रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड
तुलसीदासजी की दीनता और रामभक्तिमयी कविता की महिमा
मुझको अपना दास जानकर कृपाकी खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिये। मुझे अपने बुद्धि-बलका भरोसा नहीं है, इसीलिये मैं सबसे विनती करता हूँ॥ २॥
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा।
लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ।
मन मति रंक मनोरथ राऊ।।
मैं श्रीरघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी
है और श्रीरामजीका चरित्र अथाह है। इसके लिये मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात्
कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ
राजा है॥३॥लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ।
मन मति रंक मनोरथ राऊ।।
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी।
चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई।
सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥
मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है; चाह तो अमृत पानेकी है,
पर जगतमें जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाईको क्षमा करेंगे और मेरे
बालवचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे॥४॥चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई।
सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥
जौं बालक कह तोतरि बाता।
सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी
जे पर दूषन भूषनधारी॥
जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मनसे सुनते
हैं। किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही
भूषणरूप से धारण किये रहते हैं (अर्थात् जिन्हें पराये दोष ही प्यारे लगते
हैं), हँसेंगे॥५॥सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी
जे पर दूषन भूषनधारी॥
रामचरितमानस निज कबित्त केहि लाग न नीका।
सरस होउ अथवा अति फीका।।
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं।
ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥
रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरेको
रचनाको सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगतमें बहुत नहीं हैं, ॥६॥ सरस होउ अथवा अति फीका।।
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं।
ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥
जग बहु नर सर सरि सम भाई।
जे निज बाढि बढ़हिं जल पाई।।
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई।
देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥
हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर
अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात् अपनी ही उन्नतिसे प्रसन्न होते हैं)।
समुद्र सा तो कोई एक विरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर
(दूसरोंका उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है॥७॥जे निज बाढि बढ़हिं जल पाई।।
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई।
देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥
दो०- भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥८॥
मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे
सुनकर सज्जन सभी सुख पावेंगे और दुष्ट हँसी उड़ावेंगे।॥८॥पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥८॥
खल परिहास होइ हित मोरा।
काक कहहिं कलकंठ कठोरा।।
हंसहिं बक दादुर चातकही।
हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही।
किन्तु दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कण्ठवाली कोयल को कौए तो
कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंस को और मेढक पपीहे को हँसते हैं, वैसे ही
मलिन मनवाले दुष्ट निर्मल वाणी को हँसते हैं॥१॥काक कहहिं कलकंठ कठोरा।।
हंसहिं बक दादुर चातकही।
हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही।
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