शब्द का अर्थ
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परिक :
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स्त्री० [देश०] बहुत अधिक खोटी या मिलावटवाली चाँदी। |
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परिकरमा :
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स्त्री०=परिक्रमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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परिकरांकुर :
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पुं० [सं० परिकर-अंकुर, ष० त०] वह अर्थालंकार जिसमें विशेष्य का कथन किसी विशिष्ट अभिप्राय से किया जाता है। |
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परिकर्तन :
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पुं० [सं० परि√कृत् (काटना)+ल्युट्—अन] १. चारों ओर से काटना। २. गोलाकार काटना। ३. शूल। |
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परिकर्तिका :
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स्त्री० [सं० परि√कृत्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] शूल। |
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परिकर्म (कर्मन्) :
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पुं० [सं० परि√कृ (करना)+मनिन्] १. देह को सजाने का काम। २. शरीर का श्रृंगार या सजावट। |
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परिकर्मा (कर्मन्) :
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पुं० [सं० प्रा० ब० स०] नौकर। सेवक। |
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परिकर्षण :
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पुं० [सं०] खेती-बारी के काम के लिए जमीन जोतना, बोना आदि। |
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परिकलक :
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पुं० [सं० परि√कल् (गिनना)+णिच्+ ण्वुल्—अक] १. परिकलन करने अर्थात् हिसाब लगाने या लेखा करनेवाला व्यक्ति। २. एक तरह का आधुनिक यंत्र जो कई प्रकार का काम जल्दी और सहज में करता है। ३. वह पुस्तक जिसमें अनेक प्रकार के लगे हुए हिसाबों के बहुत से कोष्ठक होते हैं। (कैलकुलेटर, उक्त दोनों अर्थों में) |
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परिकलन :
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पुं० [सं० परि√कल्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिकलित] १. गणित में वह गणना जो कुछ जटिल होती है तथा जिसमें कुछ विशिष्ट तथा निश्चित क्रियाओं की सहायता लेनी पड़ती है। (कैलकुलेशन) |
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परिकलित :
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भू०-कृ० [सं० परि√कल्+णिच्+क्त] जिसका परिकलन हो चुका हो। |
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परिकल्पन :
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पुं० [सं० परि√कृप् (सामर्थ्य)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिकल्पित] १. परिकल्पना करने की क्रिया या भाव। २. किसी विषय पर होनेवाला चिंतन या मनन। ३. बनावट। रचना। ४. विभाजन। ५. दे० ‘परिकल्पना’। |
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परिकल्पना :
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स्त्री० [सं० परि√कृप्+णिच्+युच्—अन+टाप्] १. जिस बात की बहुत-कुछ संभावना हो उसे पहले ही मान लेना या उसके नाम, रूप आदि की कल्पना कर लेना। २. केवल तर्क के लिए कोई बात मान लेना। ३. कुछ विशिष्ट आधारों पर कोई बात ठीक या सही मान लेना। ४. गणित में कोई विशिष्ट मान या राशि निकलने से पहले उसके लिए कोई निश्चित मान राशि या चिह्न अवधारित करना। (प्रिज़म्पशन) |
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परिकल्पित :
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भू० कृ० [सं० परि√कृप्+क्त] १. (बात या विषय) जिसकी परिकल्पना की गई हो। २. (पदार्थ या रूप) जो परिकल्पना के फल-स्वरूप बना या प्रस्तुत हुआ हो। ३. जो केवल तर्क के लिए मान लिया गया हो। ४. जो कुछ विशिष्ट आधारों पर ठीक या सही मान लिया गया हो। ५. कल्पित। मन-गढ़न्त। ६. ठहराया या ठीक किया हुआ। निश्चित। ६. बनाया हुआ। रचित। |
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परिकांक्षित :
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पुं० [सं० परि√काङ्क्ष (चाहना)+क्त] १. भक्त। २. तपस्वी। |
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परिकीर्ण :
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भू० कृ० [सं० परि√कृ+क्त, इत्व, नत्व] १. फैला य फैलाया हुआ विस्तृत। २. छितरा या छिटकाया हुआ। ३. समर्पित। |
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परिकीर्तन :
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पुं० [सं० परि√कृत् (जोर से शब्द करना) +ल्युट्—अन] १. खूब ऊँचे स्वर से कीर्तन करना। २. किसी के गुणों के बहुत अधिक और विस्तारपूर्वक किया जानेवाला वर्णन। |
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परिकीर्तित :
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भू० कृ० [सं० परि√कृत्+क्त] जिसका परिकीर्तन हुआ हो या किया गया हो। |
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परिकूल :
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पुं० [सं० प्रा० स०] कूल अर्थात् किनारे के पास का स्थान। |
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परिकेंद्र :
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पुं० [सं० प्रा० स०] ज्यामिति में परिवृत्त (देखें) का केन्द्र। |
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परिकोप :
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पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या प्रचंड क्रोध। |
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परिक्रम :
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पुं० [सं० परि√क्रम् (गति)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। २. घूमना। ३. सैर करने के लिए घूमना। टहलना। ४. किसी काम की जाँच या निरीक्षण के लिए जगह-जगह जाना या घूमना। (टूर) ५. प्रवेश। ६. दे० ‘क्रम’। ६. दे० ‘परिक्रमा’। |
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परिक्रमण :
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पुं० [सं० परि√क्रम्+ल्युट्—अन्] १. चारों ओर चलने अथवा घूमने, टहलने या सैर करने की क्रिया या भाव। २. किसी काम की देख-रेख के लिए जगह-जगह जाना। दौरा करना। ३. परिक्रमा करना। |
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परिक्रम-सह :
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पुं० [सं० परिक्रम√सह् (सहना)+अच्] बकरा। |
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परिक्रमा :
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स्त्री० [सं० परि√क्रम्+अ+टाप्] १. चारों ओर चक्कर लगाना या घूमना। २. किसी तीर्थ, देवता या मंदिर के चारों ओर भक्ति और श्रद्धा से तथा पुण्य की भावना से चक्कर लगाने की क्रिया। प्रदक्षिणा। ४. उक्त प्रकार का चक्कर लगाने के लिए नियत किया या बना हुआ मार्ग। |
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परिक्रय :
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पुं० [सं० परि√क्री (खरीदना)+अच्] १. खरीदने दी क्रिया या भाव। खरीद। २. भाड़ा। ३. मजदूरी। ४. पारिश्रमिक या मजदूरी तै करके किसी को किसी कार्य पर लगाना। ५. व्यापारिक कार्यों के लिए माल आदि का होनवाला विनिमय। ६. इस प्रकार दिया या लिया हुआ माल। |
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परिक्रांत :
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वि० [सं० परि√क्रम्+क्त] जिसके चारों ओर चला या चक्कर लगाया जा सके। |
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परिक्रामी :
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वि० [सं०] १. परिक्रमा करने अर्थात् चारों ओर घूमनेवाला। २. बराबर एक स्थान से दूसरे पर जाता या घूमता रहनेवाला। |
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परिक्रिया :
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स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज को चारों ओर से दीवार, खाईं आदि से घेरने की क्रिया या भाव। २. स्वर्ग की कामना से किया जानेवाला एक प्रकार का यज्ञ। ३. आनन्द, मोह आदि के लिए की जानेवाली कोई क्रिया या आयोजन। |
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परिक्लांत :
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वि० [सं० परि√क्लम् (थकना)+क्त] जो थककर चूर हो गया हो। |
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परिक्लिष्ट :
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वि० [सं० परि√क्लिश् (कष्ट सहना)+क्त] १. बहुत अधिक क्लिष्ट। २. तोड़ा-फोड़ा और नष्ट-भ्रष्ट किया हुआ। |
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परिक्लेद :
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पुं० [सं० परि√क्लिद् (गीला होना)+घञ्] आर्द्रता। नमी। |
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परिक्वणन :
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वि० [सं० परि√क्वण् (शब्द करना)+ ल्युट्+अन] बहुत ऊँचा (स्वर)। बादल जो बहुत ऊँचा स्वर करता है। |
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परिक्षत :
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वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिक्षति] १. जिसे बहुत अधिक क्षति पहुँची हो। २. जिसे बहुत अधिक चोट लगी हो। आहत। ३. नष्ट-भ्रष्ट। |
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परिक्षय :
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पुं० [सं० प्रा० स०] पूरा और सामूहिक विनाश। |
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परिक्षव :
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पुं० [सं० परि+क्षु (शब्द करना)+अप्] अशुभ सगुनवाली छींक। |
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परिक्षा :
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स्त्री० [सं० प्रा० स०] कीचड़। स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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परिक्षाम :
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वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक क्षीण या दुर्बल। |
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परिक्षालन :
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पुं० [सं०√क्षल् (धोना)+णिच्+ल्युट्—अन] १. वस्त्र आदि धोने की क्रिया या भाव। २. धोने का काम। |
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परिक्षित् :
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पुं० [सं० परि√क्षि (नाश)+क्विप्, तुक्-आगम] १. एक प्रसिद्ध प्रतापी राजा जो अभिमन्यु के पुत्र और जनमेजय के पिता थे। २. अग्नि। |
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परिक्षिप्त :
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भू० कृ० [सं० परि√क्षिप् (प्रेरणा)+क्त] १. जो चारों ओर से घिरा या घेरा गया हो। २. फेंका और त्यागा हुआ। |
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परिक्षीण :
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वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक दुर्बल। २. निर्धन। ३. दे० ‘शोषाक्षय’। |
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परिक्षेत्रिक :
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वि० [सं०] दे० ‘परिनागर’। |
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परिक्षेप :
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पुं० [सं० परि√क्षिप्+घञ्] १. गदा को चारों ओर घुमाते हुए प्रहार करना। २. अच्छी तरह से चलना-फिरना या घूमना-टहलना। ३. वह पट्टी या सीमा जिससे कोई चीज घिरी हुई हो। ४. फेंकना। ५. परित्याग करना। |
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परिक्षण :
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पुं०=प्रतिरक्षा। |
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