रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 9
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड


शिवजी का विवाह



दो०- बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥९९॥


फिर मुनियोंने लौटकर हिमवानको लगन (लग्नपत्रिका) सुनायी और विवाहका समय देखकर देवताओंको बुला भेजा॥९९ ॥

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे ।
सबहि जथोचित आसन दीन्हे ॥
बेदी बेद बिधान सँवारी ।
सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥


सब देवताओंको आदरसहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिये। वेदकी रीतिसे वेदी सजायी गयी और स्त्रियाँ सुन्दर श्रेष्ठ मङ्गल गीत गाने लगीं ॥१॥

सिंघासनु अति दिब्य सुहावा ।
जाइ न बरनि बिरंचि बनावा।
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई ।
हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥


वेदिकापर एक अत्यन्त सुन्दर दिव्य सिंहासन था, जिस [की सुन्दरता] का वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह स्वयं ब्रह्माजीका बनाया हुआ था। ब्राह्मणोंको सिर नवाकर और हृदयमें अपने स्वामी श्रीरघुनाथजीका स्मरण करके शिवजी उस सिंहासनपर बैठ गये॥२॥

बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं।
करि सिंगारु सखीं लै आईं।
देखत रूपु सकल सुर मोहे ।
बरनै छबि अस जग कबि को है।


फिर मुनीश्वरोंने पार्वतीजीको बुलाया। सखियाँ शृङ्गार करके उन्हें ले आयीं। पार्वतीजीके रूपको देखते ही सब देवता मोहित हो गये। संसारमें ऐसा कवि कौन है जो उस सुन्दरताका वर्णन कर सके! ॥ ३ ॥

जगदंबिका जानि भव भामा ।
सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा ।।
सुंदरता मरजाद भवानी ।
जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥


पार्वतीजीको जगदम्बा और शिवजीकी पत्नी समझकर देवताओंने मन-ही-मन प्रणाम किया। भवानीजी सुन्दरताकी सीमा हैं। करोड़ों मुखोंसे भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती ॥ ४॥

छं०-कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनुमधुकरु तहाँ।


जगज्जननी पार्वतीजीकी महान् शोभाका वर्णन करोड़ों मुखोंसे भी करते नहीं बनता। वेद, शेषजी और सरस्वतीजीतक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं, तब मन्दबुद्धि तुलसी किस गिनतीमें है। सुन्दरता और शोभाकी खान माता भवानी मण्डपके बीचमें, जहाँ शिवजी थे, वहाँ गयीं। वे संकोचके मारे पति (शिवजी) के चरणकमलोंको देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मनरूपी भौंरा तो वहीं [रस-पान कर रहा था। ]

दो०- मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जिय जानि॥१००॥

मुनियोंकी आज्ञासे शिवजी और पार्वतीजीने गणेशजीका पूजन किया। मनमें देवताओंको अनादि समझकर कोई इस बातको सुनकर शङ्का न करे [कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की सन्तान हैं, अभी विवाहसे पूर्व ही वे कहाँसे आ गये] ॥ १००॥
जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई ।
महामुनिन्ह सो सब करवाई।
गहि गिरीस कुस कन्या पानी ।
भवहि समरपी जानि भवानी॥

वेदोंमें विवाहको जैसी रीति कही गयी है, महामुनियोंने वह सभी रीति करवायी। पर्वतराज हिमाचलने हाथमें कुश लेकर तथा कन्याका हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्री) जानकर शिवजीको समर्पण किया ॥१॥

पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा ।
हिय हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेदमंत्र मुनिबर उच्चरहीं ।
जय जय जय संकर सुर करहीं।


जब महेश्वर (शिवजी) ने पार्वतीका पाणिग्रहण किया, तब [इन्द्रादि] सब देवता हृदयमें बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजीका जय-जयकार करने लगे॥२॥

बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना ।
सुमनबुष्टि नभ भै बिधि नाना।
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू ।
सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥


अनेकों प्रकारके बाजे बजने लगे। आकाशसे नाना प्रकारके फूलोंकी वर्षा हुई। शिव-पार्वतीका विवाह हो गया। सारे ब्रह्माण्डमें आनन्द भर गया॥३॥

दासी दास तुरग रथ नागा ।
धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा।
अन्न कनकभाजन भरि जाना ।
दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥


दासी, दास. रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकारकी चीजें, अन्न तथा सोनेके बर्तन गाड़ियोंमें लदवाकर दहेजमें दिये, जिनका वर्णन नहीं हो सकता ॥४॥

छं०-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो।
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥


बहुत प्रकारका दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचलने कहा-हे शङ्कर ! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? [इतना कहकर] वे शिवजीके चरणकमल पकड़कर रह गये। तब कृपाके सागर शिवजीने अपने ससुरका सभी प्रकारसे समाधान किया। फिर प्रेमसे परिपूर्णहृदय मैनाजीने शिवजीके चरणकमल पकड़े [और कहा----]।

दो०- नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥१०१॥

हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणोंके समान [प्यारी] है। आप इसे अपने घरकी टहलनी बनाइयेगा और इसके सब अपराधोंको क्षमा करते रहियेगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिये।। १०१।।
बहु बिधि संभु सासु समुझाई।
गवनी भवन चरन सिरु नाई।
जननी उमा बोलि तब लीन्ही ।
लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥

शिवजीने बहुत तरहसे अपनी सासको समझाया। तब वे शिवजीके चरणों में सिर नवाकर घर गयीं। फिर माताने पार्वतीको बुला लिया और गोदमें बैठाकर यह सुन्दर सीख दी- ॥१॥

करेहु सदा संकर पद पूजा ।
नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी ।
बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥


हे पार्वती! तू सदा शिवजीके चरणकी पूजा करना, नारियोंका यही धर्म है। उनके लिये पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकारकी बातें कहते-कहते उनकी आँखोंमें आँसू भर आये और उन्होंने कन्याको छातीसे चिपटा लिया॥२॥

कत बिधि सृजी नारि जग माहीं ।
पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी ।
धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥


[फिर बोली कि] विधाताने जगतमें स्त्रीजातिको क्यों पैदा किया? पराधीनको सपनेमें भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेममें अत्यन्त विकल हो गयी, परन्तु कुसमय जानकर (दुःख करनेका अवसर न जानकर) उन्होंने धीरज धरा ॥३॥

पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना ।
परम प्रेमु कछु जाइ न बरना।
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी ।
जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥


मैना बार-बार मिलती हैं और [पार्वतीके] चरणोंको पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियोंसे मिल-भेंटकर फिर अपनी माताके हृदयसे जा लिपटीं ॥ ४॥

छं०-- जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं।
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥


पार्वतीजी मातासे फिर मिलकर चलीं, सब किसीने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिये। पार्वतीजी फिर-फिरकर माताकी ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजीके पास ले गयीं। महादेवजी सब याचकोंको सन्तुष्ट कर पार्वतीके साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलोंकी वर्षा करने लगे और आकाशमें सुन्दर नगाड़े बजने लगे।

दो०- चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह वृषकेतु॥१०२॥


तब हिमवान अत्यन्त प्रेमसे शिवजीको पहुँचानेके लिये साथ चले। वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत तरहसे उन्हें सन्तोष कराकर विदा किया॥१०२॥

तुरत भवन आए गिरिराई ।
सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना ।
सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥

पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आये और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरोंको बुलाया। हिमवानने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की॥१॥

जबहिं संभु कैलासहिं आए ।
सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु संभु भवानी ।
तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥


जब शिवजी कैलास पर्वतपर पहुंचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकोंको चले गये। [तुलसीदासजी कहते हैं कि] पार्वतीजी और शिवजी जगतके माता-पिता हैं, इसलिये मैं उनके शृङ्गारका वर्णन नहीं करता ॥२॥

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा।
गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ ।
एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ।


शिव-पार्वती विविध प्रकारके भोग-विलास करते हुए अपने गणोंसहित कैलासपर रहने लगे। वे नित्य नये विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया ॥३॥

तब जनमेउ षटबदन कुमारा ।
तारकु असुरु समर जेहिं मारा।
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना ।
षन्मुख जन्म सकल जग जाना॥

तब छ: मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने [बड़े होनेपर] युद्धमें तारकासुरको मारा । वेद, शास्त्र और पुराणोंमें स्वामिकार्तिकके जन्मकी कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है॥४॥

छं०-जगु जान षन्मुख जन्म कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संभु बिबाह जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥


षडानन (स्वामिकार्तिक)के जन्म, कर्म, प्रताप और महान् पुरुषार्थको सारा जगत जानता है। इसलिये मैंने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्रका चरित्र संक्षेपसे ही कहा है। शिव-पार्वतीके विवाहकी इस कथाको जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गायेंगे, वे कल्याणके कार्यों और विवाहादि मङ्गलोंमें सदा सुख पावेंगे।

दो०- चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥१०३॥

गिरिजापति महादेवजीका चरित्र समुद्रके समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यन्तमन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है ! ॥ १०३।।

संभु चरित सुनि सरस सुहावा।
भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा।।
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी।
नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी।


शिवजीके रसीले और सुहावने चरित्रको सुनकर मुनि भरद्धाजजीने बहुत ही सुख पाया। कथा सुननेकी उनकी लालसा बहुत बढ़ गयी। नेत्रोंमें जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गयी ॥१॥

प्रेम बिबस मुख आव न बानी।
दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
अहो धन्य तव जन्म मुनीसा।
तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥


वे प्रेममें मुग्ध हो गये, मुखसे वाणी नहीं निकलती। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए [और बोले-] हे मुनीश ! अहा हा! तुम्हारा जन्म धन्य है; तुमको गौरीपति शिवजी प्राणोंके समान प्रिय हैं ॥२॥

सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं।
रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू।
राम भगत कर लच्छन एहू॥


शिवजीके चरणकमलोंमें जिनकी प्रीति नहीं है, वे श्रीरामचन्द्रजीको स्वप्नमें भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ श्रीशिवजीके चरणोंमें निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्तका लक्षण है॥३॥

सिव सम को रघुपति ब्रतधारी।
बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई।
को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥


शिवजीके समान रघुनाथजी [की भक्ति का व्रत धारण करनेवाला कौन है? जिन्होंने बिना ही पाप के सती-जैसी स्त्री को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके श्रीरघुनाथजी की भक्ति को दिखा दिया। हे भाई! श्रीरामचन्द्रजीको शिवजीके समान और कौन प्यारा है? ॥ ४॥

दो०- प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥१०४॥

मैंने पहले ही शिवजीका चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया। तुम श्रीरामचन्द्रजीके पवित्र सेवक हो और समस्त दोषोंसे रहित हो॥१०४॥

मैं जाना तुम्हार गुन सीला।
कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें।
कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें।


मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं श्रीरघुनाथजीकी लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनन्द हुआ है, वह कहा नहीं जा सकता॥१॥

राम चरित अति अमित मुनीसा।
कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी।
सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी।


हे मुनीश्वर ! रामचरित्र अत्यन्त अपार है। सौ करोड़ शेषजी भी उसे नहीं कह सकते। तथापि जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणीके स्वामी (प्रेरक) और हाथमें धनुष लिये हुए प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके कहता हूँ॥२॥

सारद दारुनारि सम स्वामी।
रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी।
कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥


सरस्वतीजी कठपुतलीके समान हैं और अन्तर्यामी स्वामी श्रीरामचन्द्रजी [सूत पकड़कर कठपुतलीको नचानेवाले] सूत्रधार हैं। अपना भक्त जानकर जिस कविपर वे कृपा करते हैं, उसके हृदयरूपी आँगनमें सरस्वतीको वे नचाया करते हैं ॥ ३ ॥

प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा।
बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू।
सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥


उन्हीं कृपालु श्रीरघुनाथजीको मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हींके निर्मल गुणोंकी कथा कहता हूँ। कैलास पर्वतोंमें श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वतीजी सदा निवास करते हैं ॥४॥

दो०- सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबंद।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद ॥१०५॥

सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियोंके समूह उस पर्वतपर रहते हैं। वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनन्दकन्द श्रीमहादेवजीकी सेवा करते हैं॥१०५।।

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं।
ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला।
नित नूतन सुंदर सब काला॥


जो भगवान विष्णु और महादेवजीसे विमुख हैं और जिनकी धर्ममें प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्नमें भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वतपर एक विशाल बरगदका पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुन्दर रहता है॥१॥

त्रिविध समीर सुसीतलि छाया।
सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया।
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ।
तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ।


वहाँ तीनों प्रकारकी (शीतल, मन्द और सुगन्ध) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठंडी रहती है। वह शिवजीके विश्राम करनेका वृक्ष है, जिसे वेदोंने गाया है। एक बार प्रभु श्रीशिवजी उस वृक्षके नीचे गये और उसे देखकर उनके हृदयमें बहुत आनन्द हुआ॥२॥

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