलूँगा। [इस प्रकार] तपस्वी राजाको खूब दिलासा देकर वह महामायावी और अत्यन्त क्रोधी राक्षस चला ॥३॥
पहुँचाएसि छन माझ निकेता।
नृपहि नारि पहिं सयन कराई।
हय गृहँ बाँधेसि बाजि बनाई।
उसने प्रतापभानु राजाको घोड़ेसहित क्षणभरमें घर पहुँचा दिया। राजाको रानीके पास सुलाकर घोड़ेको अच्छी तरहसे घुड़सालमें बाँध दिया॥४॥
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥१७१॥
फिर वह राजाके पुरोहितको उठा ले गया और मायासे उसकी बुद्धिको भ्रममें डालकर उसे उसने पहाड़की खोहमें ला रखा ।। १७१ ॥
परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना ।
देखि भवन अति अचरजु माना॥
वह आप पुरोहितका रूप बनाकर उसकी सुन्दर सेजपर जा लेटा। राजा सबेरा होनेसे पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना ॥१॥
उठेउ गवहिं जेहिं जान न रानी।
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं ।
पुर नर नारि न जानेउ केहीं।
मनमें मुनिकी महिमाका अनुमान करके वह धीरेसे उठा, जिसमें रानी न जान पावे। फिर उसी घोड़ेपर चढ़कर वनको चला गया। नगरके किसी भी स्त्री-पुरुषने नहीं जाना ॥२॥
घर घर उत्सव बाज बधावा।
उपरोहितहि देख जब राजा ।
चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा॥
दो पहर बीत जानेपर राजा आया। घर-घर उत्सव होने लगे और बधावा बजने लगा। जब राजाने पुरोहितको देखा, तब वह [अपने] उसी कार्यका स्मरणकर उसे आश्चर्यसे देखने लगा ॥३॥
कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
समय जानि उपरोहित आवा ।
नृपहि मते सब कहि समुझावा॥
राजाको तीन दिन युगके समान बीते। उसकी बुद्धि कपटी मुनिके चरणोंमें लगी रही। निश्चित समय जानकर पुरोहित [बना हुआ राक्षस] आया और राजाके साथ की हुई गुप्त सलाहके अनुसार [उसने अपने] सब विचार उसे समझाकर कह दिये॥४॥
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥१७२॥
[संकेतके अनुसार गुरुको [उस रूपमें] पहचानकर राजा प्रसन्न हुआ। भ्रमवश उसे चेत न रहा [कि यह तापस मुनि है या कालकेतु राक्षस] । उसने तुरंत एक लाख उत्तम ब्राह्मणोंको कुटुम्बसहित निमन्त्रण दे दिया॥१७२ ॥
छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई।
मायामय तेहिं कीन्हि रसोई ।
बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥
पुरोहितने छः रस और चार प्रकारके भोजन, जैसा कि वेदोंमें वर्णन है, बनाये। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यञ्जन बनाये जिन्हें कोई गिन नहीं सकता ॥१॥
तेहि महुँ बिन माँसु खल साँधा।
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए ।
पद पखारि सादर बैठाए।
अनेक प्रकारके पशुओंका मांस पकाया और उसमें उस दुष्टने ब्राह्मणोंका मांस मिला दिया। सब ब्राह्मणोंको भोजनके लिये बुलाया और चरण धोकर आदरसहित बैठाया॥२॥
भै अकासबानी तेहि काला॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू ।
है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू।।
ज्यों ही राजा परोसने लगा. उसी काल [कालकेतुकृत] आकाशवाणी हुई-हे ब्राह्मणो! उठ-उठकर अपने घर जाओ; यह अन्न मत खाओ। इस [के खाने] में बड़ी हानि है॥३॥
सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी ।
भावी बस न आव मुख बानी॥
रसोई में ब्राह्मणोंका मांस बना है। [आकाशवाणीका] विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा व्याकुल हो गया। [परन्तु] उसकी बुद्धि मोहमें भूली हुई थी। होनहारवश उसके मुँहसे [एक] बात [भी] न निकली ॥४॥
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार ॥१७३॥
तब ब्राह्मण क्रोधसहित बोल उठे-उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया-अरे मूर्ख राजा! तू जाकर परिवारसहित राक्षस हो ॥१७३ ॥
घालै लिए सहित समुदाई॥
ईस्वर राखा धरम हमारा ।
जैहसि तैं समेत परिवारा॥
रे नीच क्षत्रिय ! तूने तो परिवारसहित ब्राह्मणोंको बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वरने हमारे धर्मकी रक्षा की। अब तू परिवारसहित नष्ट होगा ॥१॥
जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा ।
भै बहोरि बर गिरा अकासा।।
एक वर्षके भीतर तेरा नाश हो जाय, तेरे कुलमें कोई पानी देनेवालातक न रहेगा। शाप सुनकर राजा भयके मारे अत्यन्त व्याकुल हो गया। फिर सुन्दर आकाशवाणी हुई- ॥२॥
नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी ।
भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥
हे ब्राह्मणो! तुमने विचारकर शाप नहीं दिया। राजाने कुछ भी अपराध नहीं किया। आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गये। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था।३।।
फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई ।
त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई।
[देखा तो] वहाँ न भोजन था, न रसोइया ब्राह्मण ही था। तब राजा मनमें अपार चिन्ता करता हुआ लौटा। उसने ब्राह्मणोंको सब वृत्तान्त सुनाया और [बड़ा ही] भयभीत और व्याकुल होकर वह पृथ्वीपर गिर पड़ा॥४॥
किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर ॥१७४॥
हे राजन्! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं मिटता। ब्राह्मणोंका शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी तरह भी टाले टल नहीं सकता ॥ १७४ ॥
समाचार पुरलोगन्ह पाए।
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं ।
बिरचत हंस काग किय जेहीं।
ऐसा कहकर सब ब्राह्मण चले गये। नगरवासियोंने [जब] यह समाचार पाया, तो वे चिन्ता करने और विधाताको दोष देने लगे, जिसने हंस बनाते बनाते कौआ कर दिया (ऐसे पुण्यात्मा राजाको देवता बनाना चाहिये था, सो राक्षस बना दिया) ॥१॥
उपरोहितहि भवन पहुँचाई।
असुर तापसहि खबरि जनाई॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए ।
सजि सजि सेन भूप सब धाए॥
पुरोहितको उसके घर पहुँचाकर असुर (कालकेतु) ने [कपटी] तपस्वीको खबर दी। उस दुष्टने जहाँ-तहाँ पत्र भेजे, जिससे सब [वैरी] राजा सेना सजा-सजाकर [चढ़] दौड़े॥२॥
बिबिध भाँति नित होइ लराई॥
जूझे सकल सुभट करि करनी ।
बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥
और उन्होंने डंका बजाकर नगरको घेर लिया। नित्यप्रति अनेक प्रकारसे लड़ाई होने लगी। [प्रतापभानुके] सब योद्धा [शूरवीरोंकी] करनी करके रणमें जूझ मरे। राजा भी भाईसहित खेत रहा ॥३॥
बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा।
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई ।
निज पुर गवने जय जसु पाई।
सत्यकेतुके कुलमें कोई नहीं बचा। ब्राह्मणोंका शाप झूठा कैसे हो सकता था। शत्रुको जीतकर, नगरको [फिरसे] बसाकर सब राजा विजय और यश पाकर अपने अपने नगरको चले गये॥ ४॥
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥१७५ ॥
[याज्ञवल्क्यजी कहते हैं--] हे भरद्वाज! सुनो. विधाता जब जिसके विपरीत होते हैं, तब उसके लिये धूल सुमेरुपर्वतके समान (भारी और कुचल डालनेवाली), पिता यमके समान (कालरूप) और रस्सी साँपके समान (काट खानेवाली) हो जाती है। १७५॥
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