शब्द का अर्थ
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अनुकंपा :
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स्त्री० [सं० अनु√कंप्+अञ-टाप्] १. दूसरों का कष्ट या दुःख देखकर उनके प्रति मन में उत्पन्न होने वाली दया। (पिटी) २. सहानुभूति। पुं०=अण्ड। |
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समानार्थी शब्द-
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अनुकंपित :
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भू० कृ० [सं० अनु√कंप्+अञ-टाप्] जिसपर अनुकपा की गई हो। |
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अनुकंप्य :
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वि० [सं० अनु√कप्+ण्यत्] जिसपर अनुकंपा की जा सकती हो या की जाने को हो। |
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अनुक :
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वि० [सं० अनु+कन्] १. सहायक। २. आश्रित। ३. कामी कामुक। |
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अनुकथन :
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पुं० [सं० अनु√कथ् (कहना)+ल्युट्-अन] १. किसी के कथन के बाद या साथ किया जानेवाला कथन। २. क्रम-बद्ध वर्णन या व्याख्या। ३. बात-चीत। वार्तालाप। |
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अनुकरण :
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पुं० [सं० अनु√कृ (करना)+ल्युट्-अन] १. किसी को अगुआ या नेता मानकर उसके पीछे-पीछे चलना। अनुसरण करना। २. किसी को कुछ करते हुए देखकर वैसा ही काम करना। ३. किसी का कोई काम या चीज देखकर उसी की तरह किया जानेवाला काम या बनाई जानेवाली चीज। नकल। (इमिटेशन) |
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अनुकरणीय :
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वि० [सं० अनु√कृ+अनीयर्] १. जिसका अनुकरण करना उचित हो। २. (आदर्श या चरित्र) जो अनुकरण के योग्य हो। |
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अनुकर्त्ता (र्तृ) :
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वि० [सं० अनु√कृ+तृच्] १. अनुकरण करनेवाला अनुयायी। २. आदर्श पर चलनेवाला। ३. किसी की आज्ञा के अनुसार चलनेवाला। आज्ञाकारी। |
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अनुकर्म (न्) :
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पुं० [सं० प्रा० स०]=अनुकरण। |
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अनुकर्ष :
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पुं० [सं० अनु√कृष् (खींचना)+घञ्] १. खिंचाव। २. आकर्षण। ३. देवता का आवाहन। ४. कर्तव्य के पालन में होनेवाला विलंब। ५. रथ के नीचे का भाग। |
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अनुकर्षण :
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पुं० [सं० अनु√कृष्+ल्युट्-अन] १. आकर्षण। खिंचाव। २. आवाहन। |
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अनुकलन :
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पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० अनुकलित] दूसरे की कोई बात लेकर और उसे अपने अनुकूल बनाकर ग्रहण करना। (एडाप्टेशन) |
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अनुकल्प :
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पुं० [सं० प्रा० स०] १. आवश्यकता, उपयोगिता आदि के विचार से अथवा विवश होने पर दो वस्तुओं या बातों में से कोई एक बात या वस्तु चुनने का अधिकार, अवस्था या भाव। दो वस्तुओं या बातों में से कोई ऐसी वस्तु या बात जो चुनी जाने या गृहीत होने को है। जैसे—गेहूँ और चावल में से कोई एक पसंद कर लेने की स्थिति या स्वतंत्रता। २. वह बात या वस्तु जो किसी दूसरी बात या वस्तु के अभाव में उसके स्थान पर काम दे सके। (आल्टर्नेटिव)। |
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अनुकांक्षा :
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स्त्री० [सं० अनु√कांक्ष् (चाहना)+अ-टाप्]=आकांक्षा। |
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अनुकांक्षित :
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भू० कृ० [सं० अनु√कांक्ष्+क्त] जिसकी अनुकांक्षा या आकांक्षा की गई हो। इच्छित। |
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अनुकांक्षी (क्षिन्) :
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वि० [सं० अनु√कांक्ष+णिनि] अनुकांक्षा करने या चाहनेवाला। इच्छुक। |
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अनुकाम :
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वि० [सं० अत्या० स०] १. जो इच्छा के अनुकूल हो। रुचिकर। २. कामना करने या चाहनेवाला। ३. आसक्त। कामी। पुं० [प्रा० स०] सदिच्छा। |
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अनुकामी (मिन्) :
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वि० [सं० अनु√कम् (चाहना)+णिनि] १. स्वेच्छा से कार्य करने वाला। २. कामी। |
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अनुकार :
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पुं० [सं० अनु√कृ (करना)+घञ्]=अनुकरण। |
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अनुकारक :
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वि० [सं० अनु√कृ+ण्वुल्-अक] ज्यों की त्यों किसी की नकल करने वाला। नकलची। (इमीटेटर) |
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अनुकारी (रिन्) :
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वि० [सं० अनु√कृ+णिनि] १. अनुकरण करनेवाला। २. नकल करनेवाला। ३. आज्ञाकारी। ४. भक्त। |
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अनुकार्य :
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वि० [सं० अनु√कृ+ण्यत्] जिसका अनुकरण किया जा सकता हो या किया जाने को हो। |
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अनुकाल :
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वि० [सं० अत्या० स०] जो समय के अनुसार उचित या ठीक हो। सामयिक। |
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अनुकीर्तन :
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पुं० [सं० अनु√कृत् (जोर से शब्द करना)+ल्युट्-अन] १. कथन। २. वर्णन। |
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अनुकूल :
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वि० [सं० अत्या०स०] १. (व्यक्ति या परिस्थिति) जो इच्छा, रुचि या समय के अनुरूप या उपयुक्त हो। जैसे—अनुकूल वातावरण। २. किसी प्रकार की कार्य सिद्धि या उद्देश्य में सहायक होनेवाला। ३. उत्साहवर्धक। ४. लाभदायी।पुं० १. साहित्य में वह नायक जो एक ही विवाहित स्त्री से संबंध और प्रेम रखता हो। २. एक काव्यालंकार जिसमें प्रतिकूल बात से अनुकूल बात की सिद्धि का उल्लेख होता है। ३.विष्णु। क्रि० वि० ओर। तरफ। |
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अनुकूलता :
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स्त्री० [सं० अनुकूल+तल्-टाप्] अनुकूल होने की अवस्था या भाव। |
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अनुकूलन :
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पुं० [सं० अनुकूल+क्विप्+ल्युट्-अन्] १. किसी को अपने अनुकूल करना या बनाना। २. अपने आपको किसी के अनुकूल करना। |
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अनुकूलना :
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[सं० अनुकूलन] अनुकूल और फलतः पक्षमें करना। प्रसन्न करना। उदाहरण— फिर झूले नव वृत्तों पर अनुकूलें अलि अनुकूलें। निराला। अ० किसी के अनुकूल होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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अनुकूला :
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स्त्री० [सं० अनुकूल+टाप्] १. मौक्तिक माला नामक छंद का दूसरा नाम। २. दंती नामक वृक्ष। |
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अनुकृत :
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वि० [सं० अनु√कृ+क्त] [भाव० अनुकृति] १. जो किसी के अनुकरण पर बनाया गया हो। २. नकल किया हुआ। ३. नकली। |
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अनुकृति :
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स्त्री० [सं० अनु√कृ+क्तिन्] १. दूसरे को देखकर उसके अनुकरण पर वैसा ही किया हुआ काम। नकल। २. किसी की कोई चीज देखकर ज्यों की त्यों वैसी ही बनाई हुई चीज। (इमिटेशन) ३. साहित्य में एक अलंकार जिसमें एक ही वस्तु की किसी दूसरे के कारण से किसी अन्य वस्तु के अनुसार होने का वर्णन होता है। |
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अनुकृष्ट :
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वि० [सं० अनु√कृष् (खींचना)+क्त] १. खिंचा हुआ। आकृष्ट। २. आसक्त। |
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अनुक्त :
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वि० [सं० न-उक्त, न० त०] [स्त्री० अनुक्ता] जो उक्त अर्थात् कहा हुआ न हो। बिना कहा हुआ। |
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अनुक्त-निमित्त :
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वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० अनुक्त-निमित्ता] जिसके निमित्त या कारण का उल्लेख न हुआ हो। जैसे—अनुक्त निमित्ता विभावना। |
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अनुक्ति :
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स्त्री० [सं० न-उक्ति,न० त०] १. अनुक्त होने या न कहने की क्रिया या भाव। २. अनुचित या बुरी उक्ति का कथन। |
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अनुक्रम :
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पुं० [सं० अनु√कम् (गति+घञ्] [वि० अनुक्रमिक] १. ठीक और नियमित रूप से चलनेनाला क्रम। सिलसिला। २. लगातार एक के बाद एक होने की क्रिया या भाव। ३. लगातार एक के बाद दूसरे के आने का क्रम। (सीक्वेन्स) |
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अनुक्रमण :
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पुं० [सं० अनु√कम्+ल्युट्-अन] १. सिलसिला बाँधकर चलना। २. किसी के पीछे चलना। ३. पीछे की ओर चलना। |
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अनुक्रमणिका :
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स्त्री० [सं० अनुक्रमण-ङीष्+कन्,ह्रस्व,टाप्] १. अनुक्रम। सिलिसिला। २. किसी ग्रन्थ या पुस्तक में आये हुए विषयों अथवा मुख्य शब्दों की वह सूची जो उसके अंत में अक्षर-क्रम से दी जाती है। (इन्डेक्स) |
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अनुक्रांत :
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भू० कृ० [सं० अनु√कम्+क्त] १. उल्लंघन किया हुआ। २. क्रमपूर्वक किया हुआ। ३. उल्लेख किया हुआ। |
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अनुक्रिया :
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स्त्री० [सं० प्रा० स०] १.=अनुकृति। २. किसी कार्य या क्रिया के बाद अथवा उसके फलस्वरूप होनेवाली क्रिया। (रिऐक्शन) |
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अनुक्रोश :
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पुं० [सं० अनु√कुश् (आह्वान, रोदन)+घञ्] कृपा। दया। |
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अनुक्षण :
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क्रि० वि० [सं० अव्य०स०] १. हर क्षण में। प्रतिक्षण। २. निरंतर। लगातार। सतत। |
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