शब्द का अर्थ
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स्त्रीमद्रिय :
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स्त्री० [सं०] स्त्री की योनि। भग। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्त्री :
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स्त्री० [सं०] [भाव.स्त्रीत्व, वि० स्त्रैण] १. मनुष्य जाति की वयस्क मादा। पुरुष का विपर्याय। २. उक्त जाति की कोई विशेष सदस्या। जैसे –पुरुष स्त्री का गुलाम बन जाता है। ३.पत्नी। जोरू। ४. मादा जंतु। पुरुष या नर का विपर्याय। ५. अक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो—दो गुरु वर्ण होते हैं। कामा। ५. दीमक। ६.प्रियंगुलता। ७.व्याकरण में स्त्रीलिंग का संक्षिप्त रूप। स्त्री० =इस्त्री। |
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स्त्री-करण :
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पुं० [सं०] १. स्त्री बनना। पत्नी बनाना। २. संभोग। मैथुन। |
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स्त्री-गमन :
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पुं० [सं०] स्त्री-संभोग। मैथुन। |
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स्त्री-ग्रह :
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पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार बुध, चंद्र और शुक्र ग्रह जो स्त्री जाति के माने गये हैं। |
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स्त्री-चंचल :
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वि० [सं०] १. कामुक। कामी। २. लंपट। |
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स्त्री-चिन्ह :
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पुं० [सं०] वे सब बाते या चिह्न जिससे यह माना जाता है कि प्राणी स्त्री जाति का है। |
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स्त्री-चौर :
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पुं० [सं०] लंपट। वियभिचारी। |
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स्त्री-जननी :
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स्त्री० [सं०] केवल लड़कियों को जन्म देने वाली स्त्री। (मनु) |
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स्त्री-जित् :
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वि० [सं०] (ऐसा पुरुष) जो पत्नी की जी-हुजूरी करता हो। |
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स्त्रीता :
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स्त्री=स्त्रीत्व। |
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स्त्रीत्व :
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पुं० [सं०] १. ‘स्त्री’ होने की अवस्था गुण, धर्म या भाव। औरतपन। २. गुण, धर्म आदि के विचार से स्त्रियों का सा होने का भाव। जनानापन। ३. शब्दों के अंत में लगने वाला स्त्रीलिंग का सूचक प्रत्यय। (व्याकरण) |
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स्त्री-देहार्द्ध :
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पुं० [सं०] शिव जिनके आधे अंग में पार्वती का होना माना गया है। |
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स्त्री-धन :
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पुं० [सं०] ऐसा धन जिस पर स्त्रियों का विशेष रूप से अधिकार हो और जो पुरुष को न मिल सकता हो। यह छः प्रकार का कहा गया है—अन्वाधेय, बंधुदत्त, भौतिक, सौदायिक, शुल्क, परिणाम, लावण्यार्जित र पादवन्दनिक। |
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स्त्री-धर्म :
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पुं० [सं०] १. स्त्री या पत्नी का कर्तव्य। २. स्त्री का राजस्वला होना। रजोदर्शन। ३. मैथुन। संभोग। ४. स्त्रियों से संबंध रखने वाला नियम या विधान। |
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स्त्री-धर्मिणी :
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स्त्री० [सं०] रजस्वला स्त्री० । |
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स्त्री-धूर्त :
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पुं० [सं०] स्त्री को छलने वाला पुरुष। |
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स्त्री-ध्वज :
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वि० [सं०] जिसमें स्त्रियों के चिह्न हों। स्त्री के चिह्नो से युक्त। पुं० हाथी। |
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स्त्रीपण्योपजीवी :
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पुं० =स्त्र्याजीव। |
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स्त्री-पर :
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वि० [सं०] कामुक। विषयी। पुं० व्याभिचारी पुरुष। |
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स्त्री-पुर :
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पुं० [सं०] अंतःपुर। जनानखाना। |
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स्त्री-पुष्प :
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पुं० [सं०] स्त्री का राज। |
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स्त्री-प्रसंग :
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पुं० [सं०] मैथुन। संभोग। |
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स्त्री-प्रिय :
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पुं० [सं०] १. आम का पेड़। २. अशोक। वि० जिसे स्त्री प्यार करती हो। |
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स्त्री-प्रेक्षा :
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स्त्री० [सं०] ऐसा खेल तमाशा जिसमें स्त्रियोँ ही जा सकती हों। |
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स्त्री-भोग :
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पुं० [सं०] मैथुन। प्रसंग। |
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स्त्री-मंत्र :
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पुं० [सं०] ऐसा मंत्र जिसके अंत में स्वाहा हो। |
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स्त्री-भय :
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वि० [सं०] १. जनाना। २. जनखा। |
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स्त्री-रत्न :
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स्त्री० [सं०] लक्ष्मी। |
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स्त्री-राज्य :
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पुं० [सं०] ऐसी राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था जिसमें सब प्रकार के अधिकार और कार्य स्त्रियों के हाथों में ही रहते हों, पुरुषों के हाथ में कुछ भी सत्ता न रहती हो। (जाइनार्की) |
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स्त्री-लिंग :
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पुं० [सं०] १. हिंदी व्याकरण में दो लिंगो में से एक जो स्त्री जाति का अथवा किसी शब्द के अल्पार्थक रूप का वाचक होता है। (फैमिनिन) जैसे—लड़का का स्त्रीलिंग लड़की या छुरा का स्त्री० लिंग छुरी है। २. स्त्री का चिह्न अर्थात भग या योनि। |
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स्त्री-वश (श्य) :
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वि० [सं०] (पुरुष) जो स्त्री के वश में हो। |
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स्त्रीवार :
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पुं० [सं०] सोम, बुध और शुक्रवार। (ज्योतिष में चंद्र, बुध और शुक्र ये तीनों स्त्री ग्रह माने गये हैं, अतः इनके वार भी स्त्री वार कहे जाते हैं। |
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स्त्री-वास (सस्) :
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पुं० [सं०] ऐसा वस्त्र जो रतिबंध या संभोग के समय लिए उपयुक्त हो। |
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स्त्री-विषय :
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पुं० [सं०] संभोग। मैथुन। |
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स्त्री-वण :
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पुं० [सं०] योनि। भग। |
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स्त्री-व्रत :
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पुं० [सं०] अपनी स्त्री के अतिरिक्त दूसरी स्त्री की कामना न करना। एक स्त्री—परायणता। पत्नी-व्रत। |
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स्त्री-संग :
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पुं० [सं०] संभोग। मैथुन। |
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स्त्री-संग्रहण :
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पुं० [सं०] किसी स्त्री से बलात संभोग करना। व्याभिचार। |
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स्त्री-संभोग :
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पुं० [सं०] स्त्री० प्रसंग। मैथुन। |
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स्त्री-सुख :
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पुं० [सं०] १. स्त्री का सुख। २. मैथुन। संभोग। ३. सहिजन। |
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स्त्री-सेवन :
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पुं० [सं०] संभोग। मैथुन। |
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