शब्द का अर्थ
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अधर :
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वि० (हिं० अ+धृ=धारना) १. जिसे धरा या पकड़ा न जा सके। २. जिसे किसी ने धारण न किया हो। ३. जो किसी आधार पर न हो। जिसके नीचे आधार या आश्रय न हो। बिना आधार का। पुं० आकाश और पृथ्वी के बीच का वह अंश जिसमें टिकने या ठहरने के लिए कोई आधार या आश्रय नहीं होता। अंतरिक्ष। मुहावरा—अधर में चलना=बहुत अधिक इतराना या इठलाना। अधर में झूलना,पकड़ा या लटकना=अनिश्चय और प्रतिक्षा की अवस्था में रहना। वि० [सं० +धृ (धरना) +अच्, न० ब०) १. जिसका निचले भाग से संबंध हो। नीचे का। २. जो नीचे झुका हो या जिसका झुकाव नीचे की ओर हो। ३. तुच्छ या हल्का। ४. दुष्ट। नीच। पुं० [सं० न० त०] १. नीचे का होंठ। २. होंठ (ऊपर या नीचे का)। मुहावरा—अधर चबाना=क्रोध के कारण ओंठो को चबाना। (बहुत अधिक क्रोध प्रकट करने का लक्षण) ३. योनि के दोनों पार्श्व। ४. पाताल। ५. शरीर का निचला भाग। ६. दक्षिण दिशा। |
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समानार्थी शब्द-
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अधरज :
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पुं० [सं० अधर-रज) १. होंठों की ललाई या सुर्खी। २. होंठों पर की पान या मिस्सी का धड़ी। |
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अधर-पान :
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पुं० [ष० त०] प्रिय के होंठ प्रेमपूर्वक अच्छी तरह चूमना और उनका रस लेना। |
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अधर-बिंब :
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पुं० (उपमि० स०) कुंदरू के पके फल की तरह के लाल होंठ। |
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अधरम :
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पुं०=अधर्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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अधरमकाय :
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पुं० दे० ‘अधर्मास्तिकाय’। |
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अधर-रस :
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पुं० (ष० त०) अधरों का रस जो प्रिय को होंठ चूमने पर प्राप्त होता है। |
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अधर-स्वास्तिक :
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पुं० (कर्म०स०) दे० ‘अधोबिन्दु’। |
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अधरांग :
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पुं० [सं० अधर-अंग, कर्म० स०) कमर के नीचे के अंग या भाग। |
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अधरांग-घात :
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पुं० (स०त०) एक प्रकार का रोग जिसमें कमर से नीचे अंग बिलकुल सुन्न और बेकाम हो जाते हैं। (पैराप्लेजिया) |
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अधरात :
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स्त्री० (हिं० आधी+रात) संध्या और सबेरे का मध्य भाग। आधी रात। |
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अधराधर :
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पुं० (अधर-अधर कर्म०स०) नीचे का होंठ। |
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अधरामृत :
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पुं० (अधर-अमृत ष० त०) अमृत का-सा वह रस या स्वाद जो प्रिया के अधर या होंठ चूमने या चूसने पर प्राप्त होता है। |
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अधरासव :
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पुं० (अधर-आसव, ष० त०) अधर-रस जिसका पान आसव या मदिरा के समान आनंददायक होता है। |
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अधरीण :
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वि० [सं० अधर+ख-ईन) १. नीच और तिरस्कृत। २. निंदित या निंदनीय। |
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अधरोत्तर :
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वि० (अधर-उत्तर, द्व० स०) १. ऊँचा-नीचा। ऊबड़-खाबड़। २. भला-बुरा। ३. न्युनाधिक। कम-ज्यादा। थोड़ा बहुत। क्रि० वि० ऊँचे-नीचे। |
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अधरोष्ठ :
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पुं० (अधर-ओष्ठ, द्व० स०) नीचे और ऊपर के होंठ। |
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अधर्म :
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पुं० [सं० न० त०] १. धर्म के सिंद्धान्तों या धर्म-शास्त्र की आज्ञाओं के विरुद्ध आचरण या कार्य। पातक। पाप। २. निंदनीय और बुरा काम। ३.एक प्रजापति का नाम। |
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अधर्मास्तिकाय :
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पुं० [सं० अधर्म-अस्तिकाय, ष० त०) द्रव्य के छः भेदों में से एक जो अरूपी और नित्य माना गया है। (जैन) |
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अधर्मी (मिन्) :
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पुं० [सं० अधर्म+इनि) १. वह जो अधर्म करता हो। २. वह जो अपने धर्म के विरुद्ध आचरण करता हो। पापी। |
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अधर्म्य :
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वि० [सं० धर्म√यत्,न० त०) १. जो धर्म से युक्त न हो। २. जो धर्म की दृष्टि से उपयुक्त या न्याय संगत न हो। जो धर्म-विरुद्ध हो। ३. अधर्मी। ४. अवैध। ५. अन्यायपूर्ण। |
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अधर्षणीय :
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वि० [सं०√धृष् (डाँटना फटकारना) +अनीयर, न० त०) १. जिसका धर्षण न किया जा सके। जो डरा-धमका कर डराया न जा सके। २. निडर। निर्भय। |
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