शब्द का अर्थ
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अपक :
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पुं० [सं० अप=जल] पानी (डि०) |
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समानार्थी शब्द-
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अपकरण :
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पुं० [सं० अप√कृ (करना)+ल्युट्-अन] १. अपकार करने की क्रिया या भाव। २. खराबी या बुराई करना। |
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अपकरुण :
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वि० [सं० ब० स०] जिसमें करुणा न हो अर्थात् निर्दय। |
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अपकर्ता (र्तृ) :
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पुं० [सं० अप√कृ (करना)+तृच्] १. अपकार करने या हानि पहुँचानेवाला। २. दुष्कर्म करनेवाला। दुष्कर्मी। |
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अपकर्म (न्) :
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पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित या बुरा काम। २. पाप। |
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अपकर्मा (मन्) :
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वि० [सं० ब० स०] बुरे कर्मों वाला। आचरण-भ्रष्ट। २. दूसरे की बुराई करनेवाला। |
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अपकर्ष :
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पुं० [सं० अप√कृ (खींचना)+घञ्ग्] १. नीचे या पीछे की ओर खींचना। २. घटाव या उतार होना। ३. पद, महत्त्व, मान-मर्यादा आदि में कमी होना। (डेरोगेशन) ४. पतन होना। |
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अपकर्षक :
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पुं० [सं० अप√कृष्+ण्युल्-अक] १. अपकर्ष करनेवाला। २. जिससे अपकर्ष होता हो। |
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अपकर्षण :
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पुं० [सं० अप√कृष्+ल्युट्-अन] १. अपकर्ष करने या होने की क्रिया या भाव। २. नीचे या पीछे की ओर खींचा जाना। ३. कमी या ह्वास करना। घटाना। |
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अपकर्षित :
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भू० कृ०=अपकृष्ट। |
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अपकलंक :
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पुं० [सं० प्रा० स०] ऐसा कलंक जो मिट न सके। |
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अपकल्मव :
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वि० [सं० ब० स०] १. पापरहित। २. निष्कलंक। |
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अपकषाय :
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दे० ‘अपकल्मष’। |
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अपकाजी :
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वि० [हिं० आप+काज] मुख्य रूप से अपने ही काम का ध्यान रखनेवाला। स्वार्थी। |
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अपकार :
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पुं० [सं० अप√कृ (करना)+घञ्] १. अहित करने या हानि पहुँचाने वाला कार्य या बात। उपकार का विपर्याय। २. अनुचित आचरण या व्यवहार। |
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अपकारक :
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वि० [सं० अप√कृ+ण्युल्-अक] [स्त्री० अपकारिका] अपकार करनेवाला। |
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अपकारिता :
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स्त्री० [सं० अपकारिन्+तल्-टाप्] १. अपकारी होने की अवस्था या भाव। २. अपकार। |
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अपकारी (रिन्) :
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वि० [सं० अपकार+इनि] [स्त्री० अपकारिनी] अपकार (खराबी या बुराई) करनेवाला। |
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अपकीरति :
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स्त्री०=अपकीर्ति। |
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अपकीर्ण :
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वि० =अवकीर्ण। |
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अपकीर्ति :
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स्त्री० [सं० प्रा० स०] कोई अनुचित काम करने पर होने वाला ऐसा अपयश या बदनामी जो पहले की अर्जित कीर्ति या यश के लिए घातक हो। अपयश। बदनामी। (इन्फेमी) |
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अपकृत :
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भू० कृ० [सं० अप√कृ (करना)+क्त] जिसका अपकार हुआ हो। ‘उपकृत’ का उल्टा। |
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अपकृति :
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स्त्री० [सं० अप√कृ+क्तिन्] १.=अपकीर्ति। २.=अपकार। |
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अपकृत्य :
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पुं० [सं० प्रा० स०] १. अनुचित या बुरा काम। २. अपकार। |
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अपकृष्ट :
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वि० [सं० अप√कृष् (खींचना)+क्त] १. जिसका अपकर्षण हुआ हो। २. जिसका महत्त्व या मान घट गया हो। ३. अधम। नीच। ४. घृणित। ५. बुरा। पुं० कौआ। |
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अपकृष्टता :
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स्त्री० [सं० अपकृष्ट+तल्-टाप्] १. अपकृष्ट अथवा पतित होने का गुण या भाव। २. अधमता। नीचता। ३. दोष। बुराई। |
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अपकेंद्री (द्रिन्) :
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वि० [सं० अप-केन्द्र, प्रा० स०+इनि] १. केंद्र से निकलकर अलग या दूर हटनेवाला। २. जिसीक क्रिया या शक्ति अपने केन्द्र या मूल से हटकर बाहर या किसी विपरीत दिशा की ओर प्रवृत्त हो। (सेन्ट्रीफ्यूगल) |
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अपक्रम :
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पुं० [सं० अप√क्रम (गति)+घञ्] १. बदला, बिगड़ा या उलटा क्रम। २. उचित, उपयुक्त या ठीक क्रम का अभाव। वि० [प्रा० ब०] जिसका क्रम बिगड़ा हुआ हो। |
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अपक्रमण :
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पुं० [सं० अप√क्रम+ल्युट्-अन] १. अपक्रम करने की क्रिया या भाव। २. अपना असंतोष, रोष या विरोध प्रकट करते हुए सभा, समिति आदि का बहिष्कार करना। (वाक आउट) |
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अपक्रमी (मिन्) :
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वि० [सं० अप√क्रम+णिनि] १. अपक्रमण करनेवाला। २. पीछे लौटनेवाला। ३. भाग जानेवाला। भगोड़ा। |
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अपक्रिया :
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स्त्री० [सं० अप√कृ+श-इयङ-टाप्] १. दूषित या बुरी क्रिया या कर्म। २. अनुचित या हानिकारक व्यवहार। ३. ऋण-परिशोध। |
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अपक्रोश :
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पुं० [सं० अप√क्रुश् (बुलाना, रोना)+घञ्] १. बहुत अधिक चीखना चिल्लाना। २. कटु वचन कहना। ३. गाली देना। निंदा करना। |
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अपक्व :
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वि० [सं० न० त०] १. (अनाज, फल आदि) जो पका या पकाया न हो। कच्चा। २. जिसेक पकने, पूरे या ठीक होने में अभी कुछ करस या विलंब हो। (इम्मेच्योर) ३. जिसका पूर्ण विकास न हुआ हो। जैसे—अपक्व बुद्धि। ४. अकुशल। |
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अपक्व-कलुष :
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पुं० [सं० कर्म० स०] १. शैव दर्शन के अनुसार सकल के दो भेदों में से एक। २. [ब० स०] ऐसा बद्वजीव जो संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करता हो। |
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अपक्वता :
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स्त्री० [सं० अपक्व+तल्-टाप्] अपक्व होने की अवस्था या भाव। कच्चापन। |
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अपक्ष :
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वि० [सं० न० ब०] १. जो किसी के पक्ष या दल में न हो। जो समाज में औरों के साथ मिलकर न रहता हो। २. जिसके पक्ष (पंख या पर) न हों। |
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अपक्षपात :
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पुं० [सं० न० त०] पक्षपात न करने का भाव। निष्पक्षता। |
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अपक्षपाती (तिन्) :
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वि० [सं० न० त०] पक्षपात न करनेवाला। निष्पक्ष। |
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अपक्षय :
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पुं० [सं० अप√क्षि (क्षय)+अच्] १. छीजना। ह्रास। २. नाश। |
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अपक्षिप्त :
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वि० [सं० अप√क्षिप् (फेंकना)+क्त] १. गिराया, फेंका या पलटा हुआ। २. अवक्षिप्त। |
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अपक्षेप :
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पुं० [अप√क्षिप्+घञ्] १. गिराना, दूर हटाना या फेंकना। २. पीछे हटाना। पलटना। |
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अपक्षेपण :
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पुं० [सं० अप√क्षिप्+ल्युट्-अन] आक्षेप करने की क्रिया या भाव। |
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अपकृत-आश्रित-श्लेष :
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पुं० [कर्म० स०] श्लेष शब्दालंकार का एक भेद जिसमें प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों में श्लेष होता है। |
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