शब्द का अर्थ
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अग्नि :
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स्त्री० [सं०√अंग् (वक्रगति) +नि,नलोप) १. दे० आग। विशेष—कर्मकाण्ड में गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि, सम्याग्नि, आवसध्य और औपसनाग्नि छः प्रकार की अग्नियां मानी जाती है। २. शरीर का वह ताप जिससे शरीर के अंदर पाचन आदि क्रियाएँ होती हैं। जठराग्नि। वैद्यक में इसके तीन भेद हैं—भौम, दिव्य और जठर। ३. पूर्व और दक्षिण के बीच की दिशा या कोना। ४. कृत्तिका नक्षत्र। ५. क्षत्रियों का एक प्रसिद्ध वंश या कुल। ६. रहस्य संप्रदाय में (क) ज्ञान-प्राप्ति की प्रबल इच्छा या उससे होने वाली आकुलता, (ख) काम क्रोध आदि मनोविकार। (ग) सुषुम्ना नाड़ी। ७. सोना। ८. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ९. भिलावाँ। १. नीबू। |
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अग्निक :
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पुं० [सं० अग्नि कै (शब्द) +क] १. बीरबहूटी नामक कीड़ा। २. एक प्रकार का पौधा। ३. एक प्रकार का साँप। |
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अग्नि-कण :
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पुं० [ष० त०] चिनगारी। |
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अग्नि-कर्म (न) :
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पुं० [तृ० त० या स० त०] १. मृत व्यक्ति का जलाया जाना। अग्नि-दाह। २. हवन। ३. गरम लोहे से दागना। |
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अग्नि-कला :
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स्त्री० [ष० त०] अग्नि के ये दस अथवा या कलाएँ—धूम्रा, अर्चि, रूक्ष्मा, जलिनि, ज्वालिनि, विस्फुलिंगिनि, सुश्री, सुरूपा, कपिला और हव्यकव्यवहा। |
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अग्नि-कवच :
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वि० [ष० त०]=अग्नि-सह। |
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अग्नि-कांड :
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पुं० [ष० त०] दूर तक फैलनेवाली ऐसी आग जो अत्यधिक नाशक हो। जैसे—गाँव, शहर या वन में लगने वाली आग। (कॉनफ्लेगरेशन) |
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अग्नि-कीट :
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पुं० [ष० त०] १. जुगनूँ (कीड़ा) २. एक प्रकार का कल्पित कीड़ा जिसके संबंध में यह माना जाता है कि वह अग्नि में रहता है। |
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अग्नि-कुंड :
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पुं० [ष० त०] वह कुंड जिसमें आग जलाई जाए। हवन-कुंड। |
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अग्नि-कुमार :
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पुं० [ष० त०] १. कार्तिकेय। षडानन। २. एक प्रकार आयुर्वेदिक औषध जो मन्दाग्नि, श्वास आदि में लाभदायक माना जाता है। |
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अग्नि-कुल :
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पुं० [ष० त०] क्षत्रियों का एक वंश जिसकी उत्पत्ति अंश से मानी जाती है। |
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अग्नि-केतु :
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पुं० [ष० त०] १. शिव का एक नाम। २. रावण की सेना का एक राक्षस। |
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अग्नि-कोण :
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पुं० [ष० त०] पूर्व और दक्षिण दिशाओं के बीच का कोना। |
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अग्नि-क्रिया :
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स्त्री० (तृ० त०) मृतक का दाह-कर्म। मुरदा या शव जलाना। |
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अग्नि-क्रीड़ा :
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स्त्री० (तृ० त) आतिशबाजी। |
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अग्नि-गर्भ :
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वि० [ब० स०] जिसके गर्भ या भीतरी भाग में अग्नि हो। जैसे—अग्नि पर्वतन=ज्वालामुखी। पुं० १. आतिशी शीशा। २. सूर्यकान्त मणि। ३. शमी वृक्ष। |
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अग्नि-चक्र :
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पुं० [ष० त०] १. आग का चक्कर या गोला। २. हठ योग में एक त्रिकोण चक्र जो पायु और उपस्थ के मध्य भाग में है। इसी में वह स्वयंभूलिंग है, जिससे कुंडलिनि साँप की तरह लिपटी रहती है। |
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अग्निज :
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वि० [सं० अग्नि √जन्+ड] १. जिसका जन्म आग से हुआ हो। २. पाचन शक्ति बढ़ाने वाला। अग्नि-दीपक। ३. अग्नि या उसके ताप से बनने वाला। (इग्नियस) |
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अग्नि-जन्मा (न्मन्) :
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पुं० [ब० स०]=अग्निजात। |
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अग्नि-जात :
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वि० [पं० त०] अग्नि या आग से उत्पन्न। पुं० १. अग्निजार वृक्ष। २. सुवर्ण। ३. कार्तकेय। ४. विष्णु। |
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अग्नि-जिह्व :
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वि० [ब० स०] अग्नि ही जिसकी जीभ हो। पुं० [ब० स०] १. देवता। २. वराह रूपधारी विष्णु। |
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अग्नि-जिह्या :
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स्त्री० [ष० त०] १. आग की लपट। २. पुराणों के अनुसार अग्नि की सात जिह्वाएँ या ज्वालाएँ। यथा—काली, कराली, मनोजवा, लोहिता, धूम्रपर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरूपी। |
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अग्निजीवी (विन्) :
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पुं० [सं० अग्नि √जीव् (जीना)+णिनि] वे व्यक्ति जिनकी जीविका अग्नि संबंधी कार्यों से चलती है। जैसे—सुनार, लोहार, रसोइया, शीशा बनानेवाला आदि। |
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अग्नि-दंड :
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पुं० (तृ० त०) १. अपराधी को आग में चलाने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार का दिया जाने वाला दंड या सजा। |
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अग्नि-दग्ध :
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वि० (तृ० त०) आग से जलाया हुआ। पुं० पितरों का एक वर्ग। |
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अग्नि-दमनी :
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स्त्री० [ष० त०] १. एक प्रकार का क्षुप। २. मकोय। |
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अग्नि-दाता (तृ) :
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पुं० [ष० त०] मृतक का दाह कर्म करनेवाला व्यक्ति। जैसे—पुत्र, भाई आदि। |
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अग्नि-दान :
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पुं० [ष० त०] मृतक को जलाने के लिए उसकी चिता में आग लगाना। दाह-संस्कार |
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अग्नि-दिव्य :
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पुं० [तृ० त०]=अग्नि-परीक्षा। |
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अग्नि-दीपक :
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वि० [ष० त०] पाचन-शक्ति या भूख बढ़ानेवाला। |
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अग्नि-दीपन :
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पुं० [ष० त०] पाचन-शक्ति को बढ़ानेवाली औषधि, उपचार या क्रिया। |
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अग्नि-दूत :
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पुं० [ब० स०] १. देवता। २. यज्ञ। |
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अग्नि-नेत्र :
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पुं० [ब० स०] देवता। |
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अग्नि-पक्व :
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वि० [स० त०] आग पर रखकर पकाया हुआ (खाद्य पदार्थ)। |
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अग्नि-परिग्रह :
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पुं० [ष० त०] अग्निहोत्र का व्रत लेना। |
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अग्नि-परीक्षा :
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स्त्री० [तृ० त०] १. आग को हाथ में लेकर अथवा आग में से निकलकर अपने को निर्दोष सिद्ध करने की क्रिया या भाव। (सत्यासत्य की परीक्षा का एक पुराना प्रकार) २. धातुओं को आग में तपाकर उनकी शुद्धता की जाँच करना। ३. बहुत ही कठिन तथा विकट परीक्षा। |
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अग्नि-पर्वत :
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पुं० [मध्य० स०] ज्वालामुखी पहाड़। |
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अग्नि-पुराण :
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पुं० [मध्य० स०] अठारह पुराणों में से एक जिसमें अग्नि और उसके देवता का माहात्म्य वर्णित है। |
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अग्नि-पूजक :
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पुं० [ष० त०] १. वह जो आग की पूजा करता है। २. पारसी। |
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अग्नि-प्रतिष्ठा :
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स्त्री० [ष० त०] धार्मिक कृत्यों के आरम्भ में पूजा के लिए अग्नि की स्थापना करना। |
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अग्नि-प्रवेश :
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पुं० (स० त०) १. अग्नि-परीक्षा के लिए अग्नि में प्रवेश करने की क्रिया या भाव। जैसे—सीता जी का अग्नि-प्रवेश। २. स्त्री० का मृत पति की चिता पर बैठना। सती होना। |
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अग्नि-प्रस्तर :
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पुं० [ष० त०] चकमक पत्थर। |
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अग्नि-बाण :
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पुं० [मध्य० स०]=अग्नि-बाण। |
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अग्नि-बाव :
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पुं० [सं० अग्नि-वायु] १. घोड़ों तथा दूसरे चौपायों को होनेवाला एक रोग। २. जुड़-पित्ती नामक रोग। |
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अग्नि-बाहु :
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पुं० [ष० त०] १. धूआँ। धूम। २. [सं० ब० स०] मनु का एक पुत्र। स्वायंभुव। |
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अग्नि-बीज :
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पुं० [ष० त०] सोना। स्वर्ण। |
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अग्निभ :
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पुं० [सं० अग्नि√भा (दीप्ति) +क] १. सोना। स्वर्ण। २. कृत्तिका नक्षत्र। वि० अग्नि की तरह काला रंग का। |
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अग्निभू :
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पुं० [सं० अग्नि√भू (होना) +क्विप्] १. रगड़ से अग्नि उत्पन्न करने की क्रिया। २. जल। पानी। ३.सोना। स्वर्ण। |
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अग्निमंथ :
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पुं० [सं० अग्नि√मन्थ् (मथना+घञ)] १. रगड़ से अग्नि उत्पन्न करने की क्रिया। २. अरणी नामक वृक्ष जिसकी लकड़ियों को रगड़कर आग जलाई जाती है। |
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अग्निमंथन :
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पुं० [सं० अग्नि√मन्थ्+ल्युट्] दो चीजों को रगड़कर उनसे अग्नि उत्पन्न करना। |
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अग्नि-मणि :
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पुं० (मध्य० स०) १. सूर्यकान्त मणि। २. चकमक पत्थर। ३. आतशी शीशा। |
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अग्नि-मथ् :
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पुं० [सं० अग्नि√ मन्थ्+क्विप्] १. यज्ञ में वह व्यक्ति जो रगड़ से अग्नि उत्पन्न करता था। २. यज्ञ के लिए रगड़ से अग्नि उत्पन्न करते समय पढ़ा जाने वाला मंत्र। ३. अरणी नामक वृक्ष की लकड़ी जिसकी रगड़ से अग्नि उत्पन्न की जाती थी। |
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अग्नि-मांद्य :
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पुं० [ष० त०] भूख कम लगने का रोग। मंदाग्नि। |
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अग्नि-मित्र :
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पुं० [ष० त०] शुंग वंश का एक राजा जो पुष्यमित्र का पुत्र था। |
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अग्नि-मुख :
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पुं० [ब० स०] १. देवता। २. ब्राह्मण। ३. प्रेत। ४. भिलावाँ। ५. चित्रक वृक्ष। चोता। ६. जवाखार, सज्जी, चित्रक आदि से बनाया हुआ एक चूर्ण। (वैद्यक) |
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अग्नि-युग :
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पुं० (मध्य० स०) ज्योतिष-संबंधी पाँच वर्षों का एक युग। ज्योतिष में पाँच-पाँच वर्षों के बारह युगों में से एक। |
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अग्नि-रेता (तस्) :
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पुं० (ष० त०) सोना। स्वर्ण। |
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अग्नि-लिंग :
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पु० [ष० त०] अग्नि की लपटें देखकर शुभाशुभ फल बताने की विद्या। |
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अग्नि-लोक :
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पुं० [ष० त०] पुराणों के अनुसार सुमेरू पर्वत के आस-पास का प्रदेश। |
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अग्निवंश :
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पुं०=अग्निकुल। |
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अग्नि-वधू :
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स्त्री० (ष० त०) अग्नि की पत्नी, स्वाहा। |
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अग्नि-वर्चस् :
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वि० [ब० स०] जिसमें आग जैसी चमक हो। पुं० अग्नि का तेज। |
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अग्नि-वर्ण :
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वि० [ब० स०] आग के समान लाल वर्णवाला। |
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अग्नि-वर्त्त :
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पुं० [सं० अग्नि√ वृत् (बरतना) +णिच्+घञ्) पुराणानुसार एक प्रकार का मेघ। |
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अग्नि-वर्द्धक :
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वि० [ष० त०] पाचन शक्ति बढ़ानेवाला। |
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अग्नि-वर्द्धन :
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पुं० [ष० त०] पाचन शक्ति बढ़ाने की क्रिया या भाव। |
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अग्नि-वर्षा :
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स्त्री० [ष० त०] १. आग या जलती हुई वस्तुएँ बरसाना। २. अत्यधिक गोलियाँ आदि चलना। |
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अग्निरोहिणी :
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स्त्री० [सं० अग्नि√रुह् (उत्पन्न होना) +ल्युट्-डीप्) एक रोग जिसमें संधि स्थान में फफोले निकल आते है। (वैद्यक) |
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अग्नि-वाण :
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पुं० [मध्य० स०] बाण जिसे चलाने से आग बरसती हो। |
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अग्नि-वाह :
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वि० [अग्नि√ वह्+अण्] अग्नि ले जाने वाला। पुं० १. धुआँ। २. बकरा। ३. अग्नि को ले जाने वाली वस्तु। |
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अग्निविद् :
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पुं० [सं० अग्नि√ विद् (लाभ) + क्विप्] अग्निहोत्री। |
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अग्नि-विद्या :
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स्त्री० (ष० त०) १. अग्निहोत्र। २. सूर्य, मेघ, पृथ्वी पुरुष और स्त्री० संबंधी बातों का ज्ञान या विद्या। (उपनिषद्) |
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अग्नि-बिन्दु :
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पुं० [ष० त०] चिनगारी। स्फुलिंग। |
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अग्नि-वीर्य :
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वि, [ब० स०] १. जिसमें अग्नि के समान तेज हो। २. शक्तिशाली। पुं० [ष० त०] १. अग्नि की शक्ति या तेज। २. सोना। स्वर्ण। |
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अग्नि-शाला :
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स्त्री० [ष० त०] स्थान, जहाँ यज्ञ की अग्नि स्थापित की जाए। |
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अग्नि-शिख :
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पुं० [ब० स०] १. कुसुम का पौधा। २. केसर। ३.सोना। स्वर्ण। ४. दीपक। ५. तीर। |
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अग्नि-शिखा :
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स्त्री० [ष० त०] १. अग्नि की ज्वाला, लपट या लौ। २. कलियारी नामक पौधा। |
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अग्नि-शुद्धि :
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स्त्री० (तृ० त) १. अग्नि के संयोग या स्पर्श आदि से किसी वस्तु को शुद्ध या पवित्र करना। २. दे० ‘अग्नि-परीक्षा’। |
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अग्निष्टोम :
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पुं० [ब० स०] वह यज्ञ जो स्वर्ग की कामना से किया जाता है। |
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अग्नि-ष्वात्ता :
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पुं० [ब० स०] १. पितरों का एक वर्ग। २. वह जो अग्नि, विद्युत आदि की विद्याएँ जानता हो। |
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अग्नि-संस्कार :
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पुं० (तृ० त०) १. मृत व्यक्ति का जलाया जाना। शव-दाह। २. परीक्षा या शुद्धि के लिए किसी वस्तु आदि का तपाया जाना। |
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अग्नि-सह :
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वि० [सं० अग्नि√ सह् (सहन करना) +अच्] (पदार्थ) जो अग्नि में पड़ने पर भी न जलता हो। अथवा जिस पर अग्नि का प्रभाव न पड़ता हो। (फायर प्रूफ) |
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अग्नि-साक्षिक :
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वि० [ब० स० कप्] १. जिसका साक्षी अग्नि हो। २. (कार्य) जो अग्नि को साक्षी बनाकर किया गया हो। |
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अग्नि-सात् :
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वि० [सं० अग्नि+साति] जो आग से जलकर भस्म हुआ हो। |
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अग्नि-सेवन :
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पुं० (ष०त०) जाड़े से बचने के लिए आग के पास बैठना। आग तापना। |
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अग्नि-स्तंभ :
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पुं० [ष० त०] १. वह मंत्र या औषधि जो अग्नि की दाहक शक्ति को रोकती है। २. उक्त काम के लिए मंत्र आदि का किया जानेवाला प्रयोग। |
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अग्नि-स्फुलिंग :
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पुं० [ष० त०] आग की चिनगारी। |
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अग्नि-होत्र :
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पुं० [सं० होत्र√ हु (देना-लेना) +त्र, अग्नि-होत्र, च० त०] एक प्रकार का वैदिक होम जो नित्य सबेरे और संध्या किया जाता है तथा जिसकी अग्नि सदा जलती हुई रखी जाती है। |
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अग्निहोत्री (त्रिन्) :
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पुं० [सं० अग्निहोत्र+इनि] वह जो नियमित रूप से अग्नि-होत्र करता हो। |
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