रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
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पुस्तक क्रमांक : 9
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड


श्रीसीता-राम-विवाह



छं०- उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं।
पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं।
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥


दास तुलसी कहता है कवि और कोविद (विद्वान्) कहते हैं, इनकी उपमा कहीं कोई नहीं है। बल, विनय, विद्या, शील और शोभाके समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुरकी सब स्त्रियाँ आँचल फैलाकर विधाताको यह वचन (विनती) सुनाती हैं कि चारों भाइयोंका विवाह इसी नगरमें हो और हम सब सुन्दर मङ्गल गावें।

सो०- कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥३११॥


नेत्रोंमें [प्रेमाश्रुओंका] जल भरकर पुलकित शरीरसे स्त्रियाँ आपसमें कह रही हैं कि हे सखी! दोनों राजा पुण्यके समुद्र हैं, त्रिपुरारि शिवजी सब मनोरथ पूर्ण करेंगे॥३११॥

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं ।
आनँद उमगि उमगि उर भरहीं।
जे नृप सीय स्वयंबर आए ।
देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए।


इस प्रकार सब मनोरथ कर रही हैं और हृदयको उमँग-उमँगकर (उत्साहपूर्वक) आनन्दसे भर रही हैं। सीताजीके स्वयंवरमें जो राजा आये थे, उन्होंने भी चारों भाइयों को देखकर सुख पाया॥१॥

कहत राम जसु बिसद बिसाला ।
निज निज भवन गए महिपाला॥
गए बीति कछु दिन एहि भाँती ।
प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥


श्रीरामचन्द्रजीका निर्मल और महान् यश कहते हुए राजा लोग अपने-अपने घर गये। इस प्रकार कुछ दिन बीत गये। जनकपुरनिवासी और बराती सभी बड़े आनन्दित हैं॥२॥

मंगल मूल लगन दिनु आवा ।
हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू।
लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥


मङ्गलोंका मूल लग्नका दिन आ गया। हेमन्त ऋतु और सुहावना अगहनका महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। लग्न (मुहूर्त) शोधकर ब्रह्माजीने उसपर विचार किया, ॥३॥

पठै दीन्हि नारद सन सोई।
गनी जनक के गनकन्ह जोई॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता ।
कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥


और उस (लग्नपत्रिका) को नारदजीके हाथ [जनकजीके यहाँ] भेज दिया। जनकजीके ज्योतिषियोंने भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोगोंने यह बात सुनी तब वे कहने लगे-यहाँ के ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं॥४॥

दो०- धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥३१२॥


निर्मल और सभी सुन्दर मङ्गलोंकी मूल गोधूलिकी पवित्र वेला आ गयी और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणोंने जनकजीसे कहा ॥३१२ ।।
उपरोहितहि कहेउ नरनाहा ।
अब बिलंब कर कारनु काहा॥
सतानंद तब सचिव बोलाए ।
मंगल सकल साजि सब ल्याए।


तब राजा जनकने पुरोहित शतानन्दजीसे कहा कि अब देरका क्या कारण है। तब शतानन्दजीने मन्त्रियोंको बुलाया। वे सब मङ्गलका सामान सजाकर ले आये॥१॥

संख निसान पनव बहु बाजे ।
मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता ।
करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥


शङ्ख, नगाड़े, ढोल और बहुत-से बाजे बजने लगे तथा मङ्गल-कलश और शुभ शकुनकी वस्तुएँ (दधि, दूर्वा आदि) सजायी गयीं। सुन्दर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेदकी ध्वनि कर रहे हैं ॥२॥

लेन चले सादर एहि भाँती ।
गए जहाँ जनवास बराती॥
कोसलपति कर देखि समाजू ।
अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥


सब लोग इस प्रकार आदरपूर्वक बारातको लेने चले और जहाँ बरातियोंका जनवासा था, वहाँ गये। अवधपति दशरथजीका समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इन्द्र भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे॥३॥

भयउ समउ अब धारिअ पाऊ।
यह सुनि परा निसानहिं घाऊ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा ।
चले संग मुनि साधु समाजा॥


[उन्होंने जाकर विनती की-] समय हो गया, अब पधारिये। यह सुनते ही नगाड़ोंपर चोट पड़ी। गुरु वसिष्ठजीसे पूछकर और कुलकी सब रीतियोंको करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओंके समाजको साथ लेकर चले॥४॥

दो०- भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥३१३॥


अवधनरेश दशरथजीका भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी आदि देवता हजारों मुखोंसे उसकी सराहना करने लगे॥ ३१३ ।।


सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना ।
बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा।
चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा।


देवगण सुन्दर मङ्गलका अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी आदि देववृन्द यूथ (टोलियाँ) बना-बनाकर विमानोंपर जा चढ़े॥१॥

प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू ।
चले बिलोकन राम बिआहू॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे ।
निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥


और प्रेमसे पुलकित-शरीर हो तथा हृदयमें उत्साह भरकर श्रीरामचन्द्रजीका विवाह देखने चले। जनकपुरको देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गये कि उन सबको अपने अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे॥२॥

चितवहिं चकित बिचित्र बिताना ।
रचना सकल अलौकिक नाना॥
नगर नारि नर रूप निधाना ।
सुधर सुधरम सुसील सुजाना॥


विचित्र मण्डपको तथा नाना प्रकारकी सब अलौकिक रचनाओंको वे चकित होकर देख रहे हैं। नगरके स्त्री-पुरुष रूपके भण्डार, सुघड़, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील और सुजान हैं ॥३॥

तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारी ।
भए नखत जनु बिधु उजिआरी॥
बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी ।
निज करनी कछु कतहुँ न देखी।


उन्हें देखकर सब देवता और देवाङ्गनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गये जैसे चन्द्रमाके उजियालेमें तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजीको विशेष आश्चर्य हुआ; क्योंकि वहाँ उन्होंने अपनी कोई करनी (रचना) तो कहीं देखी ही नहीं ॥ ४ ॥

दो०- सिर्वं समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदय बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥३१४॥


तब शिवजीने सब देवताओंको समझाया कि तुमलोग आश्चर्यमें मत भूलो। हृदयमें धीरज धरकर विचार तो करो कि यह [भगवानकी महामहिमामयी निजशक्ति] श्रीसीताजीका और [अखिल ब्रह्माण्डोंके परम ईश्वर साक्षात् भगवान] श्रीरामचन्द्रजीका विवाह है॥३१४॥
जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं ।
सकल अमंगल मूल नसाहीं॥
करतल होहिं पदारथ चारी ।
तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥


जिनका नाम लेते ही जगतमें सारे अमङ्गलोंकी जड़ कट जाती है और चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) मुट्ठीमें आ जाते हैं, ये वही [जगतके माता-पिता] श्रीसीतारामजी हैं; कामके शत्रु शिवजीने ऐसा कहा॥१॥

एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा ।
पुनि आगे बर बसह चलावा॥
देवन्ह देखे दसरथु जाता ।
महामोद मन पुलकित गाता॥


इस प्रकार शिवजीने देवताओंको समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल नन्दीश्वरको आगे बढ़ाया। देवताओंने देखा कि दशरथजी मनमें बड़े ही प्रसन्न और शरीरसे पुलकित हुए चले जा रहे हैं ॥२॥

साधु समाज संग महिदेवा ।
जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥
सोहत साथ सुभग सुत चारी ।
जनु अपबरग सकल तनुधारी॥


उनके साथ [परम हर्षयुक्त] साधुओं और ब्राह्मणोंकी मण्डली ऐसी शोभा दे रही है, मानो समस्त सुख शरीर धारण करके उनकी सेवा कर रहे हों। चारों सुन्दर पुत्र साथमें ऐसे सुशोभित हैं, मानो सम्पूर्ण मोक्ष (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य) शरीर धारण किये हुए हों॥३॥

मरकत कनक बरन बर जोरी ।
देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥
पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे ।
नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥


मरकतमणि और सुवर्णक रंगकी सुन्दर जोड़ियोंको देखकर देवताओंको कम प्रीति नहीं हुई (अर्थात् बहुत ही प्रीति हुई)। फिर श्रीरामचन्द्रजीको देखकर वे हृदयमें (अत्यन्त) हर्षित हुए और राजाकी सराहना करके उन्होंने फूल बरसाये॥४॥

दो०- राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥३१५॥


नखसे शिखातक श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर रूपको बार-बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्रीशिवजीका शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र [प्रेमाश्रुओंके] जलसे भर गये॥३१५॥



केकि कंठ दुति स्यामल अंगा।
तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा॥
ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए ।
मंगल सब सब भाँति सुहाए।


रामजीका मोरके कण्ठकी-सी कान्तिवाला [हरिताभ] श्याम शरीर है। बिजलीका अत्यन्त निरादर करनेवाले प्रकाशमय सुन्दर [पीत] रंगके वस्त्र हैं। सब मङ्गलरूप और सब प्रकारसे सुन्दर भाँति-भाँतिके विवाहके आभूषण शरीरपर सजाये हुए हैं॥१॥

सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन ।
नयन नवल राजीव लजावन॥
सकल अलौकिक सुंदरताई ।
कहि न जाइ मनहीं मन भाई॥


उनका सुन्दर मुख शरत्पूर्णिमाके निर्मल चन्द्रमाके समान और [मनोहर] नेत्र नवीन कमलको लजानेवाले हैं। सारी सुन्दरता अलौकिक है। (मायाकी बनी नहीं है, दिव्य सच्चिदानन्दमयी है) वह कही नहीं जा सकती, मन-ही-मन बहुत प्रिय लगती है॥२॥

बंधु मनोहर सोहहिं संगा ।
जात नचावत चपल तुरंगा॥
राजकुर बर बाजि देखावहिं ।
बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं ।।


साथमें मनोहर भाई शोभित हैं, जो चञ्चल घोड़ोंको नचाते हुए चले जा रहे हैं। राजकुमार श्रेष्ठ घोड़ोंको (उनकी चालको) दिखला रहे हैं और वंशकी प्रशंसा करनेवाले (मागध-भाट) विरुदावली सुना रहे हैं ॥३॥

जेहि तुरंग पर रामु बिराजे ।
गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥
कहि न जाइ सब भाँति सुहावा ।
बाजि बेषु जनु काम बनावा॥


जिस घोड़ेपर श्रीरामजी विराजमान हैं, उसकी [तेज] चाल देखकर गरुड़ भी लजा जाते हैं। उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह सब प्रकारसे सुन्दर है। मानो कामदेवने ही घोड़ेका वेष धारण कर लिया हो।॥ ४॥
छं०- जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपने बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किंकिनि ललाम लगामुललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे।


मानो श्रीरामचन्द्रजीके लिये कामदेव घोड़ेका वेष बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है। वह अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चालसे समस्त लोकोंको मोहित कर रहा है। सुन्दर मोती, मणि और माणिक्य लगी हुई जड़ाऊ जीन ज्योतिसे जगमगा रहा है। उसकी सुन्दर घुघरू लगी ललित लगामको देखकर देवता, मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।

दो०- प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव॥३१६॥


प्रभुकी इच्छामें अपने मनको लीन किये चलता हुआ वह घोड़ा बड़ी शोभा पा रहा है। मानो तारागण तथा बिजलीसे अलङ्कृत मेघ सुन्दर मोरको नचा रहा हो॥३१६॥

जेहिं बर बाजि रामु असवारा ।
तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
संकरु राम रूप अनुरागे ।
नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥


जिस श्रेष्ठ घोड़ेपर श्रीरामचन्द्रजी सवार हैं, उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शङ्करजी श्रीरामचन्द्रजीके रूपमें ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे॥१॥

हरि हित सहित रामु जब जोहे ।रमा समेत रमापति मोहे॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने आठइ नयन जानि पछिताने॥


भगवान विष्णुने जब प्रेमसहित श्रीरामको देखा,तब वे [रमणीयताकी मूर्ति] श्रीलक्ष्मीजीके पति श्रीलक्ष्मीजीसहित मोहित हो गये। श्रीरामचन्द्रजीकी शोभा देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे॥२॥

सुर सेनप उर बहुत उछाहू ।
बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना ।
गौतम श्रापु परम हित माना॥


देवताओंके सेनापति स्वामिकार्तिकके हृदयमें बड़ा उत्साह है, क्योंकि वे ब्रह्माजीसे ड्योढ़े अर्थात् बारह नेत्रोंसे रामदर्शनका सुन्दर लाभ उठा रहे हैं। सुजान इन्द्र [अपने हजार नेत्रोंसे] श्रीरामचन्द्रजीको देख रहे हैं और गौतमजीके शापको अपने लिये परम हितकर मान रहे हैं ॥ ३॥

देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं।
आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं॥
मुदित देवगन रामहि देखी ।
नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥


सभी देवता देवराज इन्द्रसे ईर्ष्या कर रहे हैं और कह रहे हैं] कि आज इन्द्रके समान भाग्यवान् दूसरा कोई नहीं है। श्रीरामचन्द्रजीको देखकर देवगण प्रसन्न हैं और दोनों राजाओंके समाजमें विशेष हर्ष छा रहा है ॥ ४॥


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