रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड
श्रीराम-लक्ष्मण को देखकर जनकजी की मुग्धता
लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
उठे सकल जब रघुपति आए ।
बिस्वामित्र निकट बैठाए।
सुकुमार किशोर अवस्थावाले, श्याम और गौर वर्णके दोनों कुमार नेत्रोंको सुख देनेवाले और सारे विश्वके चित्तको चुरानेवाले हैं। जब रघुनाथजी आये तब सभी [उनके रूप एवं तेजसे प्रभावित होकर] उठकर खड़े हो गये। विश्वामित्रजीने उनको अपने पास बैठा लिया ॥३॥
बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
मूरति मधुर मनोहर देखी।
भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥२१५॥
मनको प्रेममें मग्न जान राजा जनकने विवेकका आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनिके चरणोंमें सिर नवाकर गद्गद (प्रेमभरी) गम्भीर वाणीसे कहा- ॥२१५ ॥
मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा ।
उभय बेष धरि की सोइ आवा॥
हे नाथ! कहिये, ये दोनों सुन्दर बालक मुनिकुलके आभूषण हैं या किसी राजवंशके पालक? अथवा जिसका वेदोंने 'नेति' कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगलरूप धरकर नहीं आया है ? ॥१॥
थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ ।
कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥
मेरा मन जो स्वभावसे ही वैराग्यरूप [बना हुआ] है, [इन्हें देखकर] इस तरह मुग्ध हो रहा है जैसे चन्द्रमाको देखकर चकोर। हे प्रभो! इसलिये मैं आपसे सत्य (निश्छल) भावसे पूछता हूँ। हे नाथ! बताइये, छिपाव न कीजिये॥२॥
बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका ।
बचन तुम्हार न होइ अलीका।।
इनको देखते ही अत्यन्त प्रेमके वश होकर मेरे मनने जबर्दस्ती ब्रह्मसुखको त्याग दिया है। मुनिने हँसकर कहा-हे राजन्! आपने ठीक (यथार्थ ही) कहा। आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता ॥३॥
मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए ।
मम हित लागि नरेस पठाए।
जगतमें जहाँतक (जितने भी) प्राणी हैं, ये सभीको प्रिय हैं। मुनिकी [रहस्यभरी] वाणी सुनकर श्रीरामजी मन-ही-मन मुसकराते हैं (हँसकर मानो संकेत करते हैं कि रहस्य खोलिये नहीं)। [तब मुनिने कहा-] ये रघुकुलमणि महाराज दशरथके पुत्र हैं। मेरे हितके लिये राजाने इन्हें मेरे साथ भेजा है।॥ ४ ॥
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम ॥२१६॥
ये राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बलके धाम हैं। सारा जगत [इस बातका] साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरोंको जीतकर मेरे यज्ञकी रक्षा की है ॥ २१६ ॥
कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता ।
आनंदहू के आनंद दाता॥
राजाने कहा-हे मुनि! आपके चरणोंके दर्शन कर मैं अपना पुण्य-प्रभाव कह नहीं सकता। ये सुन्दर श्याम और गौर वर्णके दोनों भाई आनन्दको भी आनन्द देनेवाले हैं ॥१॥
कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू ।
ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥
इनकी आपसकी प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मनको बहुत भाती है, पर [वाणीसे] कही नहीं जा सकती। विदेह (जनकजी) आनन्दित होकर कहते हैं-हे नाथ! सुनिये, ब्रह्म और जीवकी तरह इनमें स्वाभाविक प्रेम है ॥२॥
पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू ।
चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥
राजा बार-बार प्रभुको देखते हैं (दृष्टि वहाँसे हटना ही नहीं चाहती)। [प्रेमसे] शरीर पुलकित हो रहा है और हृदयमें बड़ा उत्साह है। [फिर] मुनिकी प्रशंसा करके और उनके चरणोंमें सिर नवाकर राजा उन्हें नगरमें लिवा चले॥३॥
तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई ।
गयउ राउ गृह बिदा कराई।
एक सुन्दर महल जो सब समय (सभी ऋतुओंमें) सुखदायक था, वहाँ राजा ने उन्हें ले जाकर ठहराया। तदनन्तर सब प्रकारसे पूजा और सेवा करके राजा विदा मांगकर अपने घर गये॥४॥
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥२१७॥
रघुकुलके शिरोमणि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ऋषियोंके साथ भोजन और विश्राम करके भाई लक्ष्मणसमेत बैठे। उस समय पहरभर दिन रह गया था॥२१७॥
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