रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 9
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड


धनुषभंग



सखि सब कौतुकु देखनिहारे ।
जेउ कहावत हितू हमारे॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं ।
ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥


हे सखी! ये जो हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा देखनेवाले हैं। कोई भी [इनके] गुरु विश्वामित्रजीको समझाकर नहीं कहता कि ये (रामजी) बालक हैं, इनके लिये ऐसा हठ अच्छा नहीं। [जो धनुष रावण और बाण-जैसे जगद्विजयी वीरोंके हिलाये न हिल सका, उसे तोड़नेके लिये मुनि विश्वामित्रजीका रामजीको आज्ञा देना और रामजीका उसे तोड़नेके लिये चल देना रानीको हठ जान पड़ा, इसलिये वे कहने लगी कि गुरु विश्वामित्रजीको कोई समझाता भी नहीं।] ॥१॥

रावन बान छुआ नहिं चापा । ह
ारे सकल भूप करि दापा।
सो धनु राजकुर कर देहीं ।
बाल मराल कि मंदर लेहीं॥


रावण और बाणासुरने जिस धनुषको छुआतक नहीं और सब राजा घमंड करके हार गये, वही धनुष इस सुकुमार राजकुमारके हाथमें दे रहे हैं। हंसके बच्चे भी कहीं मन्दराचल पहाड़ उठा सकते हैं ? ।। २ ॥

भूप सयानप सकल सिरानी ।
सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी ।
तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥


[और तो कोई समझाकर कहे या नहीं, राजा तो बड़े समझदार और ज्ञानी हैं, उन्हें तो गुरुको समझानेकी चेष्टा करनी चाहिये थी, परन्तु मालूम होता है] राजाका भी सारा सयानापन समाप्त हो गया। हे सखी ! विधाताकी गति कुछ जानने में नहीं आती [यों कहकर रानी चुप हो रहीं । तब एक चतुर (रामजीके महत्त्वको जाननेवाली) सखी कोमल वाणीसे बोली-हे रानी! तेजवान्को [देखनेमें छोटा होनेपर भी] छोटा नहीं गिनना चाहिये ॥३॥

कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा ।
सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मंडल देखत लघु लागा।
उदयँ तासु तिभुवन तम भागा।


कहाँ घड़ेसे उत्पन्न होनेवाले [छोटे-से] मुनि अगस्त्य और कहाँ अपार समुद्र ? किन्तु उन्होंने उसे सोख लिया, जिसका सुयश सारे संसारमें छाया हुआ है। सूर्यमण्डल देखने में छोटा लगता है, पर उसके उदय होते ही तीनों लोकोंका अन्धकार भाग जाता है॥४॥

दो०- मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब ॥२५६॥

जिसके वशमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मन्त्र अत्यन्त छोटा होता है। महान् मतवाले गजराजको छोटा-सा अंकुश वशमें कर लेता है ।। २५६ ॥



काम कुसुम धनु सायक लीन्हे ।
सकल भुवन अपने बस कीन्हे।
देबि तजिअ संसउ अस जानी ।
भंजब धनुषु राम सुनु रानी॥


कामदेवने फूलोंका ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकोंको अपने वशमें कर रखा है। हे देवी! ऐसा जानकर सन्देह त्याग दीजिये। हे रानी ! सुनिये, रामचन्द्रजी धनुषको अवश्य ही तोड़ेंगे॥१॥

सखी बचन सुनि भै परतीती।
मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥
तब रामहि बिलोकि बैदेही ।
सभय हृदय बिनवति जेहि तेही॥


सखीके वचन सुनकर रानीको [श्रीरामजीके सामर्थ्यके सम्बन्धमें] विश्वास हो गया। उनकी उदासी मिट गयी और श्रीरामजीके प्रति उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। उस समय श्रीरामचन्द्रजीको देखकर सीताजी भयभीत हृदयसे जिस-तिस [देवता] से विनती कर रही हैं ॥२॥

मनहीं मन मनाव अकुलानी।
होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
करहु सफल आपनि सेवकाई ।
करि हितु हरहु चाप गरुआई॥


वे व्याकुल होकर मन-ही-मन मना रही हैं-हे महेश-भवानी! मुझपर प्रसन्न होइये, मैंने आपकी जो सेवा की है, उसे सुफल कीजिये और मुझपर स्नेह करके धनुषके भारीपनको हर लीजिये॥३॥

गननायक बर दायक देवा ।
आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा।
बार बार बिनती सुनि मोरी ।
करहु चाप गुरुता अति थोरी॥


हे गणोंके नायक, वर देनेवाले देवता गणेशजी ! मैंने आजहीके लिये तुम्हारी सेवा की थी। बार-बार मेरी विनती सुनकर धनुषका भारीपन बहुत ही कम कर दीजिये॥४॥

दो०- देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर ॥२५७॥


श्रीरघुनाथजीकी ओर देख-देखकर सीताजी धीरज धरकर देवताओंको मना रही हैं। उनके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू भरे हैं और शरीरमें रोमाञ्च हो रहा है ॥ २५७॥



नीकें निरखि नयन भरि सोभा।
पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
अहह तात दारुनि हठ ठानी ।
समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥


अच्छी तरह नेत्र भरकर श्रीरामजीकी शोभा देखकर, फिर पिताके प्रणका स्मरण करके सीताजीका मन क्षुब्ध हो उठा। [वे मन-ही-मन कहने लगीं-] अहो! पिताजीने बड़ा ही कठिन हठ ठाना है, वे लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं॥१॥

सचिव सभय सिख देइ न कोई।
बुध समाज बड़ अनुचित होई॥
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा ।
कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥


मन्त्री डर रहे हैं; इसलिये कोई उन्हें सीख भी नहीं देता, पण्डितोंकी सभामें यह बड़ा अनुचित हो रहा है। कहाँ तो वज्रसे भी बढ़कर कठोर धनुष और कहाँ ये कोमलशरीर किशोर श्यामसुन्दर!॥२॥

बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा ।
सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
सकल सभा कै मति भै भोरी ।
अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥


हे विधाता! मैं हृदयमें किस तरह धीरज धरूँ, सिरसके फूलके कणसे कहीं हीरा छेदा जाता है। सारी सभाकी बुद्धि भोली (बावली) हो गयी है, अतः हे शिवजीके धनुष! अब तो मुझे तुम्हारा ही आसरा है ॥३॥

निज जड़ता लोगन्ह पर डारी ।
होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
अति परिताप सीय मन माहीं ।
लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥


तुम अपनी जड़ता लोगोंपर डालकर, श्रीरघुनाथजी [के सुकुमार शरीर] को देखकर [उतने ही] हलके हो जाओ। इस प्रकार सीताजीके मनमें बड़ा ही सन्ताप हो रहा है। निमेषका एक लव (अंश) भी सौ युगोंके समान बीत रहा है॥४॥

दो०- प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥२५८॥


प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको देखकर फिर पृथ्वीकी ओर देखती हुई सीताजीके चञ्चल नेत्र इस प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो चन्द्रमण्डलरूपी डोलमें कामदेवकी दो मछलियाँ खेल रही हों ।। २५८ ॥



गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी ।
प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
लोचन जलु रह लोचन कोना ।
जैसें परम कृपन कर सोना॥


सीताजीकी वाणीरूपी भ्रमरीको उनके मुखरूपी कमलने रोक रखा है। लाजरूपी रात्रिको देखकर वह प्रकट नहीं हो रही है। नेत्रोंका जल नेत्रोंके कोने (कोये) में ही रह जाता है। जैसे बड़े भारी कंजूसका सोना कोनेमें ही गड़ा रह जाता है ॥१॥

सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी ।
धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥
तन मन बचन मोर पनु साचा ।
रघुपति पद सरोज चितु राचा॥


अपनी बढ़ी हुई व्याकुलता जानकर सीताजी सकुचा गयीं और धीरज धरकर हृदयमें विश्वास ले आयीं कि यदि तन, मन और वचनसे मेरा प्रण सच्चा है और श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंमें मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है, ॥ २॥

तौ भगवानु सकल उर बासी ।
करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू ।
सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥


तो सबके हृदयमें निवास करनेवाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीकी दासी अवश्य बनायेंगे। जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है ॥३॥

प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना ।
कृपानिधान राम सबु जाना।
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें ।
चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥


प्रभुकी ओर देखकर सीताजीने शरीरके द्वारा प्रेम ठान लिया (अर्थात् यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर इन्हींका होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं)। कृपानिधान श्रीरामजी सब जान गये। उन्होंने सीताजीको देखकर धनुषकी ओर कैसे ताका, जैसे गरुड़जी छोटे से साँपकी ओर देखते हैं ॥४॥

दो०- लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥२५९॥


इधर जब लक्ष्मणजीने देखा कि रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजीने शिवजीके धनुषकी ओर ताका है, तो वे शरीरसे पुलकित हो ब्रह्माण्डको चरणोंसे दबाकर निम्नलिखित वचन बोले--- ॥ २५९।।



दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला ।
धरहु धरनि धरि धीर न डोला।
रामु चहहिं संकर धनु तोरा ।
होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥


हे दिग्गजो! हे कच्छप ! हे शेष! हे वाराह ! धीरज धरकर पृथ्वीको थामे रहो, जिसमें यह हिलने न पावे। श्रीरामचन्द्रजी शिवजीके धनुषको तोड़ना चाहते हैं। मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ॥१॥

चाप समीप रामु जब आए।
नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए।
सब कर संसउ अरु अग्यानू ।
मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥

श्रीरामचन्द्रजी जब धनुषके समीप आये. तब सब स्त्री-पुरुषोंने देवताओं और पुण्योंको मनाया। सबका सन्देह और अज्ञान, नीच राजाओंका अभिमान, ॥२॥

भृगुपति केरि गरब गरुआई।
सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा ।
रानिह कर दारुन दुख दावा॥


परशुरामजीके गर्वको गुरुता, देवता और श्रेष्ठ मुनियोंकी कातरता (भय), सीताजीका सोच, जनकका पश्चात्ताप और रानियोंके दारुण दुःखका दावानल, ॥ ३॥

संभुचाप बड़ बोहितु पाई।
चढ़े जाइ सब संगु बनाई।
राम बाहुबल सिंधु अपारू ।
चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू।


ये सब शिवजीके धनुषरूपी बड़े जहाजको पाकर, समाज बनाकर उसपर जा चढ़े। ये श्रीरामचन्द्रजीकी भुजाओंके बलरूपी अपार समुद्रके पार जाना चाहते हैं, परन्तु कोई केवट नहीं है ॥ ४॥

दो०- राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि ॥२६०॥

श्रीरामजीने सब लोगोंकी ओर देखा और उन्हें चित्रमें लिखे हुए-से देखकर फिर कृपाधाम श्रीरामजीने सीताजीकी ओर देखा और उन्हें विशेष व्याकुल जाना ॥ २६० ॥



देखी बिपुल बिकल बैदेही ।
निमिष बिहात कलप सम तेही।
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा ।
मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥


उन्होंने जानकीजीको बहुत ही विकल देखा। उनका एक-एक क्षण कल्पके समान बीत रहा था। यदि प्यासा आदमी पानीके बिना शरीर छोड़ दे, तो उसके मर जानेपर अमृतका तालाब भी क्या करेगा? ॥१॥

का बरषा सब कृषी सुखाने ।
समय चुकें पुनि का पछितानें।
अस जियँ जानि जानकी देखी।
प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥


सारी खेतीके सूख जानेपर वर्षा किस कामकी? समय बीत जानेपर फिर पछतानेसे क्या लाभ? जीमें ऐसा समझकर श्रीरामजीने जानकीजीकी ओर देखा और उनका विशेष प्रेम लखकर वे पुलकित हो गये ॥२॥

गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा ।
अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ।
पुनि नभ धनु मंडलसम भयऊ।

मन-ही-मन उन्होंने गुरुको प्रणाम किया और बड़ी फुर्तीसे धनुषको उठा लिया। जब उसे [हाथमें] लिया, तब वह धनुष बिजलीकी तरह चमका और फिर आकाशमें मण्डल-जैसा (मण्डलाकार) हो गया ।।३।।

लेत चढ़ावत बँचत गाढ़ें ।
काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा ।
भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥


लेते, चढ़ाते और जोरसे खींचते हुए किसीने नहीं लखा (अर्थात् ये तीनों काम इतनी फुर्तीसे हुए कि धनुषको कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसीको पता नहीं लगा); सबने श्रीरामजीको [धनुष खींचे] खड़े देखा। उसी क्षण श्रीरामजीने धनुषको बीचसे तोड़ डाला। भयङ्कर कठोर ध्वनिसे [सब] लोक भर गये॥४॥

छं०-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले।
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं।


घोर, कठोर शब्दसे [सब] लोक भर गये, सूर्यके घोड़े मार्ग छोड़कर चलने लगे। दिग्गज चिग्घाड़ने लगे, धरती डोलने लगी, शेष, वाराह और कच्छप कलमला उठे। देवता, राक्षस और मुनि कानोंपर हाथ रखकर सब व्याकुल होकर विचारने लगे। तुलसीदासजी कहते हैं, जब [सबको निश्चय हो गया कि] श्रीरामजीने धनुषको तोड़ डाला, तब सब श्रीरामचन्द्रजीकी जय' बोलने लगे।

सो०- संकर चापु जहाजु सागर रघुबर बाहुबलु।
बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस॥२६१॥


शिवजीका धनुष जहाज है और श्रीरामचन्द्रजीकी भुजाओंका बल समुद्र है। [धनुष टूटनेसे] वह सारा समाज डूब गया, जो मोहवश पहले इस जहाजपर चढ़ा था [जिसका वर्णन ऊपर आया है] ॥ २६१ ॥
प्रभु दोउ चापखंड महि डारे ।
देखि लोग सब भए सुखारे॥
कौसिकरूप पयोनिधि पावन ।
प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥

प्रभुने धनुषके दोनों टुकड़े पृथ्वीपर डाल दिये। यह देखकर सब लोग सुखी हुए। विश्वामित्ररूपी पवित्र समुद्रमें. जिसमें प्रेमरूपी सुन्दर अथाह जल भरा है, ॥१॥

रामरूप राकेसु निहारी।
बिढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥
बाजे नभ गहगहे निसाना ।
देवबधू नाचहिं करि गाना॥


रामरूपी पूर्णचन्द्रको देखकर पुलकावलीरूपी भारी लहरें बढ़ने लगीं। आकाशमें बड़े जोरसे नगाड़े बजने लगे और देवाङ्गनाएँ गान करके नाचने लगीं ॥२॥

ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा ।
प्रभुहि प्रसंसहिं देहिं असीसा॥
बरिसहिं सुमन रंग बहु माला ।
गावहिं किंनर गीत रसाला॥


ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध मुनीश्वरलोग प्रभुको प्रशंसा कर रहे हैं और आशीर्वाद देरहे हैं । वे रंग-बिरंगे फूल और मालाएँबरसा रहे हैं। किनर लोग रसीले गीत गा रहे हैं ॥३॥

रही भुवन भरि जय जय बानी ।
धनुष भंग धुनि जात न जानी॥
मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी ।
भंजेउ राम संभुधनु भारी॥

सारे ब्रह्माण्डमें जय-जयकारकी ध्वनि छा गयी, जिसमें धनुष टूटनेकी ध्वनि जान ही नहीं पड़ती। जहाँ-तहाँ स्त्री-पुरुष प्रसन्न होकर कह रहे हैं कि श्रीरामचन्द्रजीने शिवजीके भारी धनुषको तोड़ डाला ॥४॥

दो०- बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥२६२॥


धीर बुद्धिवाले, भाट, मागध और सूतलोग विरुदावली (कीर्ति) का बखान कर रहे हैं। सब लोग घोड़े, हाथी, धन, मणि और वस्त्र निछावर कर रहे हैं ।। २६२ ।।



झाँझि मृदंग संख सहनाई।
भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥
बाजहिं बहु बाजने सुहाए।
जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥

झाँझ, मृदंग, शङ्ख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहावने नगाड़े आदि बहुत प्रकारके सुन्दर बाजे बज रहे हैं। जहाँ-तहाँ युवतियाँ मङ्गलगीत गा रही हैं ॥१॥

सखिन्ह सहित हरषी अति रानी।
सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई।
पैरत थके थाह जनु पाई।


सखियोंसहित रानी अत्यन्त हर्षित हुई। मानो सूखते हुए धानपर पानी पड़ गया हो। जनकजीने सोच त्यागकर सुख प्राप्त किया। मानो तैरते-तैरते थके हुए पुरुषने थाह पा ली हो॥२॥

श्रीहत भए भूप धनु टूटे ।
जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती।
जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥


धनुष टूट जानेपर राजालोग ऐसे श्रीहीन (निस्तेज) हो गये, जैसे दिनमें दीपककी शोभा जाती रहती है। सीताजीका सुख किस प्रकार वर्णन किया जाय; जैसे चातकी स्वातीका जल पा गयी हो ॥३॥

रामहि लखनु बिलोकत कैसें ।
ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
सतानंद तब आयसु दीन्हा ।
सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥


श्रीरामजीको लक्ष्मणजी किस प्रकार देख रहे हैं, जैसे चन्द्रमाको चकोरका बच्चा देख रहा हो। तब शतानन्दजीने आज्ञा दी और सीताजीने श्रीरामजीके पास गमन किया ॥४॥

दो०- संग सखीं सुंदर चतुर गावहिं मंगलचार।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार ॥२६३॥


साथमें सुन्दर चतुर सखियाँ मङ्गलाचारके गीत गा रही हैं; सीताजी बालहंसिनीकी चालसे चली। उनके अङ्गोंमें अपार शोभा है ॥२६३ ॥


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