शब्द का अर्थ
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गृह :
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पुं० [सं० Öग्रह+क] १. ईट, पत्थर, चूने, सीमेन्ट आदि से बना हुआ वह निवास-स्थान जहाँ कोई व्यक्ति (अथवा परिवार) रहता हो। घर। मकान। जैसे–राजगृह। २.विस्तृत क्षेत्र में, वह क्षेत्र,शहर या राज्य जिसमें कोई रहता हो। ३. राज्य या राष्ट्र के भीतरी कामों का क्षेत्र। जैसे–गृह-मंत्री। वि० १. (यौ० के आरम्भ में) घर में रखकर पाला हुआ। जैसे–गृह कपोत,गृह-दास। २. गृह या घर से संबंध रखनेवाला। जैसे–गृहशास्त्र। ३. देश के भीतरी भाग से संबंध रखनेवाला। जैसे–गृह-युद्ध। |
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गृह-उद्योग :
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पुं० [मध्य० स०] जीविका उपार्जन करने के लिए घर में बैठकर किये जानेवाले रचनात्मक कार्य। जैसे–करघे से कपड़ा बुनना, बाँस की खपचियों से टोकरियाँ बनाना, रस्सी बटना आदि आदि। |
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गृह-कन्या :
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स्त्री० [ष० त०] घीकुवार। ग्वारपाठा। |
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गृह-कर्मन् :
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पुं० [ष० त०] घर-गृहस्थी के काम-धन्धे। |
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गृह-कलह :
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पुं० [स० त० ] १. घर के लोगों में आपस में होनेवाला झगड़ा या लड़ाई। २. किसी देश या राष्ट्र के निवासियों में आपस में होनेवाला झगड़ा या लड़ाई। |
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गृह-कार्य :
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पुं० [ष० त०] घर-गृहस्थी के काम-धन्धे। |
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गृह-कुमारी :
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स्त्री० गृहकन्या। |
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गृह-गोधा :
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स्त्री० [ष० त० ] छिपकली। |
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गृह-गोधिका :
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स्त्री० [ष० त० ] छिपकली। |
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गृहज :
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वि० [सं० गृह√जन् (उत्पन्न होना)+ड, उप० स०] जो घर में उत्पन्न हुआ हो। पुं० घर में पैदा होनेवाला दास। गोला। |
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गृह-जन :
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पुं० [ष० त० ] घर में रहने वाले आपस के सब लोग। कुंटुंबी। |
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गृह-जात :
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वि० [स० त० ] जो घर में उत्पन्न हुआ हो। पुं० सात प्रकार के दासों में से वह जो घर में रखे हुए दास या दासी से उत्पन्न हुआ हो। |
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गृह-ज्ञानी (निन्) :
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वि० [स० त० ] जिसका सारा ज्ञान घर के अन्दर ही सीमित हो। बाहर का कुछ भी हाल न जाननेवाला। कूप-मंडूक। |
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गृहणी :
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स्त्री० [सं० गृहनी (ले जाना)+क्विप्,णत्व] १. काँजी। २. प्याज। स्त्री० दे० ‘गृहिणी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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गृह-त्याग :
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पुं० [ष० त०] विरक्त होकर और घर छोड़कर कहीं निकल जाना। |
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गृहत्यागी (गिन्) :
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वि० [सं० गृहत्याग+इनि] जो घर-बार छोड़कर और विरक्त होकर गृहस्थाश्रम से निकल आया हो। |
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गृह-दाह :
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पुं० [ष० त० ] १. घर में आग लगाने या भस्म करने की क्रिया या भाव। २. ऐसा लड़ाई-झगड़ा जिससे घर का सब-कुछ नष्ट हो जाय। |
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गृह-दीर्घिका :
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स्त्री० [मध्य० स०] प्राचीन भारत में धवल-गृह के आस-पास की नहर जो राजाओं और रानियों के जल-विहार के लिए बनी होती थी। |
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गृह-देवता :
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पुं० [ष० त०] घर के भिन्न-भिन्न कार्यों के देवता जिनकी संख्या ४५ कहीं गई है। |
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गृह-देवी :
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स्त्री० [ष० त०] घर की स्वामिनी। गृहिणी। |
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गृह-नीड़ :
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पुं० [ब० स०] गौरैया। (पक्षी)। |
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गृहप :
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पुं० [सं० गृ√हपा (रक्षा करना)+क, उप० स०] १. घर का स्वामी। गृहपति। २. चौकीदार। पहरेदार। ३. अग्नि। आग। ४. कुत्ता। |
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गृह-पति :
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पुं० [ष० त०] [स्त्री० गृहपत्नी] १. वह व्यक्ति जिसके पास घर या मकान हो। घर या मकान का मालिक। २. किसी घर अर्थात् घर में रहनेवाले परिवार का मुख्य व्यक्ति। ३. अग्नि। आग। ४. कुत्ता। |
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गृह-पत्नी :
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स्त्री० [ष० त०] ==गृहिणी। |
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गृह-पशु :
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पुं० [ष० त०] १. घर में पाला हुआ पशु। पालतू जानवर। २. कुत्ता। |
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गृह-पाल :
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पुं० [सं० गृहपाल (रक्षा करना)+णिच्+अण्, उप० स०] १. घर की रखवाली करनेवाला चौकीदार। २. कुत्ता। |
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गृह-पालित :
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भू० कृ० [स० त०] जो घर में पाला पोसा गया हो। जैसे–गृह पालित दास या पशु। |
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गृह-प्रवेश :
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पुं० [स० त० ] १. नये बनवाये या खरीदे हुए मकान में, विधिपूर्वक पूजन आदि करने के उपरांत, पहले-पहल बाल-बच्चों सहित उसमें प्रवेश करना। २. उक्त अवसर पर होने वाला समारोह और धार्मिक कृत्य। वास्तु-पूजन। |
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गृह-बलि :
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स्त्री० [मध्य० स०] घर में ही नित्य दी जानेवाली बलि। वैश्व-देव। |
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गृह-भूमि :
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स्त्री० [ष० त० या मध्य० स०] वह भूमि जिस पर मकान बना हो या जो मकान बनाने के लिए उपयुक्त हो। (कृषि भूमि से भिन्न) |
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गृह-भेद :
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पुं० [ष० त०] घर के लोगों का आपस में लड़-झगड़कर एक दूसरे से अलग होना। |
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गृह-भेदी(दिन्) :
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वि० [सं० गृह√Öभिद् (फाड़ना)+णिनि,उप० स०] घर के लोगों में आपस में लड़ाई-झगड़ा करानेवाला। |
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गृह-मंत्रालय :
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पुं० [ष० त० ] १. वह मंत्रालय जिसमें किसी राज्य या राष्ट्र के गृह-संबंधी कार्यों की देख-भाल करनेवाले लोग काम करते हैं। गृहमंत्री का कार्यालय। (होममिनिस्टरी) २. उक्त मंत्रालय का अधिकारी वर्ग। |
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गृह-मंत्री(त्रिन्) :
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पुं० [ष० त०] राज्य या राष्ट्र के भीतरी मामलों (तथा शांति, रक्षा आदि) की व्यवस्था करनेवाला मंत्री। (होम मिनिस्टर) |
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गृह-मणि :
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पुं० [ष० त०] दापक। दीया। |
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गृह-माचिका :
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स्त्री० [सं० गृह√Öमच् (छिपकर रहना)+ण्वुल्-अक+टाप्, इत्व, उप० स० ] चमगादड़। |
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गृह-मृग :
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पुं० [स० त०] कुत्ता। |
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गृह-मेध :
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पुं० [ष० त०] पंच महायज्ञ। |
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गृह-मेधी(धिन्) :
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पुं० [सं० गृहमेध+इनि] १. गृह-मेध करनेवाला। २. गृहस्थ। |
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गृह-युद्ध :
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पुं० [स० त० ] १. घर में ही आपस के लोगों में होनेवाला लड़ाई-झगड़ा। २. किसी एक ही राज्य या राष्ट्र के विभिन्न प्रदेशों के निवासियों या राजनीतिक दलों का आपस में होनेवाला युद्ध। (सिविल वार) |
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गृह-रक्षक :
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पुं० [ष० त० ] १. एक प्रकार का अर्द्ध सैनिक संघटन जो स्वंतंत्र भारत में स्थानिक शांति और सुरक्षा के उद्देश्य से बनाया गया है। २. इस संघटन का कोई अधिकारी या सदस्य। (होमगार्ड)। |
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गृह-लक्ष्मी :
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स्त्री० [ष० त० ] घर की स्वामिनी, सती और सुशीला स्त्री। |
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गृह-वाटिका :
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स्त्री० [मध्य० स०] घर में ही लगा हुआ छोटा बाग। |
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गृह-वासी (सिन्) :
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वि० [सं० गृहवस् (बसना)+णिनि, उप० स०] घर बनाकर उसमें रहनेवाला। पुं० गृहस्थ। |
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गृह-वित्त :
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पुं० [ब० स०] गृह-स्वामी। |
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गृह-सचिव :
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पुं० [ष० त०] गृह मंत्रालय का प्रधान शासनिक अधिकारी। (होम सेक्रेटरी) |
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गृह-सज्जा :
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स्त्री० [ष० त०] घर की सजावट या उसकी सामग्री। |
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गृहस्त :
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पुं० =गृहस्थ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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गृहस्थ :
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पुं० [सं० गृह√Öस्था (ठहरना)+क] १. वह जो घर-वार बनाकर उसमें अपने परिवार और बाल-बच्चों के साथ रहता हो। पत्नी और बाल-बच्चों वाला आदमी। घरबारी। २. हिंदू धर्म-शास्त्रों के अनुसार वह जो ब्रह्मचर्य का पालन समाप्त और करके विवाह करके दूसरे आश्रम में प्रविष्ट हुआ हो। ज्येष्ठाश्रमी। ३. खेती-बारी आदि से जीविका चलानेवाला व्यक्ति। ४. जुलाहा। |
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गृहस्थाश्रम :
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पुं० [सं० गृहस्थ-आश्रम, ष० त० ] हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार चार आश्रमों में से दूसरा आश्रम जिसमे लोग ब्रह्मचर्य के उपरांत विवाह करके प्रवेश करते थे और स्त्री-पुत्र आदि के साथ रहते और उनका पालन करते थे। |
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गृहस्थाश्रमी (मिन्) :
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पुं० [सं० गृहस्थाश्रम+इनि] गृहस्थाश्रम में रहनेवाला व्यक्ति। |
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गृहस्थी :
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स्त्री० [सं० गृहस्थ+हिं० ई (प्रत्य)] १. प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि से उसका घर,परिवार के सब लोग और उसमें रहनेवाली जीवन निर्वाह की सब सामग्री। घर-बार और बाल-बच्चे। २. घर का सब सामान। माल-असबाब। जैसे–इतनी बड़ी गृहस्थी उठाकर कहीं ले जाना सहज नहीं है। ३. खेती-बारी और उससे संबंध रखने वाला काम-धंधे। ४. गृहस्थाश्रम। ५. खेती-बारी। |
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गृह-स्वामी(मिन्) :
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पुं० [ष० त०] [स्त्री० गृह-स्वामिनी] घर का मालिक जो गृहस्थी के सब लोगों का पालन-पोषण और देख-रेख करता हो। |
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गृहाक्ष :
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पुं० [सं० गृह-अक्षि, ष० त० टच् प्रत्यय] घर में बनी हुई खिड़की या झरोखा। |
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गृहागत :
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भू० कृ० [सं०गृह-आगत,द्वि.त०] घर में आया हुआ। पुं० अतिथि। मेहमान। |
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गृहाराम :
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पुं० [सं० गृह-आराम, मध्य० स०] घर के चारों ओर या सामने लगाया हुआ बाग। |
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गृहाश्रम :
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पुं० [सं० गृह-आश्रम, कर्म० स०] ==गृहस्थाश्रम। |
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गृहाश्रमी(मिन्) :
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पुं० [सं० गृहाश्रम+इनि] =गृहस्थाश्रमी। |
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गृहासक्त :
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वि० [गृह-आसक्त, स० त० ] १. घर से दूर रहने या होने के कारण जो चिंतित तथा दुःखी हो। (होम सिक) २. हर दम जिसे घर-गृहस्थी, बाल-बच्चों आदि की चिंता लगी रहती हो। |
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गृहिणी :
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स्त्री० [सं० गृह+इनि-ङीप्] १. घर की मालकिन जो गृहस्थी के सब कामों की देख-रेख करती हो। २. जोरू। पत्नी। भार्या। |
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गृही(हिन्) :
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पुं० [सं० गृह+इनि] [स्त्री० गृहिणी] १. गृहस्थ। गृह-स्थाश्रमी। २. दर्शनों आदि के लिए तीर्थ में आया हुआ व्यक्ति।(पंडे और भड्डर) |
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गृहीत :
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भू० कृ० [सं० Öग्रह् (पकड़ना)+क्त] [स्त्री० गृहीता] १. जो ग्रहण या प्राप्त किया गया हो। २. लिया, पकड़ा या रखा हुआ। ३. जिसने कोई चीज धारण की हो। जैसे– |
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गृहीतगर्भा :
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(गर्भवती स्त्री)। ४. जिसपर किसी उग्र मनोविकार का प्रभाव पड़ा हो। जैसे– गर्व-गृहीत। ५. जाना या समझा हुआ। |
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गृहीतार्थ :
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वि० [सं० गृहीत-अर्थ, ब० स०] जिसने अर्थ समझ लिया हो। पुं० किसी पद या वाक्य का गृहीत या प्रचलित अर्थ। |
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गृहोद्यान :
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पुं० [सं० गृह-उद्यान, मध्य० स०] बहुत बड़े मकान या महल के सामने या अगल-बगल का बगीचा। |
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गृहोपकरण :
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पुं० [सं० गृह-उपकरण, ष० त०] घर-गृहस्थी के सब सामान। |
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गृह्यक :
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वि० [सं० गृह्य+कन्] १. जिसने घर में आकर आश्रय लिया हो। आश्रित। २. जो घर में रखकर पाला-पोसा गया हो। |
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गृह्य-कर्म(न्) :
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पुं० [कर्म० स०] हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार वे सब कर्म जो प्रत्येक गृहस्थ के लिए आवश्यक कर्त्तव्य के रूप में बतलाये गये हैं। जैसे–अग्निहोत्र, बलि, १६ संस्कार आदि। |
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गृह्य-सूत्र :
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पुं० [ष० त०] वे विशिष्ट वैदिक ग्रंथ जिनमें सब प्रकार के गृह्य-कर्मों,संस्करों आदि के विधान बतलाये गये हैं। जैसे–आश्वलायन, कात्यायन अथवा गोमिलीय गृह्य-सूत्र। |
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