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शब्द का अर्थ

अर्गेथ  : पुं० [सं० अग्निमन्थ) अरनी का पेड़।
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अर्चित  : वि० [सं० न० ब०] १. (व्यक्ति) जिसे कोई चिन्ता न हो। फलतः निश्चित या बेफिक्र २. जिसका चिंतन न हो सके।
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अर्चितनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका चिंतन या कल्पना न हो सके। फलतः अज्ञेय या दुर्बोध। २. जिसका अनुमान न हो सके या न किया गया हो।
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अर्चिंतित  : वि० [सं० न० त०] १. जो पहले से सोचा या विचारा न गया हो। २. (व्यक्ति) जो चिंतित न हो निश्चित। ३. अप्रत्याशित। आकस्मिक। ४. उपेक्षित।
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अर्तें  : वि० [सं० इयत्] १. इतना। २. बहुत अधिक। उदाहरण— अर्तें रूप मूरति परगटी। पूनिऊँ ससि खीन होइ घटी।—जायसी।
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अरवेध  : पुं० [सं० प्रा० सं० ] ऐसा वेष जो उचित या उपयुक्त स्थान पर न हुआ हो।
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अर्या  : वि० [अ०] १. प्रकट। व्यक्त। २. खुला हुआ। स्पष्ट।
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अरंग  : पुं० [हिं० अ+रंग] १. बुरा या खराब रंग-ढंग। २. दुर्दशा। उदाहरण—ब्याधि के अरंग ऐसे ब्यापि रहयौ आधौ अंग।—सेनापति। पुं० [सं० रंग ?] महक। सुगंध। उदाहरण—रूप के तरंगन के अंगन ते सौंधे के अरंग लै उठै पौन की।—देव।
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अरंगी (गिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. रंग-रहित। २. राग-रहित।
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अरंड  : पुं०=एरंड (रेंड)।
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अरंधन  : पुं० [सं० न० त०] सिंह संक्राति तथा कन्या संक्रांति को किया जानेवाला एक व्रत।
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अरंभ  : पुं० =आरंभ। पुं० [सं० रंभ] १. हलचल। २. नाद। शब्द। ३.शोर। हल्ला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरंभना  : अ० [सं० आ√र्मभ्-श्बद करना] १. बोलना। नाद करना। २. रंबाना। स० [सं० आरम्भ] आरंभ या शुरू करना। अ० आरंभ या शुरू होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अर  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+अच्] १. पहिये की नाबि और नेमि के बीच की आड़ी लकड़ी। आरी। २. कोना। कोण। ३. सेवार। ४. चकवा पक्षी। ५. पित्तपापड़ा। वि० १. तेज। २. थोड़ा। अव्य० जल्दी से। शीघ्रता से। स्त्री० -अड़ (जिद या हठ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरइल  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष। वि०=अडियल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरई  : स्त्री० [सं० ऋ-जाना] बैल हाँकने की वह छड़ी जिसके सिरे पर नुकीला लोहा लगा रहता है।
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अरक  : पुं० [अ० अरक़] वनस्पति आदि का वह सत्त्व सार जो भभके से खींच कर निकाला जाता है। २. निचोड़कर या पकाकर बनाया हुआ रस। ३. पसीना। स्वेद। पुं० [सं० अर+कन्] १. सूर्य। २. मदार नामक पौधा। ३. पानी में होनेवाली सेवार नामक घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरकगीर  : पुं० [अ० अरक-पसीना+फा० गीर (प्रत्यय)] घोड़े की पीठ पर चारजामें के नीचे रखा जानेवाला नमदा।
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अरकटी  : पुं० [हिं० आर+काटना] नाव की पतवार सँभालनेवाला। माँझी।
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अरकना  : अ० [अनु०] १. अरराकर गिरना। २. टकराना। ३. फटना। ४. जोर से बोलना। पद—अरकना-बरकना=(क) व्यर्थ की तथा अत्यधिक बातें करना। (ख) इधर-उधर करना। टाल-मटोल करना। (ग) खींचातानी करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरक नाना  : पुं० [अ० अरक+नअनअ-पुदीना] सिरके में मिलाकर तैयार किया हुआ पुदीने का अरक या रस।
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अरकला  : पुं० [सं० अर्गल-अगरी या बेड़ा] १. रोक। रुकावट। २. मर्यादा। वि० रोकने या रुकावट करनेवाला।
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अरकसी  : स्त्री० [सं० आलस्य] आलस्य। सुस्ती। वि० [हिं० आलसी या आलसकी] आलस्य दिखाने या सुस्ती करनेवाला। सुस्त। उदाहरण
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अरकाटी  : पुं० [अरकाट (दक्षिण भारत का एक नगर)] वह ठेकेदार जो विदेशों में कुली , मजदूर आदि भेजने का काम करता है।
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अरकान  : पुं० [अ० रूक्न का बहु०] १. राज्य का प्रमुख अधिकारी। मंत्री। २. कारिंदा। गुमाश्ता। ३. उर्दू छंदों के मात्रारूप अक्षर। ४. वैभव। संपत्ति।
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अरकासार  : [?] १. तालाब। २. बाबली। (डिं०)
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अरकोल  : पुं० [सं० कौरीला] हिमालय में होने वाला लाकर नामक वृक्ष।
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अरक्षित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी रक्षा न की जाती हो अथवा न की गई हो। २. (वस्तु या व्यक्ति) जिसकी रक्षा करने वाला कोई न हो। ३. (स्थान) जिसकी सामरिक रक्षा का प्रबंध न हो।
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अरग  : पुं० दे० अर्घ। २. दे० ‘अरगजा’। अव्य० अलग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरगजा  : पुं० [?] कपूर, केसर, चंदन आदि द्रव्यों के मेल से बनाया जाने वाला एक विशिष्ट सुगंधित द्रव्य।
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अरगजी  : वि० [हिं० अरगजा] १. जिसका रंग अरगजे का सा हो। २. जिसकी सुगंध अरगजे जैसी हो। पुं० एक प्रकार का गहरा पीला रंग। (कैडमियम)
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अरगट  : वि० [हिं० अलगट] १. पृथक्। अलग। २. भिन्न। ३. निराला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरगन  : पुं० [अं० आर्गन] धौंकनी से बजनेवाला एक विलायती बाजा।
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अरगनी  : स्त्री० दे० ‘अलगनी’।
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अरगल  : पुं०=अर्गला।
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अरग्रवान  : पुं० [फा० अर्गवान] गहरे लाल या रक्त रंग वर्ण का फूल और उसका वृक्ष।
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अरग्रवानी  : वि० [फा० अर्गवानी] जिसका रंग गहरा लाल या रक्त हो।
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अरगाना  : अ० [हिं० अलगाना] १. अलग होना। पृथक् होना। २. किसी झगड़े से अलग होकर चुप रहना। उदाहरण—अस कहि राम हरे अरगई।—तुलसी। स० १. अलग या पृथक् करना। २. छाँटना।
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अरघ  : पुं० -अर्घ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरघट्ट  : पुं० [सं० अर√घट्ट (चलना)+अच्] १. रहट। २. कूँआ।
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अरघा  : पुं० [सं० अर्घ] १. एक प्रसिद्ध लंबोत्तर पात्र जिसमें जल रखकर अर्घ दिया जाता है। २. उक्त पात्र के आकार की वह रचना जिसमें शिवलिंग स्थापित किया जाता है। जलधरी। ३. उक्त आकार की वह नाली जिसमें से होकर कुएँ की जगत का पानी नीचे गिरता है।
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अरधान  : स्त्री० [सं० आघ्राण-सूँघना] गंध। महक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरधानी  : स्त्री० [हिं० अरघान]-अरघान। (सुगंध)। उदाहरण—बिसहर लुरहिं लेहिं अरघानी।—जायसी।
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अरचन  : पुं०=अर्चन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरचना  : स० [सं० अर्चन] अर्चन या पूजा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरचल  : स्त्री०=अड़चन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरचा  : स्त्री०=अर्चा।
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अरचि  : स्त्री० [सं० अर्चि] १. ज्योति। २. चमक। दीप्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरचित  : भू० कृ०=अर्चित।
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अरज  : पुं० [अ० अर्ज] चौड़ाई। पनहा। जैसे—कपड़े का अरज। स्त्री० [फा० अर्ज] नम्रतापूर्वक किसी से की हुई प्रार्थना। निवेदन। पद—अरज-गरज=आवश्यकता और उसके संबंध में की जानेवाली प्रार्थना।
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अरजना  : स० [सं० अर्जन] अर्जन या प्राप्त करना। स० [फा० अर्ज] अरज (निवेदन या प्रार्थना) करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरजम  : पुं० [देश०] कुंबी नामक वृक्ष।
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अरजल  : पुं० [अ० अर्जल] १. वह घोड़ा जिसका एक अगला (दाहिना) और दोनों पिछले पाँव एक रंग के हों। और अगला बायाँ पैर किसी और रंग का हो। ऐसा घोड़ा खराब माना जाता है। २. तुच्छ व्यक्ति। कमीना। नीच। ३. वर्ण-संकर।
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अरजस्क  : वि० [न० ब०, कप्] १. जिसमें रज या धूल न हो। २. स्वच्छ।
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अरजाँ  : वि० [फा० अर्जा] [भाव० अर्जानी] कम या थोड़े मूल्य का। सस्ता।
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अरजी  : स्त्री० [अ० अर्जी] वह पत्र जिसमें किसी अधिकारी से विनयपूर्वक प्रार्थना की गई हो। आवेदनपत्र। निवेदनपत्र। प्रार्थनापत्र। वि० गरज (निवेदन या प्रार्थना) करनेवाला। प्रार्थी।
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अरजुन  : पुं०=अर्जुन।
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अरझना  : अ०=उलझना।
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अरझा  : पुं० [देश०] घटिया जाति का सन। सनई। पुं० [हिं० अरुझना] १. उलझन। झमेला। २. झगड़ा। ३. झंझट। बखेड़ा।
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अरडींग  : वि० [?] बलवान् (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरणि  : स्त्री० [सं० √ऋ+अनि]=अरणी।
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अरणी  : पुं० [सं० अरणी+ङीष्] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. अग्नि नामक वृक्ष जिसकी लकड़ियों की रगड़ से आग जलाई जाती थी। ४. चीता नामक वृक्ष। ५. श्योनाक। सोना-पाढ़ा। ६. चकमक पत्थर।
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अरणी-सुत  : पुं० [सं० न० त०] शुक्रदेव।
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अरण्य  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+अन्य] १. वह विस्तृत भू-भाग जो वृक्षों और झाड़ियों से भरा हो। जंगल। वन। २. दशनामी संन्यासियों के दस भेदों में से एक। ३. कायफल।
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अरण्यक  : पुं० [सं० अरण्य+कन्] १. जंगल। वन। २. जंगल में रहनेवाला समाज।
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अरण्य-गान  : पुं० [सं० त०] १. वन में एकांत स्थान पर गाया जानेवाला गीत। २. लाक्षणिक अर्थ में, वह सुंदर काम या बात जिसे देखने-सुनने या समझनेवाला कोई न हो।
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अरण्य-चंद्रिका  : स्त्री० [सं० त०] ऐसी चंद्रिका (श्रंगार या शोभा) जिसे देखने या समझनेवाला कोई न हो।
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अरण्य-पंडित  : पुं० [सं० त०] वह जो वन (अर्थात् निर्जन स्थान) में ही अपना गुँ या पांडित्य प्रकट कर सके।
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अरण्य-पति  : पुं० [ष० त०] सिंह।
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अरण्य-मक्षिका  : स्त्री० [ष० त०] डाँस। मच्छर।
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अरण्य-यान  : पुं० [सं० त०] १. जंगल की ओर प्रस्थान करना। २. वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना।
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अरण्य-राज  : पुं० [ष० त०] सिंह।
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अरण्य-रोदन  : पुं० [सं० त०] ऐसी चिल्लाहट, पुकार या व्यथा निवेदन जिसकी ओर कोई ध्यान न देने वाला हो।
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अरण्य-विलाप  : पुं० [सं० त०]=अरण्य-रोदन।
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अरण्य-षष्टी  : स्त्री० [मध्य० स०] एक व्रत जो ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी को किया जाता है।
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अरण्यानी  : स्त्री० [सं० अरण्य+ङीष्, आनुक्] १. बहुत बड़ा वन। २. मरुस्थल। रेगिस्तान। ३. वन की देवी।
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अरण्यीय  : वि० [सं० अरण्य+छ-ईय] १. जंगलवाला। २. जो जंगल के निकट पास या समीप स्थित हो। पुं० वह भू-भाग जिसमें वन हो।
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अरत  : वि० [न० त०] १. जो किसी काम या रत या लगा हुआ न हो। २. जो अनुरक्त न हो। ३. विरक्त।
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अरति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. रत न होने की अवस्था या भाव। २. (किसी से) अनुराग या प्रीति न होना। (एपथी) ३.विरक्ति। ४. असंतोष। ५. आलस्य। सुस्ती। ६. व्यथा। ७. वह कर्म जिसका उदय होने पर किसी काम में मन न लगे। (जैन)
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अरत्नि  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+कत्नि, न० त०] १. बाहु। बाँह। २. कोहनी। ३. हाथ की बँधी हुई मुट्ठी। ४. कोहनी से लेकर कनिष्ठा के सिरे तक की नाप।
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अरथ  : पुं०=अर्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरथाना  : स० [सं० अर्थ] १. अर्थ या माने लगाना। २. विस्तारपूर्वक अर्थ या आशय बतलाना। पूरी व्याख्या करना। समझाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरथी  : पुं० [सं० अरथिन्] जो रथ पर सवार न हो। अर्थात् पैदल। पुं० [सं० रथ] वह तख्ता या सीढ़ी जिसपर मृत शरीर अंत्येष्टि क्रिया के लिए श्मशान ले जाया जाता है। रत्थी। रक्षी। वि०=अर्थी।
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अरदंड  : पुं० [देश०] एक प्रकार का करील (वृक्ष)।
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अरद  : वि० [सं० न० ब०] जिसके दाँत न हो। बिना दाँतोंवाला।
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अरदन  : वि० [सं० ] बिना दांत का। पुं०=अर्दन।
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अरदना  : स० [सं० अर्द्दन] १. कष्ट पहुँचाना। २. नष्ट करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरदल  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष।
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अरदली  : पुं० [अं० आँर्डली] वह चपरासी जो बड़े किसी अधिकारी के आगे-पीछे चलता हो और उसकी छोटी-छोटी आज्ञाओं का पालन करता हो। मुहावरा—(किसी के) अरदली में चलना या रहना=किसी के आगे या पीछे अनुचर बनकर चलना या रहना।
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अरदाना  : स० [सं० अर्दन] कुचलने का काम किसी दूसरे से कराना। अ० कुचला जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरदावा  : पुं० [सं० अर्द से फा० आर्द] १. दला या कूटा हुआ अन्न। २. किसी चीज का कुचला हुआ और नष्ट-भ्रष्ट रूप। ३. भर्ता या भुरता नाम का सालन। चोखा।
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अरदास  : स्त्री० [फा० अर्ज़दाश्त] १. निवेदन। प्रार्थना। उदाहरण—किय अरदासि ततांर तुच्छव रोज अज्ज रहो गेहे।—चंदवरदाई। २. कोई शुभकाम आरंभ करते समय किसी देवता से की जानेवाली मंगल कामना।
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अरधंग  : पुं०=अर्द्धांग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरधंगी  : स्त्री०=अर्द्धांगी।
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अरधंत  : अव्य० [सं० अधस्] नीचे। उदाहरण—अरधंत कवल उरधंत मध्ये प्राण पुरिस का बासा।—गोरखनाथ।
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अरध  : अव्य० [सं० अधः] १. अंदर। भीतर। २. नीचे। तले। वि० -अर्ध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरधाली  : स्त्री०=अर्द्धाली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरन  : पुं० [हिं० अड़न या अंग्रेजी आयरन-लोहा ?] एक तरह की निहाई जिसके एक ओर या दोनों ओर नोक निकली होती है। पुं०=अरण्य। स्त्री०=अड़न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरना  : पुं० [सं० अरण्य] भैसे की तरह का एक वन्य पशु। अ०=अड़ना।
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अरनी  : स्त्री० दे० ‘अरणी’।
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अरन्य  : पुं०=अरण्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरपन  : पुं०=अर्पण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरपना  : स० [सं० अर्पण] १. अर्पण करना। सौपना। २. भेंट करना। देना। अ० [?] आरूढ़ होना। चढ़ना। उदाहरण—फनी फनन पर अरपे डरपे नहिन नैकु तब।—नंददास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरपा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का मसाला।
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अरपित  : भू० कृ०=अर्पित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरब  : पुं० [सं० अर्बुद्ध] सौ करोड़ की सूचक संख्या। जो गिनती में से सौ करोड़ हो। पुं० [अ०] १. पश्चिमी एशिया का एक प्रसिद्ध रेगिस्तान देश। २. उक्त देश का निवासी। ३. उक्त देश का घोड़ा जो बहुत अच्छा और तेज होता है। पुं० [सं० अर्वन्] १. घोड़ा। २. इंद्र।
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अरबर  : वि० [अनु] १. ऊँचा-नीचा या टेढ़ा-मेढ़ा। बेढ़ंगा। २. असंबद्ध। ऊँट-पटाँग। ३. कठिन। विकट। स्त्री० व्यर्थ की ऊट-पटांग या धृष्टतापूर्वक बात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरबरना  : अ०=अरबराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरबरा  : वि० [अ०] १. इधर-उधर हिलते हुए। २. चंचल। ३. घबराया हुआ। विकल। ४. टक लगाकर या स्थिर दृष्टि से देखनेवाला। ५. प्रेम में मग्न या विहृल। उदाहरण—(क) ताकौं निरखि नैन अरबरे। (ख) बहुत सरद ससि माँहि अरबरे द्धै चकोर ज्यों।—नंददास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरबराना  : अ० [अनु] [भाव० अरबरी] १. व्याकुल होना। घबराना। २. चलने में लड़खड़ाना। ३. प्रेम मग्न या विह्वल होना। ४. तड़पना। ५. व्यर्थ की या उद्दंडतापूर्वक बातें करना। बड़बड़ाना। ६. जल्दी मचाना। हड़बड़ी करना।
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अरबरी  : स्त्री० [अनु०] १. घबराहट। २. बेचैनी। विकलता। ३. विह्वलता। ४. जल्दी। ५. भगदड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरबिस्तान  : पुं० [फा०] अरब देश।
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अरबी  : वि० [फा०] अरब देश में होनेवाला। अरब संबंधी। पुं० १. अरब देश का घोड़ा जो बहुत अच्छा माना जाता है। २. ताशा नामक वाद्य-वृंद। स्त्री० १. अरब देश की भाषा। २. वह लिपि जिसमें उक्त भाषा लिखी जाती है। स्त्री०=अरवी।
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अरबीला  : वि० [अनु०] १. तेज-पूर्ण। २. आन-बानवाला। ३. हठ करने या अड़नेवाला। हठी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरब्बी  : वि०=अरबी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरभक  : पुं०=अर्भक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरमण  : वि० [सं० न० ब०] १. जो रमण (मन-बहलाव) न कर सके। जिसमें मन न लगे, फलतः अरुचिकर, असंतोषजनक या कुरूप। २. जिसमें रमण न किया जा सके, फलतः बुरा।
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अरमनी  : वि० [फा० अर्मनी] आरमेनिया देश का या वहां रहनेवाला। पुं० आरमेनिया देश का निवासी। स्त्री० आरमेनिया देश की भाषा।
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अरमाण  : वि० [न० त०]=अरमण।
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अरमान  : पुं० [तु० अर्मान] १. मन में दबी हुई चाह या लालसा। मुहावरा—अरमान निकलना=लालसा पूरी होना। २. पछतावा। पश्चात्ताप।
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अरर  : अव्य० [अनु] विस्मय, विकलता, व्यग्रता आदि का सूचक अव्यय। पुं० [सं० ] १. कपाट। किवाड़। २. ढक्कन। ३. युद्ध। लड़ाई। ४. उल्लू-पक्षी। ५. मैनफल।
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अररना  : स० [अनु०] १. कुचलना, दलना या पीसना। २. बुरी तरह से नष्ट करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरराना  : अ० [अनु०] अरर शब्द करते हुए सहसा गिरना या टूटना।
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अररु  : पुं० [सं० √ऋ+अरू] १. शत्रु। २. एक प्रकार का शस्त्र।
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अरलु  : पुं० [सं० अर√ला (लेना)+कु] १. श्योनाक वृक्ष। सोना पाढ़ा। २. कडुवी लौकी। अलाबू।
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अरवन  : पुं० [सं० अ+हिं० लवना-फसल काटना] पहले पहल या कच्ची काटी जाने वाली फसल।
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अरवल  : पुं० [देश०] घोड़े कान के पास होने वाली एक भौंरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरवा  : पुं० [सं० अ-नहीं+हिं० लावना=जलाना, भूनना] धान को यों ही कूटकर, बिना उबाले निकाला हुआ चावल। ‘भुजिया’ का विरुद्धार्थक। पुं० [सं० आलय=स्थान] आला। ताखा।
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अरवाती  : स्त्री०=ओलती (छाजन की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरवाह  : स्त्री० [फा०] लड़ाई। झगड़ा। स्त्री० [अ० अर्वाह, रूह का बहुवचन] १. आत्माएँ। २. अप्सराएँ, देवदूत, भूत-प्रेत आदि।
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अरवाही  : वि० [फा०] झगड़ाली। लड़ाका।
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अरविंद  : पुं० [सं० अर√विद् (लाभ)+श] १. कमल। २. ताँबा। ३. सारस। (पक्षी)।
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अरविंद-नयन  : वि० पुं०=कमल-नयन।
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अरविंद-नाभ  : पुं० [ब० स० अच्] विष्णु।
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अरविंद-बन्धु  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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अरविंद योनि  : पुं० [ब० स०] ब्रह्मा।
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अरविंद-लोचन  : वि० पुं०=कमल-नयन।
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अरविंदाक्ष  : पुं० [अरविंद-अक्षि, ब० स०] विष्णु।
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अरविंदिनि  : स्त्री० [सं० अरविन्द+इनि-ङीष्] १. कमलों का समुदाय। २. कमलिनि।
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अरवी  : स्त्री० [सं० आलु] १. पान के पत्ते के आकार के बड़े-बड़े पत्तोंवाला कंद। २. उक्त कंद के लंबोत्तर फल जिनकी तरकारी बनाई जाती है। अरुई।
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अरस  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें रस न हो। बिना रस का। नीरस। २. बिना स्वाद का। फीका। ३. अनाड़ी। गँवार। पुं० रस का न होना। रस का अभाव। पुं० [सं० अलस] आलस्य। उदाहरण—पुनि सिंगार करि अरस नेवारी।—जायसी। पुं० [अ० अर्श-आकाश] १. आकाश। उदाहरण—सेनापति जीवन अधार निरधार तुम, जहाँ कौ ढरत तहाँ टूटत अरस तें।—सेनापति। २. स्वर्ग। ३. बहुत ऊँचा भवन। जैसे—घरहरा या महल। ४. कमरे की छत या पाटन।
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अरसथ  : पुं० [देश०] वह बही जिसमें मासिक आय-व्यय का लेखा लिखा जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरसन-परसन  : पुं०=अरस-परस।
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अरसना  : अ० [सं० अलस] १. आल्सय से युक्त होना। २. ढीला, मंद या शिथिल होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरसना-परसना  : स० [सं० स्पर्शन] १. स्पर्श करना। छूना। २. गले लगाना। आलिंगन करना। ३. अच्छी तरह देखना-भालना। (क्व०)।
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अरस-परस  : पं० [सं० दर्शन+स्पर्शन] १. हाथ से छूना। स्पर्श करना। २. दर्शन और अंगस्पर्श। ३. ब्रज में लड़कों का एकखेल। (कदाचित आँखमिचौनी)।
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अरसा  : पुं० [अ० अर्सः] १. काल। समय। जैसे—इसी अरसे में वह भी आ पहुँचा। २. अधिक समय़। बहुत दिन। जैसे—अरसे से आप का खत नहीं आया। ३. देर। विलंब। ४. शतरंज की बिसात।
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अरसात  : पुं० [सं० अलस=आलस्य] एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सात भगण और एक रगण होता है।
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अरसाना  : अ० [सं० अलस] १. आलस्य से युक्त होना। २. आलस या सुस्ती करना। अलसाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरसिक  : वि० [सं० न० त०] १. जो रसिक (प्रेम का मर्मज्ञ) न हो। रूखा। २. जिसे किसी विशिष्ट विषय, विशेषतः काव्य, श्रंगार, संगीत आदि में रस न मिलता हो। रूखे स्वभाववाला।
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अरसी  : स्त्री० १. =अलसी। २. =आरसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरसीला  : वि० [सं० अलस] [स्त्री० अरसीली] आलस्यपूर्ण। आलस्य से भरा हुआ। जैसे—अरसीली मुद्रा। वि० [हिं० अ+रसीला] १. जिसमें रस या स्वाद न हो। २. अरसिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरसौहा  : वि० [हिं० अरस-आलस्य+औंहाँ(प्रत्यय)] आलस्य से भरा हुआ। जैसे—अरसौंहें नैन।
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अरस्तू  : पुं० [अ०] यूनान का एक प्रसिद्ध विद्वान और दार्शनिक (३८४-३२२ ई० पू०)। (अरिस्टाटल)
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अरहंत  : पुं० दे०=अर्हत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरहट  : पुं० =रहट (कुएँ से पानी निकालने का)।
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अरहन  : पुं० [सं० रन्धन] तरकारी, साग आदि पकाते समय उसमें डाला या मिलाया जानेवाला आटा या बेसन। पुं० दे० ‘निहाई’।
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अरहना  : स० [सं० अर्हण] आराधन करना। पूजा करना। स्त्री० [सं० अर्हण] पूजा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरहर  : स्त्री० [सं० आढ़की, पा० अड्ढकी] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके दाने चने के दाल जैसे होते हैं। तुअर। २. उक्त पौधे के दाने जिनकी दाल बनाई जाती है।
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अरहस्  : पुं० [सं० न० त०] रहस्य या गुप्त भेद का अभाव।
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अरहित  : वि० [सं० न० त०] १. रहित का विपर्याय। २. भरा-पूरा। ३. संपन्न।
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अरहेड़  : स्त्री० [सं० हेड़] चौपायों का झुंड। (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरा  : स्त्री० [सं० अर+टाप्] गाड़ी के पहियों की वह चौड़ी पटरी जो पहियों की गड़ारी और पुट्ठी के बीच में जड़ी रहती है। उदाहरण—नवरस भरी अराएँ अविरल चक्रवाल को चकित चूमती।—प्रसाद। पुं०=आरा (लकड़ी चीरने का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अराअरी  : स्त्री० [हिं० अड़ना] १. एक दूसरे के सामने खड़े रहना। २. अ ड़। जिद। हठ। ३. लाग-डाँट। होड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अराक  : पुं०=इराक।
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अराकान  : पुं० [सं० अरि-राक्षस+सं० ग्राम, बरमी० कान=देश] बरमा देश का एक प्रांत जो भारतीय सीमा के पास पड़ता है।
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अराकी  : वि०=इराकी।
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अराग  : पुं० [न० त०] राग का अभाव। अ-रति। वि० [सं० न० ब०] राग से रहित।
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अरागी (गिन्)  : वि० [सं० न० त०] जिसमें राग (प्रेम, रंग, मनोविकार आदि) का अभाव हो।
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अराज  : वि० [सं० न० ब०] १. बिना राजा का (देश) २. क्षत्रियों से रहित। ३. दे० ‘अराजकता’।
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अराजक  : वि० [सं० न० ब० कप्] [भाव० अराजकता] १. शासक या शासन-हीन (राज्य या राष्ट)। २. जो शासक या शासन की सत्ता न मानता हो अथवा उसका उल्लंघन या विरोध करता हो। ३. विद्रोही या षड़यंत्रकारी। (अनार्किस्ट)
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अराजकता  : स्त्री० [सं० अराजक+तल्, टाप्] १. देश में राजा या शासक का न होना या न रह जाना। २. समाज की वह अवस्था जिसमें किसी प्रकार का तंत्र, विधि, व्यवस्था या शासन न रह गया हो। (अनार्की)
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अराजकता-वाद  : पुं० [ष० त०] वह सिद्धांत या मतवाद जो यह प्रतिपादित करता है कि शासन अभिशाप या पाप है, क्योंकि यह व्यक्तियों की स्वतंत्रता को कम करता है और उन पर तरह-तरह के बंधन लगाता है। (अनार्किज्म)
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अराजकतावादी (दिन्)  : वि० [सं० अराजकता√वद्(बोलना)+णिनि] अराजकतावाद का अनुयायी, प्रतिपादक या समर्थक।
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अराजन्य  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जो राजन्य या क्षत्रिय न हो। २. [न० ब०] (राज्य) जिसमें क्षत्रिय न हो।
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अराजी  : स्त्री० [अ० अर्ज का बहु०] १. धरती। भूमि। २. खेती बारी के काम में आनेवाली जमीन।
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अराड़  : पुं० [सं० अट्टाल] १. ढेर। राशि। २. काठ-कबाड़ अर्थात् टूटे-फूटे समान का बहुत बड़ा और ऊँचा ढेर। ३. वह दूकान या स्थान जहाँ जलाने की लकड़ी बिकती है।
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अराड़ना  : अ० [?] गर्भपात या गर्भ-स्राव होना। (पशुओं के लिए प्रयुक्त)
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अरात  : पुं० [सं० अराति] शत्रु। दुश्मन। उदाहरण—नहिं राती है प्रीति सौं है अरात पै रात।—रसनिधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अराति  : पुं० [सं०√रा (दान)+क्तिच्, न० त०] १. दुश्मन। शत्रु। २. शास्त्रों में, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर ये छः मनोविकार जो मनुष्य के सद्गुण और सुख नष्ट कर देते हैं। ३. उक्त के आधार पर छः की संख्या। ४. ज्योतिष में, जन्म-लग्न से छठा स्थान। विशेष गे० ‘अरि’।
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अराद्धि  : स्त्री० [सं० √राध्(सम्यक् सिद्धि)+क्तिन्, न० त०] १. दुर्भाग्य। २. विफलता। ३. अपराध। दोष। ४. पाप।
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अराधन  : पुं०=आराधन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अराधना  : स० [सं० आराधन] १. आराधना या उपासना करना। २. अर्चन, पूजा आदि करना। ३. मन में किसी का ध्यान करके कुछ मनाना। स्त्री० दे० ‘आराधना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अराधी  : पुं०=आराधक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अराना  : पुं०=अड़ाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अराबा  : पुं० [अ० अराबः] १. पुरानी चाल की गाड़ी या रथ। २. तोप लादने की गाड़ी। तोप-गाड़ी। (गन कैरज)
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अराम  : पुं०=आराम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरारूट  : पुं० [अ० एरोरूट] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके कंद को कूटकर सत्त निकाला जाता है। २. उक्त पौधे का सफेद सत्त जो छोटे दानों के रूप में होता और रोगियों के लिए पथ्य का काम देता है।
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अरारोट  : पुं०=अरारूट।
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अराल  : वि० [सं०√ऋ+विच्-अर-आ√ला+क] [स्त्री० अराला] १. टेढ़ा, तिरछा या वक्र। २. घुँघराला (जैसे—बाल) ३. अपवित्र। पुं० १. मतवाला या मस्त हाथी। २. राल। ३. सिर के बाल। केश।
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अरावल  : पुं०=हरावल।
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अरावली  : स्त्री० [सं० ] राजस्थान की एक प्रसिद्ध पहाड़ी।
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अरिंज  : पुं० [देश०] एक प्रकार का सफेद बबूल।
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अरिंद  : पुं० [सं० अरि-इंद्र] वैरी या शत्रु।
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अरि  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+इन्] [भाव अरिता] १. वह जो किसी को आघात या पीड़ा पहुँचावे, फलतः विरोधी या वैरी। २. शास्त्रों के अनुसार काम, क्रोध, मत्सर, मद, मोह और लोभ जो मनुष्य का परम अहित करते हैं। ३. उक्त छः दोषों के आधार पर छः की संख्या। ४. जन्म-कुंडली से लग्न से छठा स्थान, जहाँ से शत्रुभाव का विचार होता है। ५. वायु। ६. मालिक। ७. चक्र। ८. दुर्गंध खैर। विट्खदिर।
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अरि-केशी  : पुं० [ब० स०] केशी के शत्रु। कृष्ण।
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अरिध्न  : वि० [सं० अरि√हन् (हिंसा)+क] शत्रुओं का नाश करनेवाला। पुं० शत्रुघ्न।
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अरिता  : स्त्री० [सं० अरि+तल्-टाप्] शत्रुता। दुश्मनी।
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अरित्र  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+इत्र, न० त०] १. नाव खेने का डाँड़ा। २. वह डोरी जिससे जल की गहराई नापी जाती है। ३. जहाज या नाव का लंगर। वि० शत्रु से रक्षा करनेवाला।
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अरि-दमन  : वि० [ष० त०] शत्रु का नाश या दमन करनेवाला। पुं० शत्रुघ्न का एक नाम।
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अरिमर्दन  : वि० [सं० अरि√मृद् (मर्दन करना)+ल्युट्, उप० स०]-अरि-दमन।
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अरि-मेद  : पुं० [ब० स०] १. विट् खदिर। दुर्गध खैर। २. गँधिया नाम का बदबूदार कीड़ा।
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अरिया  : स्त्री० [देश०] मछली कानेवाली एक छोटी चिड़िया जो पानी के किनारे रहती है। ताक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरियाना  : स० [सं० अरे] अरे कहकर (अर्थात् तिरस्कारपूर्वक) बातें करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरिल्ल  : पुं० [सं० अरिला] सोलह मात्राओं का एक छंद जिसके अंत में दो लघु होते है।
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अरिवन  : पुं० [देश०] रस्सी का वह फँदा जिसमें घड़ा आदि फँसाया जाता है।
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अरिष्ट  : पुं० [सं०√रिष् (हिंसा)+क्त, त०] १. कष्ट। क्लेश। २. आपत्ति। विपत्ति। ३. अपशकुन। अशुभ लक्षण। ४. कोई प्राकृतिक उत्पात। जैसे—अग्नि-कांड, भूकंप आदि। ५. दुर्भाग्य। ६. लंका के एक पर्वत का नाम। ७. एक राक्षस जो श्रीकृष्ण के हाथों से मारा गया था। वृषभासुर। ८. बलि के पुत्र एक दैत्य का नाम। ९. रीठा। १. लहसुन। ११. नाम। १२. कौआ। १३. गिद्ध। १४. दही का मट्ठा। १५. सूतिका ग्रह। सौरी। १६. वैद्यक में एक प्रकार का पौष्टिक मद्य या मादक पेय पदार्थ। १७. ज्योतिष में, दुष्ट ग्रहों का एक योग जो मृत्युकारक माना गया है। १८. प्राचीन भारत की एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना। (क्व०) वि० १. दृढ़। पक्का। २. अविनाशी। ३. अशुभ।
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अरिष्टक  : पुं० [सं० अरिष्ट+कन्] १. रीठा। २. निर्मली।
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अरिष्ट-गृह  : पुं० [ष० त०] प्रसव-गृह। सौरी।
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अरिष्टमनेमि  : पुं० [सं० ] १. सोलहवें प्रजापित का नाम। २. राजा सगर के श्वसुर का नाम। ३. कश्यप का एक पुत्र। ४. जैनों के बाइसवें तीर्थकार का नाम।
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अरिष्टमतन  : पुं० [सं० अरिष्ट√मन्थ् (मथना)+णिच्+ल्यु-अन] १. शिव। २. विष्णु।
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अरिष्टसूदन  : पुं० [सं० अरिष्ट√सूद् (मारना)+णिच्ल्यु-अन] विष्णु।
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अरिष्टा  : स्त्री० [सं० अरिष्ट+टाप्] दक्ष प्रजापति की एक पुत्री जिसका विवाह कश्यप ऋषि से हुआ था।
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अरिष्टिका  : स्त्री० [सं० अरिष्ट+कन्, टाप्, इत्व] १. रीठा। २. कुटकी।
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अरिसूदन  : वि० [सं० अरि√सूद् (मारना)+णिच्ल्यु-अन] शत्रुओं का नाश करनेवाला।
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अरिहन  : पुं० [सं० अरिघ्न] शत्रुघ्न। वि० शत्रु का नाश करनेवाला। पुं० [सं० अर्हत्] १. जैनों के जिन देव। २. दे० ‘अरहन’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरिहा  : वि० [सं० अरि√हन् (हिंसा)+विच्] शत्रुनाशक। पुं० शत्रुघ्न। पुं० =अहित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरी  : अव्य० [हिं० अरे का स्त्री०] स्त्रियों के लिए संबोधन सूचक अव्यय। जैसे—अरी, तू कहाँ गई थी ?
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अरीठा  : पुं० [सं० अरिष्ट, प्रा० अरिट्ठा] रीठा।
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अरीत  : स्त्री० [हिं० अ+रीति] रीति के विरुद्ध होनेवाला आचरण। अनुचित या बुरा काम।
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अरीतिक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जो नियम रीति आदि के अनुसार न हो या न हुआ हो। २. जो औपचारिक न हो। शिष्टाचार रहित। ३. आपसी तौर पर होनेवाला। (इन-फाँर्मल, उक्त सभी अर्थों के लिए)।
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अरुंतुद  : वि० [सं० अरु√तुद्+खस्, मुम्] १. मर्मस्थान पर आघात करनेवाला। २. मन को दुःखी करनेवाला। ३. काटने, छेदने या घाव करनेवाला। पुं० बैरी । शत्रु।
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अरुंधती  : स्त्री० [सं० न० त०] १. वशिष्ठ मुनि की स्त्री। २. दक्ष प्रजापति की के कन्या जो धर्म को ब्याही गई थी। ३. सप्तर्षि मंडल का एक छोटा तारा। ४. तंत्र शास्त्र में, जिह्वा। जीभ।
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अरुंषिका  : स्त्री० [सं० अरूष्+ठन्, पृपो० मुम] रक्त के विकार से होनेवाला एक रोग जिसके कारण माथे और मुँह पर फोड़े निकल आते है।
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अरु  : अव्य० [सं० अपर] और। पुं० [सं०√ऋ (गति)+उन] १. लाल खैर। २. अर्क वृक्ष। ३. सूर्य। ४. जख्म। घाव। ५. कोमल अंग। ६. नेत्र। आँख।
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अरुआ  : पु० [सं० आलु] १. एक प्रकार का कंद जिसकी तरकारी बनती है। २. एक वृक्ष जिसकी लकड़ी ढोल, तलवार की म्यान बनाने के काम आती है।
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अरुई  : स्त्री०=अरवी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुगाना  : [सं० अनुगायन] अच्छी तरह समझाकर कोई बात कहना। उदाहरण—समौ पाय कहियो अरुगाई।—नंददास।
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अरुग्ण  : वि० [सं० न० त०] जो रुग्ण न हो। निरोग। तंदुरस्त।
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अरुचि  : स्त्री० [सं० न० त०] १. रुचि या प्रवृत्ति का अभाव। अनिच्छा। २. अग्निमांद्य नामक रोग। ३. दिलचस्पी न होना। रस न लेना। घृणा।
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अरुचि-कर  : वि० [सं० न० त०] जो रुचिकर न हो।
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अरुच्य  : वि० [सं० न० त०] =अरुचि-कर।
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अरुज  : वि० [सं० न० ब०] जिसे कोई रोग न हो। निरोग। पुं० १. अमलतास। २. केसर। ३. सिंदूर।
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अरुझना  : अ०=उलझना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुझाना  : स०=उलझाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुझाव  : पुं०=उलझन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुझैरा  : पुं० [हिं० अरुझना] उलझन। उदाहरण—नौ मन सूत अरुझि नहिं सुरझै जनम जनम अरुझेरा।—कबीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुट्ठ  : वि०=रूष्ट।
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अरुण  : वि० [सं०√ऋ (गति)+उनन्] [स्त्री० अरुणा भाव० अरुणता, अरुणिमा] लाल रंग का। रक्त वर्ण का। सुर्ख। पुं० [सं० ] १. गहरा लाल रंग। २. सूर्य। ३. बारह आदित्यों में से एक जिसका प्रकाश माघ महीनें में रहता है। ४. सूर्य का सारथी। ५. संध्या के समय पश्चिम में दिखाई देने वाली लाली। ६. कुंकुम। ७. सिंदूर। ८. उद्दालक ऋषि के पिता का नाम। ९. एक झील जो मदार पर्वत पर मानी गई है। १. एक प्रकार के पुच्छल तारे जिनकी चोटियाँ चँवर की तरह होती है। ११. एक प्रकार का कुष्ट रोग जिसमें शरीर का चमड़ा लाल हो जाता है। १२. पुन्नाग नामक वृक्ष।
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अरुण-कर  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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अरुण-किरण  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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अरुण-चूड़  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसकी चोटी या शिखा लाल हो। २. मुर्गा।
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अरुण-ज्योति (स्)  : पुं० [ब० स०] शिव।
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अरुणता  : स्त्री० [सं० अरुण+तल्-टाप्] १. अरुण होने की अवस्था या भाव। २. ललाई। लाली।
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अरुण-नेत्र  : पुं० [ब० स०] १. कबूतर। २. कोयल।
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अरुण-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. सूर्य की स्त्रियाँ छाया और संज्ञा। २. एक अप्सरा का नाम।
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अरुण-मल्लार  : पुं० [कर्म० स०] मल्लार राग का एक भेद जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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अरुण-शिखा  : पुं० [ब० स०] मुर्गा, जिसकी चोटी लाल होती है।
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अरुणा  : स्त्री० [सं० अरुण+अच्-टाप्] १. प्रातःकाल की पूर्व दिशा की लाली। २. उषा। ३. लाल रंग की गौ। ४. मंजीठ। ५. अतिविषा। ७. गोरखमुंडी। ८. निसोथ। ९. इंद्रायन। १. घुँघची। ११. एक प्राचीन नदी।
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अरुणाई  : स्त्री०=अरुणता (लाली)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुणाग्रज  : पुं० [अरुण-अग्रज, ब० स०] गरुड़।
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अरुणात्मज  : पुं० [अरुण-आत्मज, ष० त०] अरुण के पुत्र। जैसे—कर्ण, जटायु, यम, शनि, सुग्रीव आदि।
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अरुणात्मजा  : स्त्री० [सं० अरुणात्मज+टाप्] १. सूर्य की पुत्री। यमुना नदी। २. ताप्ती नदी।
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अरुणानुज  : पुं० [अरुण-अनुज, ष० त०] गरुड़।
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अरुणाभ  : वि० [अरुण-आभा, ब० स०] जो लाल आभा से युक्त हो। लाली दिये हुए।
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अरुणाभा  : स्त्री० [अरुण-आभा, कर्म० स०] सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय का सूर्य का मद्धिम प्रकाश। (ट्वाइलाइट)
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अरुणार  : वि०=अरुनारा।
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अरुणाश्व  : पुं० [अरुण-अश्व, ब० स०] मरुत्। वायु।
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अरुणित  : भू० कृ० [सं० अरुण+इतच्] १. जिसे लाल किया या बनाया गया हो। २. जिसमें लाली आ गयी हो।
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अरुणिमा  : स्त्री० [सं० अरुण+इमानिच्] अरुण होने का गुण या भाव। ललाई। लाली।
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अरुणोद  : पुं० [ब० स० अरुण-उदक, उद आदेश] १. जैनियों के अनुसार एक समुद्र जो पृथ्वी को आवेष्ठित किए है। २. लाल सागर।
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अरुणोदक  : पुं० [अरुण-उदय ब० स०]=अरुणोद।
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अरुणोदधि  : पुं० [अरुण-उदधि कर्म० स०] अरब और मिस्र के बीच का सागर। लाल सागर।
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अरुणोदय  : पुं० [अरुण-उदय, ब० स०] दिन निकलने से कुछ पहले का समय जब सूर्य की लाली दिखाई देने लगती है। उषाकाल। भोर। तड़का।
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अरुणोदय-सप्तमी  : स्त्री० [मध्य० स०] माद्य-शुक्ला सप्तमी।
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अरुणोपल  : पुं० [अरुण-उपल, कर्म० स०] पद्यराग मणि। लाल नामक रत्न।
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अरुन  : वि०=अरुण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुनई  : स्त्री०=अरुणाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुन-चूड़  : पुं०=अरुण चूड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुनता  : स्त्री०=अरुणता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुनशिखा  : पुं०=अरुणशिखा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुनाई  : स्त्री०=अरुणाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुनाना  : अ० [सं० अरुण] अरुण या लाल होना। स० अरुण या लाल करना।
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अरुनारा  : वि० [सं० अरुण] जिसका रंग लाल हो। लाल रंगवाला।
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अरुनोदय  : पुं० =अरुणोदय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुरना  : अ० [?] संकुचित होना। सिकुड़ना। उदाहरण—नीकी दीठ तूख सी, पतूख सी अरुरि अंग ऊख सी मसरि मुख लागति महूख सी।—देव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुराना  : स० [?] १. ऐंठना। मरोड़ना। २. सिकोड़ना। अ० =अरुरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरुवा  : पुं० [सं० अरु] १. एक लता जिसके पत्ते पान की लता के पत्तों के सदृश्य होते हैं। २. दे० अरुआ। पुं० [हिं० रुरुआ] उल्लू पक्षी।
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अरुषी  : स्त्री० [सं०√रूष् (क्रोध)+क, न० ब०, ङीष्] १. उषा। २. ज्वाला। ३. भृगु ऋषि की पत्नी का नाम।
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अरुष्क  : पुं० [सं० अरुस्√कै (पीड़ा)+क,०] १. भिलावाँ। २. अडूसा।
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अरुष्कर  : वि० [सं० अरुस्√कृ (करना)+ट] घात या हानि करनेवाला।
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अरुहा  : पुं० [सं०√रुह् (उत्पत्ति)+क-टाप्, न० त०] भुइँ-आँवला।
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अरुक्ष  : वि० [सं० न० त०] जो रुक्ष या रुखा न हो, फलतः कोमल या स्निग्ध।
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अरूक्षना  : अ०=उलझना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरूढ़  : वि०=आरूढ़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरूप  : वि० [न० ब०] १. जिसका कोई रूप या आकार न हो। निराकार। २. कुरूप। भद्दा। ३. असमान। पुं० १. [न० त०] १. रूप का अभाव। २. बुरी आकृति। ३. [न० ब०] वेदांत में ब्रह्म की एक संज्ञा।
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अरूपक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. जिसका कोई आकार या रूप न हो। २. रूपक अलंकार से रहित। पुं० योग की एक अवस्था जिसे निर्बीज समाधि भी कहते है।
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अरूपावचर  : पुं० [अरूप-अवचर, ब० स०] वह चित्तवृत्ति जिसमें अरूप लोक का ज्ञान प्राप्त होता है। (बौद्ध)
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अरूरना  : अ० [सं० अरूस्-घाव] दुःखी या पीड़ित होना। स०दुःखी या पीड़ित करना। अ० दे० ‘अरुरना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरूलना  : अ० [सं० अरूस्-क्षत, घाव] १. छिलना। २. छिदना। ३. क्षत-विक्षत होना। उदाहरण—छत आजु को देखि कहौगी कहा छतिया नित ऐसे अरूलति है।—देव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरूस  : पुं० दे०=अडूसा।
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अरूसा  : पुं०=अड़ूसा।
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अरे  : अव्य० [सं०√ऋ (गति)+ए] [स्त्री० अरी] १. संबोधन का शब्द। ए ! ओ ! २. आश्चर्यसूचक अव्यय।
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अरेणु  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें धूलि न हो। २. जिसे धूलि न लगी हो। स्त्री० [न० त०] धूलि का अभाव।
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अरेरना  : स० [सं० ऋ-जाना] रगड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरेहना  : स० [हिं० रेहना] १. रगड़ना। २. दे० ‘रेहना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरैली  : स्त्री० [?] एक प्रकार की झाड़ी, जिसकी पत्तियों से कागज बनाया जाता है।
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अरोक  : वि० [सं० अ+हिं० रोक] १. जिस पर रोक या नियंत्रण न लगा हो। २. जिसके आगे कोई रुकावट न हो। ३. जो रुकता न हो।
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अरोग  : वि० [सं० न० ब०] रोग रहति। नीरोग। पुं० [न० त०] रोग का अभाव। आरोग्य।
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अरोगना  : अ०=आरोगना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरोगी  : वि० [सं० न० त०] जो रोगी न हो। नीरोग। तंदुरस्त।
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अरोच  : स्त्री० -अरुचि। वि०=अरुचिकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरोचक  : पुं० [सं० न० त०] अग्निमांद्य रोग, जिसमें मुँह का स्वाद बिगड़ जाता है। वि० जो रोचक या रुचिकर न हो।
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अरोचकी (किन्)  : वि० [सं० अरोचक+इनि] अग्निमांद्य रोग से पीड़ित। (व्यक्ति)
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अरोड़  : वि० [सं० आरूढ़] शूरवीर। बहादुर। (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरोड़ा  : पुं० [सं० अरट्ट] खत्रियों की एक उप-जाति।
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अरोध्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो रोके जाने के योग्य न हो। जिसे रोका न जा सके। २. जिसे रोकना उचित न हो।
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अरोहन  : पुं०=आरोहण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरोहना  : अ० [सं० आरोहण] १. सवार होना। २. ऊपर चढ़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरोही  : वि० =आरोही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अरौद्र  : वि० [सं० न० त०] जो रौद्र न हो।
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अर्क  : पुं० [अर्च (पूजा)+घञ्, कुत्व] १. सूर्य। २. बारह आदित्यों या सूर्यों के आधार पर १२ की संख्या। ३. सूर्य का दिन या वार। रविवार। ४ सूर्य की किरण। ५. विष्णु। ६. इंद्र। ७. उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र। ८. पंडित। विद्वान। ९. बड़ा भाई। १. बिल्लौर। स्फटिक। ११. ताँबा। १२. आक या मदार नामक पौधा। १३. एक प्राचीन धार्मिक कृत्य। वि० १. आदरणीय या पूज्य। २. गुणों का गान करनेवाला। प्रशंसक। पुं० [अ० अरक] १. भभके से खींचा हुआ किसी चीज का रस। २. दे० ‘अरक’।
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अर्क-कर  : पुं० [ष० त०] सूर्य की किरण।
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अर्क-कांता  : स्त्री० [ष० त०] अड़हुल।
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अर्क-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] सिंह राशि।
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अर्क-चंदन  : पुं० [मध्य० स०] लाल चंदन।
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अर्कज  : पुं० [सं० अर्क√जन् (उत्पन्नहोना)+ड] १. सूर्य के पुत्र, यम। २. शनि। ३. अश्विनीकुमार। ४. सुग्रीव। ५. कर्ण। वि० सूर्य से उत्पन्न होने, निकलने या बननेवाला।
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अर्कजा  : स्त्री० [सं० अर्कज+टाप्] १. सूर्य की पुत्री, यमुना। २. ताप्ती नदी।
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अर्क-तूल  : पुं० [ष० त०] मदार या सेमल की रूई।
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अर्क-दिन  : पुं० [ष० त०] सौर दिन। रविवार।
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अर्क-नंदन  : पुं० [ष० त०] १. शनि-ग्रह। २. कर्ण। ३. यम।
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अर्क-नयन  : पुं० [ब० स०] विराट पुरुष जिसके नेत्र सूर्य और चंद्रमा है।
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अर्कनाना  : पुं० [?] सिरके के साथ मिलकर उतारा हुआ पुदीने का अर्क।
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अर्क-पत्र  : पुं० [ष० त०] आक या मदार के पत्ते।
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अर्क-पत्रा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. सुनंदा। २. एक लता जो विष की नाशक कही गई है। अर्कमूल।
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अर्क-पर्ण  : पुं० [ब० स०] १. मंदार का वृक्ष। २. [ष० त०] मंदार का पत्ता।
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अर्क-पुत्र  : पुं० =अर्कनंदन।
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अर्क-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] सूर्य मुखी पौधा।
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अर्क-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. अड़हुल। जवा।
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अर्क-बंधु  : पुं० [ष० त०] १. गौतम बुद्ध का नाम। २. पद्य।
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अर्क-बल्लभा  : स्त्री० [ष० त०] गुड़हर (पौधा)।
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अर्क-बादियान  : पुं० [अ० फा०] सौंफ का अर्क।
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अर्कभ  : पुं० [मध्य० स०] १. वह तारापुंज जो सूर्य से प्रभावित हो। २. सिंह राशि। ३. उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र।
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अर्क-मूल  : पुं० [ब० स०] ईसरमूल नाम की लता। अहिगंध।
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अर्क-व्रत  : पुं० [मध्य० स०] १. माघ शुक्ला सप्तमी के दिन किया जाने वाला एक व्रत। २. राजा का प्रजा से उसकी उन्नति और समृद्धि के लिये कर लेना।
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अर्क-सुत  : पुं० =अर्कनंदन।
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अर्कांश  : पुं० [अर्क-अंश, ष० त०] अर्क (सूर्य) का अंश या कला।
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अर्काश्मा (श्मन्)  : पुं० [अर्क-अश्मन्, मध्य० स०] १. एक प्रकार का छोटा नगीना। चुन्नी। अरुणोपल। २. सूर्यकांत मणि।
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अर्की (र्किन्)  : पुं० [सं० अर्क+इनि] मोर (पक्षी)।
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अर्कोपल  : पुं० [अर्क-उपल, मध्य० स०] सूर्यकांत मणि।
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अर्गजा  : पु० दे० ‘अरगजा’।
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अर्गल  : पुं० [सं०√अर्ज् (प्रयत्न)+कलच्, बं० अगड़, पं० अग्गल, क० अगली, गुं० अगली, आगले, सिध, अगुल, मराठी० अगला-अगल] १. लकड़ी का वह डंडा जो किवाड़े बंदकरके, उन्हें खोलने से रोकने के लिए अंदर की ओर लगाया जाता है। अगरी। परिघ। २. लाक्षणिक रूप से वह अवरोधक तत्त्व जो किसी काम या बात को अच्छी तरह रोक रखने में समर्थ हो। (क्लाँग, उक्त दोनों अर्थो में) ३. किवाड़। ४. कल्लोल। लहर। ५. मांस। ६. एक नरक का नाम। ७. सूर्योदय के समय पूर्व या पश्चिम दिशा में दिखाई देने वाले रंग-बिरंगी बादल।
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अर्गला  : स्त्री० [सं० अर्गल+टाप्] १. दे०अर्गल। २. अवरोध। ३. रुकावट। ३. किवाड़ बंद करने की कील या सटकनी। ४. हाथी के पैर में बाँधा जाने वाला सिक्कड़। ५. दुर्गा सप्तशती के पाठ के पहले पढ़ा जाने वाला मत्स्य सूक्त नामक स्तोत्र।
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अर्गलिका  : स्त्री० [सं० अर्गल+कन्-टाप्, ह्रस्व, इत्व] छोटी अर्गला। अगरी।
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अर्गलित  : भू० कृ० [सं० अर्गला+इतच्] १. (दरवाजा) जिसमें अर्गल लगा हो या अर्गल से बंद किया गया हो। २. जिसके आगे कोई अवरोध या रुकावट लगाई गई हो।
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अर्गली  : स्त्री० [सं० अर्गल+ङीष्] दे० ‘अर्गला’। स्त्री० [?] एक प्रकार की भेड़ जो पश्चिमी एशिया में पायी जाती है।
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अर्गवानी  : वि० पुं० दे० ‘आतशी’ (रंग)।
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अर्घ  : पुं० [सं०√अर्ह (पूजा)+घञ्, कुत्व] १. कुशाग्र, जब तंडुल, दही, दूध और सरसों मिला हुआ जल, जो देवताओं पर अर्पित किया जाता है। २. किसी देवी-या देवता के सामने पूज्य भाव से जल गिराना या अंजुली में भरकर जल देना। ३. अतिथि को हाथ-पैर धोने के लिए दिया जाने वाला जल। ४. मधु। शहद। ५. घोड़ा। ६. भेंट। ७. [√अर्घ(मूल्य)+घञ्] दाम। मूल्य। ८. किसी वस्तु की उपयोगिता या महत्त्व का सूचक वह तत्त्व जो स्वयं उस वस्तु में निहित और उसमें दृढ़तापूर्वक संबद्ध होता है और जो उसके दाम या मूल्य से भिन्न होता है। (वर्थ) जैसे—तोले भर सोने के सिक्के का अर्घ सदा वही रहेगा, जो बाजार में सोने का भाव होगा।
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अर्घट  : पुं० [सं०√अर्घ+अटन्] राख।
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अर्घ-दान  : पुं० [ष० त०] देवता, अतिथि आदि को अर्घ देना।
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अर्घ-पतन  : पुं० [ष० त०] किसी वस्तु का अर्घ (भाव या मूल्य) कम होना या घटना। भाव उतरना। (डिप्रिसिएशन)
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अर्घ-पात्र  : पुं० [ष० त०] वह पात्र जिसमें अर्घ दिया जाता है। अरघा।
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अर्घा  : स्त्री० [सं० अर्घ+टाप्] ऐसे बीस मोतियों का लच्छा जिसकी तौल २॰ रत्ती हो।
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अर्घापचय  : पुं० [अर्घ-अपचय, ष० त०]=अर्घ-पतन।
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अर्घार्ह  : वि० [सं० अर्घ√अर्ह (पूजा)+अच्] अर्घ (आदर या सम्मान) का पात्र। श्रेष्ठ।
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अर्घेश्वर  : पु० [अर्घ-ईश्वर, ष० त०] शिव।
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अर्घ्य  : वि० [सं० अर्घ+यत्] १. जिसका अर्घ बहुत अधिक हो। बहुमूल्य। २. जिसे अर्घ दिया जाने को हो या दिया जाना उचित हो। ३. जो आदर, पूजा भेंट आदि का पात्र हो। ४. पूजा में देने योग्य (जल, फूल, मूल आदि)
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अर्चक  : पुं० [सं०√अर्च (पूजा)+ण्युल्-अक] अर्चन करनेवाला। पूजक।
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अर्चन  : पुं० [सं०√अर्च+ल्युट्-अन] [वि० अर्चित, कर्ता अर्चक] १. किसी की महत्ता मानते हुए श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने की क्रिया या भाव। २. आदर। सत्कार।
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अर्चना  : स्त्री० [सं०√अर्च+णिच्+युच्-अन,टाप्]-अर्चन। स० अर्चन करना।
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अर्चनीय  : वि० [सं०√अर्च+अनीयर्] जिसकी अर्चना की जाने को हो अथवा जो अर्चना किये जाने के योग्य हो।
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अर्चमान  : वि० [सं० अर्च्यमान]=अर्चनीय।
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अर्चा  : स्त्री० [सं०√अर्च+अ-टाप्] १. अर्चन। पूजा। २. वह प्रतिमा या मूर्ति जिसकी अर्चना की जाती हो।
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अर्चि  : स्त्री० [सं०√अर्च+इन] १. अग्नि की शिखा। लपट। लौ। २. सूर्योदय या सूर्यास्त होते समय की किरणें। ३. दीप्ति। तेज।
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अर्चित  : भू० कृ० [सं०√अर्च+क्त] जिसकी अर्चना की गयी हो।
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अर्चिती (तिन्)  : वि० [सं० अर्चित+इनि] अर्चना करनेवाला।
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अर्तिमान (न्)  : वि० [सं० अर्चि+मतुप्] जिसमें चमक या प्रकाश हो। पुं० १. अग्नि। २. सूर्य। ३. विष्णु। ४. एक उपदेव।
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अर्चिमाल्य  : पुं० [सं० ] महर्षि मरीचि के पुत्र का नाम।
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अर्चिष्मती  : वि० [सं० अर्चिस्+मतुप्, ङीष्] १. अग्निपुरी या अग्निलोक। २. बौद्धों के १॰ लोकों में से एक लोक।
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अर्चिष्मान्  : वि० [सं० अर्चिस्+मतुप्] प्रकाशमान। पुं० १. सूर्य। २. अग्नि। ३. देवताओं का एक भेद। ४. दे० ‘अर्चिमाल्य’।
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अर्च्य  : वि० [सं०√अर्च+ण्यत्]=अर्चनीय।
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अर्ज  : पुं० [अ०] १. पृथ्वी। २. जमीन। भूमि। ३. बेड़े बल का विस्तार। चौड़ाई। पनहा। स्त्री० [अ०] निवेदन। प्रार्थना। विनती। पुं० [फा०] १. दाम। मूल्य। २. प्रतिष्ठा। सम्मान। ३. बड़प्पन। महत्त्व।
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अर्जक  : वि० [सं०√अर्च (अरजना)+ण्वुल्-अक] १. अर्जन करके अपने अधिकार में लानेवाला। २. प्राप्त करनेवाला। पुं० १. सितपर्णास। २. बनतुलसी। बबई।
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अर्जदाश्त  : पुं० [अ०] प्रार्थना-पत्र। अर्जी।
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अर्जन  : पुं० [सं०√अर्च+ल्युट्-अन] [वि० अर्जनीय] १. अधिकार में लाने, कमाने प्राप्त करने या हस्तगत करने की क्रिया या भाव। २. संग्रह करना।
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अर्जनीय  : वि० [सं०√अर्च+अनीयर्] १. जिसका अर्जन किया जाने को हो, अथवा जो इस योग्य हो, कि उसका अर्जन किया जा सके। २. संग्रह करने योग्य।
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अर्जमा  : पुं०=अर्यमा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अर्जित  : भू० कृ० [सं०√अर्च+क्त] १. जिसका अर्जन किया गया हो। कमाया हुआ। (अर्न्ड) २. संगृहीत।
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अर्जित-छुट्टी  : स्त्री० [सं०+हिं० ] नियत समय तक कार्य या सेवा कर चुकने के उपरांत आधिकारिक रूप से मिलने वाली छुट्टी।
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अर्जी  : स्त्री० [अ०] प्रार्थना-पत्र।
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अर्जीदावा  : स्त्री० [अ०] वादी का वह पहला निवेदन-पत्र जिसे वह न्यायालय में अपना वाद उपस्थित करने के समय देता है। (प्लेन्ट)
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अर्जीनवीस  : पुं० [अ०+फा०] वह व्यक्ति जो लोगों के विधिक प्रार्थना-पत्र या अर्जीदावे आदि लिखने का काम करता हो।
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अर्जीनालिश  : पुं० दे० ‘अर्जीदावा’।
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अर्जुन  : पुं० [सं०√अर्च+उनन] १. पाँच पांडव भाइयों में से मँझले भाई जो कुंती के गर्भ से उत्पन्न और श्रीकृष्ण के परम सखा थे। २. भारत के अधिकतर प्रदेशों में होनेवाला एक प्रसिद्ध वृक्ष, जिसमें बिना फूल ही फल लगते हैं। ३. हैहय-वंशी एक सहस्रार्जुन। ४. सफेद कनेर। ५. मोर। ६. एक नेत्र रोग। ७.इ कलौता बेटा। ८. इंद्र। ९. सफेद रंग। १. चाँदी। ११. सोना। १२. दूब। वि० १. उज्जवल। सफेद। २. साफ। स्वच्छ। ३. चमकीला।
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अर्जुन-ध्वज  : पुं० [ष० त०] हनुमान।
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अर्जुन-ध्वजा  : स्त्री० [सं० अर्जुध्वज] वह पताका जिस पर हनुमान जी का चित्र अंकित हो।
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अर्जुन-सखा  : पुं० [ष० त०] अर्जुन के मित्र अर्थात् श्रीकृष्ण।
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अर्जुनायन  : पुं० [सं० अर्जुन+फक्-आयन] बराहमिहिर के अनुसार, उत्तर भारत का एक प्रदेश।
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अर्जुनी  : स्त्री० [सं० अर्जुन+ङीष्] १. करतोया नदी। २. सफेद गाय़। ३. कुटनी। ४. उषा। ५. एक प्रकार का साँप। ६. अनिरुद्ध की पत्नी।
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अर्जुनोपम  : पुं० [सं० अर्जुन-उपमा, ब० स०] सागौन का पेड़।
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अर्ण  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+न] १. वर्ण। अक्षर। २. जल। ३. एक प्रकार का दंडक वृत्त। ४. सागौन नामक वृक्ष। ५. शोर-गुल। हो-हल्ला।
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अर्णव  : वि० [सं० अर्णस्+व,सलोप] १. उत्तेचित। २. फेनयुक्त। ३. विकल। पुं० [सं० ] १. समुद्र। २. सूर्य। ३. इंद्र। ४. अंतरिक्ष। ५. रत्न। मणि। ६. चार की संख्या। ७. दंडक वृत्त का वह भेद जिसके हर चरण में २ नगण और ९ रगण होते हैं।
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अर्णवज  : पु० [सं० अर्णव√जन्(अत्पन्न करना)+ड] समुद्र की झाग या फेना।
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अर्णव-नेमि  : स्त्री० [ष० त०] पृथ्वी।
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अर्णव-पति  : पुं० [ष० त०] महासागर।
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अर्णव-पोत  : पुं० [मध्य० स०] जल-पोत। जलयान। जहाज।
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अर्णवमंदिर  : पुं० [ब० स०] वरुण।
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अर्णव-मल  : पुं० दे० ‘अर्णवज’।
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अर्णव-यान  : पुं० [मध्य० स०] जलयान। जहाज।
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अर्णवोद्भव  : पुं० [सं० अर्णव-उदभव, ब० स०] १. अग्निजार नामक पौधा। २. चंद्रमा। ३. अमृत। वि० जो अर्णव या समुद्र से निकला या बना हो।
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अर्णवोद्भवा  : स्त्री० [सं० अर्णवोदभव+टाप] लक्ष्मी।
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अर्णस  : वि० [सं० अर्णस+अच्] १. उत्तेचित या विकल। २. फेन-युक्त।
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अर्णस्वान् (स्वत्)  : वि० [सं० अर्णस्+मतुप्, व आदेश] अधिक जलवाला (सागर)।
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अर्णा  : स्त्री० [सं० अर्ण+अच्-टाप्] नदी।
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अर्णोद  : पुं० [सं० अर्णस्√दा (दान)+क] १. बादल। मेघ। २. मुस्तक नामक पौधा। नागरमोथा।
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अर्णोनिधि  : पुं० [सं० अर्णस्-निधि, ष० त०] समुद्र।
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अर्तगल  : पुं० [सं० आर्त√गल् (पिघलना)+अच्, पृषो०] दे० ‘आर्तगल’।
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अर्तन  : पुं० [सं०√ऋत् (गति)+ल्युट्-अन] निंदा।
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अर्ति  : स्त्री० [सं०√अर्द् (हिंसा)+क्तिन्] १. पीड़ा। २. धनुष के दोनों सिरे।
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अर्तिका  : स्त्री० [सं०√ऋत्+ण्वुल्-अक-टाप्,इत्व] बड़ी बहन।
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अर्थ  : पुं० [सं०√अर्थ (याचन आदि)+अच्] १. अभिप्राय, उद्देश्य या लक्ष्य। २. वह अभिप्राय, भाव या वस्तु जिसका बोध पाठक या श्रोता को कोई शब्द, पद, या वाक्य पढ़ने या सुनने पर अथवा कोई भाव भंगी या संकेत देखने पर होता है। माने। (मीनिंग) ३. धन-संपत्ति। ४. जन्म-कुंडली में लग्न से दूसरा घर। ५. पाँचों इंद्रियों के ये पाँच विषय-गंध, रूप, रस, शब्द और स्पर्श। वि० सामाजिक क्षेत्र में, लोगों के स्वकीय अधिकारों और उपचारों से संबंध रखनेवाला, (आपराधिक, राजनीतिक आदि से भिन्न। (सिविल) जैसे—अर्थ-व्यवहार। (सिविल केस) अव्य० लिए। वास्ते। जैसे—यह संपत्ति देव-कार्य के अर्थ समर्पित है।
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अर्थक  : वि० [सं० आर्थिक] १. अर्थ या धन से संबंध रखनेवाला। आर्थिक। २. अर्थ या मतलब से संबंध रखनेवाला। ३. अर्थ या धन उपार्जित करने- करानेवाला।
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अर्थ-कर  : वि० [सं० अर्थ√कृ (करना)+ट] [स्त्री० अर्थकरी] १. जिसका कुछ अर्थ हो। २. अर्थ या धन के विचार से उपयोगी या लाभदायक। जैसे—अर्थ-कर व्यवसाय या अर्थकरी विद्या आदि।
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अर्थ-काम  : वि० [सं० अर्थ√कम् (चाहना)+अण्] १. धन की कामना या इच्छा करनेवाला। २. किसी प्रकार के स्वकीय उपयोग या हित पर दृष्टि रखनेवाला।
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अर्थ-किल्बिषी (षिन्)  : वि० [सं० अर्थ-किल्बिष, ष० त० अर्थकिल्बिष+इनि] लेन-देन में सच्चा व्यवहार न करनेवाला। बेईमान।
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अर्थ-कृच्छ्  : पुं० [ष० त०] १. धन का अभाव या कमी। २. आय से व्यय अधिक करने पर होनी वाली धन की कमी।
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अर्थ-गत  : वि० [तृ० त०] अर्थ के क्षेत्र में आने या उससे संबंध रखनेवाला।
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अर्थ-गर्भित  : वि० [तृ० त०] (कथन, वाक्य या शब्द) जिसमें एक या कई अर्थ हों या हो सकते हों। (पिथी)।
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अर्थ-गृह  : पुं० [ष० त०] धन रखने का स्थान। कोष। खजाना।
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अर्थ-गौरव  : पुं० [ष० त०] पद या वाक्य में होनेवाली अर्थ की उत्कृष्टता और गंभीरता।
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अर्थघ्न  : वि० [सं० अर्थ√हन् (हिंसा)+ट] १. अर्थ का नाश करनेवाला। २. धन का अपव्यय करनेवाला। फजूल-खरच।
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अर्थचर  : पुं० [सं० अर्थ√चर् (गति)+ट] राज्य या शासन का सेवक। सरकारी नौकर।
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अर्थ-चिंतक  : वि० [ष० त०] १. अर्थ (माने) का चिंतन करनेवाला। २. धन या लाभ की चिंता या विचार करनेवाला।
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अर्थ-चिंतन  : पुं० [ष० त०] १. अर्थ अथवा धन पैदा करने का उपाय सोचना। २. अर्थ या आशय के संबंध में होनेवाला चिंतन या विचार। ३. धन या लाभ के संबंध में होनेवाली चिंता या चिंतन।
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अर्थ-चिंता  : स्त्री०=अर्थचिंतन।
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अर्थ-जात  : वि० [अर्थ-जात, ष० त०+अच्] १. अर्थ या आशय से युक्त। २. जिसके पास बहुत धन हो। धनी।
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अर्थतः  : अव्य० [सं० अर्थ+तस्] आशय, भाव आदि के विचार से। २. वास्तव में। सचमुच।
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अर्थ-तत्त्व  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान के विचार से वह शब्द जिसमें कोई अर्थ निहित होता है अथवा जो किसी पदार्थ, भाव या विचार का वाचक होता है। (सेमेन्टीम) विशेष—भाषा में दो प्रकार के शब्द होते हैं। कुछ शब्द तो पदार्थों भावों आदि के सूचक होते हैं। और कुछ ऐसे शब्द होते हैं जो उक्त शब्दों को केवल जोड़ते हैं, परन्तु जिनका कुछ आशय नहीं होता है। पहले प्रकार के शब्दों को अर्थ तत्त्व और दूसरे प्रकार के शब्दों को संबंध तत्त्व कहा जाता है। जैसे-‘समाज का स्वरूप’ पद में समाज और स्वरूप शब्द तो अर्थ तत्त्व है क्योंकि ये कुछ विचारों का उदबोध कराते हैं। और का संबंध तत्त्व है क्योंकि यह अर्थ तत्त्वों द्वारा अभिव्यक्त विचारों के परस्पर संबंध का सूचक है।
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अर्थ-दंड  : पुं० [ष० त०] १. अधिकारी या शासन के द्वारा किसी अपराधी या दोषी को मिलने वाला वह दंड जिसके फलस्वरूप उसे कुछ अर्थ या धन चुकाना पड़ता है। जुरमाना। २. उक्त प्रकार से दंड के रूप में दी जानेवाली धन
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अर्थद  : वि० [सं० अर्थ√दा (देना)+क] १. अर्थ या धन देनेवाला। २. अपयोगी या लाभकारी। पुं० १. कुबेर। २. गुरु को धन देकर उसके बदले में पढ़नेवाला शिष्य।
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अर्थ-दर्शक  : पुं० [ष० त०] धन-संबंधी व्यवहारों को देखने या उन पर विचार करनेवाला अधिकारी।
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अर्थ-दूषण  : पुं० [ष० त०] १. अनुचित रूप से या व्यर्थ धन खर्च करना। अपव्यय। २. अनुचित रूप से किसी का धन या संपत्ति छीन लेना। ३. पदों० वाक्यों, शब्दों आदि में अर्थ संबंधी दोष निकालना।
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अर्थन  : पुं० [सं० अर्थ (माँगना)+वल्युट्-अन] माँगने या याचने की क्रिया या भाव।
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अर्थना  : स० [सं०√अर्थ+णिच्+युच्-अन-टाप्] याचना करना। माँगना।
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अर्थनीय  : वि० [सं०√अर्थ (याचना)+अनीयर] (पदार्थ) जो माँगे जाने के योग्य हो या माँगा जा सके।
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अर्थ-न्यायालय  : पुं० [ष० त०] वह न्यायालय जिसमें अर्थ या धन या संपत्ति संबंधी विवादों या व्यवहारों की सुनवाई होती हो दीवानी। कचहरी। (सिविल कोर्ट)
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अर्थ-पति  : पुं० [ष० त०] १. कुबेर। २. राजा। ३. धनवान। अमीर।
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अर्थ-पिशाच  : पुं० [ष० त०] वह जिसे धन संग्रह का बहुत अधिक लोभ हो। बहतु बड़ा कंजूस और धन-लोलुप।
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अर्थ-प्रकृति  : स्त्री० [ष० त०] नाटक में वह चमत्कारपूर्ण बात जो कथावस्तु को कार्य की ओर बढ़ाने में सहायक होती है। यह पाँच प्रकार की कही गई है-बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य।
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अर्थ-प्रक्रिया  : स्त्री० [ष० त०] किसी विवाद के संबंध में होनेवाली कारवाई या प्रक्रिया। (सिविल प्रोसिड्योर)
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अर्थ-प्रसर  : पुं० [ष० त०] अर्थ-न्यायालय का वह आदेश पत्र या प्रसार जिसमें किसी व्यक्ति के नाम कोई लेख या वस्तु न्यायालय के सामने उपस्थित करने की आज्ञा होती है। (सिविल प्रोसेस)
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अर्थ-बंध  : पुं० [ष० त०] १. छंदों, पदों, वाक्यों आदि की सार्थक रचना। २. आज-कल किसी काम या बात के लिए होनेवाला आर्थिक आयोजन या व्यवस्था, मुख्यतः राष्ट्रों व्यापारियों, संघों आदि में पारस्परिक हित के विचार से होनेवाला आर्थिक समझौता। (डील)
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अर्थ-बुद्धि  : वि० [ब० स०] जो अपने ही अर्थ (स्वार्थ या हित) पर ध्यान रखता हो। मतलबी। स्वार्थी।
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अर्थ-भूत  : पुं० [तृ० त०] वेतन लेकर काम करनेवाला नौकर।
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अर्थ-मंत्री (न्त्रिन्)  : पुं० [ष० त०] किसी राज्य, संघ या संस्था का (निर्वाचित या मनोनीत) वह मंत्री जो उसके अर्थ-सबंधी कार्यों की व्यवस्था और संचालन करता हो। (फाइनेंस सेक्रेटरी या मिनिस्टर)
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अर्थ-वक्रोक्ति  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘वक्रोक्ति’।
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अर्थवत्ता  : स्त्री० [सं० अर्थ+मतुप्, वत्व, अर्थवत्+तल्-टाप्] १. अर्थवान या धनसंपन्न होने की अवस्था या भाव। संपन्नता। २. पदों, वाक्यों, शब्दों आदि की वह अवस्था जिसमें वे विशिष्ट अर्थ या आशय से युक्त होते हैं।
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अर्थ-वाद  : पुं० [ष० त०] १. न्याय में, तीन प्रकार के वाक्यों में से एक, जिसमें कोई काम करने का विधान किया जाता है या कुछ करने या कराने का उल्लेख होता है। इसके परकृति, पुराकल्प, निंदा और स्तुति ये चार भेद कहे गये है। २. नियमावली, विधान आदि के आरंभ की वे बातें जिनसे उस नियमावली या विधान का अर्थ (उद्देश्य या प्रयोजन) प्रकट तथा स्पष्ट होता है। (प्रिएम्बुल)
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अर्थवान् (वत्)  : वि० [सं० अर्थ+मतुप् वत्व] [भाव० अर्थवत्ता] १. (वाक्य या शब्द) जो अर्थ (माने) से युक्त हो। विशिष्ट अर्थ या मतलब वाला। २. धनवान। अमीर।
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अर्थ-विकार  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान और व्याकरण में, शब्दों के अर्थों में होनेवाला परिवर्तन या विकार। (सेमैन्टिक चेंज)
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अर्थ-विचार  : पुं० [ष० त०] शब्दार्थिकी।
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अर्थ-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] १. दे० ‘अर्थ-शास्त्र’। २. दे० ‘अर्थ-विधान’।
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अर्थ-विधान  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान और व्याकरण का वह अंग या शास्त्र जिसमें इस बात का विचार होता है कि शब्दों में अर्थ किस प्रकार लगते, हटते, बदलते और विकसित होते हैं। (सेमैन्टिक्स) यिं० दे० ‘शब्दार्थिकी’।
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अर्थ-विधि  : स्त्री० [ष० त०] राज्य की ओर से जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया हुआ कानून या विधि। (सिविल-लाँ)
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अर्थ-व्यवहार  : पुं० [ष० त०] दीवानी मुकदमा।
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अर्थ-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि समाज बनाकर रहनेवाले लोगों की आर्थिक क्रियाएँ और व्यवहार किस प्रकार चलते हैं और वे उपयोगी पदार्थों का उत्पादन, उपभोग, वितरण और विनिमय किस प्रकार करते हैं, अथवा उन्हें किस प्रकार व्यवस्थित रूप से ये सब काम करने चाहिए। (एकनाँमिक्स)
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अर्थशास्त्री (स्त्रिन्)  : पुं० [सं० अर्थसास्त्र+इनि] वह जो अर्थशास्त्र का ज्ञाता हो। तथा उसके नियमों और सिद्धांतों का अध्ययन, प्रतिपादन या विवेचन करता हो। (इकनॉमिस्ट)
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अर्थ-श्लेष  : पुं० [स० त०] साहित्य में, श्लेष अलंकार के दो भेदों में से एक जिसमें किसी वाक्य का एक ही अर्थ एक से अधिक पक्षों में घटित होता है और उन पक्षों के वाचक मुख्य शब्दों के पर्याय रख देने पर भी श्लेष में कोई बाधा नहीं होती। जैसे—सुखदा, सिकदा, अर्थदा, जसदा, रस-दातारि। रामचंद्र की मुद्रिका, किधौं परम गुरूनारि, में यदि मुद्रिका और गुरू-नारि शब्दों के प्रर्याय रख दिये जाएँ तो भी श्लेष ज्यों का त्यों बना रहेगा।
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अर्थ-सचिव  : पुं० [ष० त०] दे० ‘अर्थमंत्री’।
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अर्थ-सिद्धि  : स्त्री० [ष० त०] अभीष्ट अथवा उद्देश्य सिद्धि होना। कार्य या प्रयत्न ठीक और पूरा उतरना।
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अर्थ-हीन  : वि० [तृ० त०] १. (शब्द या पद) जिसमें कोई अर्थ न हो अथवा जिसका कोई अर्थ न हो। २. सार या सत्त्व से रहित (पदार्थ)। ३. धनहीन। निर्धन। (व्यक्ति)।
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अर्थांतर  : पुं० [सं० अर्थ-अन्तर, मयू० स०] प्रस्तुत सिद्ध या स्पष्ट अर्थ के अतिरिक्त कोई और या दूसरा अर्थ।
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अर्थातर-न्यास  : पुं० [ब० स०] १. साहित्य में एक अलंकार जिसमें वैधर्म्य या साधर्म्य दिखलाते हुए सामान्य कथन की विशेष कथन के द्वारा और विशेष कथन की सामान्य कथन के द्वारा अभिपुष्टि की जाती है। २. न्याय में, एक प्रकार का निग्रह स्थान।
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अर्थागम  : पुं० [अर्थ-आगम, ष० त०] १. आय, धन, संपत्ति आदि की प्राप्ति होना। २. किसी विभाग या व्यापार में कर, विक्री आदि से होनेवाली आय। (प्रोसीड्स) ३. किसी शब्द में कोई और या नया अर्थ, आशय या भाव आकर लगना।
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अर्थातिक्रम  : पुं० [अर्थ-अतिक्रम, ष० त०] हाथ में आई या मिली अच्छी चीज छोड़ देना।
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अर्थातिशय  : पुं० [अर्थ-अतिक्रम, ष० त०] दे० ‘अर्थविधान’।
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अर्थात्  : अव्य० [सं० अर्थ+आत्] १. (इस पद या शब्द का) अर्थ या माने होता है कि। अर्थ यह है कि। जैसे—सं० अश्व, फा० अस्प, अर्थात् घोड़ा। २. (जो कहा गया है उसका) अभिप्राय या आशय है कि। मतलब यह कि। जैसे-अर्थात् अब आप उनसे नहीं मिलेंगे।
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अर्थाधिकरण  : पुं० [अर्थ-अधिकरण, ष० त०] दे० ‘अर्थ-न्यायालय’।
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अर्थाधिकारी (रिन्)  : पुं० [अर्थ-अधिकारी, ष० त०] १. वह जिसके अधिकार में कोष (खजाना) हो। कोष की देख-रेख करनेवाला। खजानची। २. आर्थिक विषयों का आधिकारिक ज्ञाता। ३. अर्थ-मंत्री।
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अर्थानर्थापद  : पुं० [अर्थ-अनर्थ, द्व० स०, अर्थानर्थ-आपद, ष० त०] कौटिल्य के अनुसार राज्य की वह स्थिति जिसमें एक ओर तो लाभ हो सकता हो और दूसरी ओर राज्य के नष्ट हो जाने या दूसरे के हाथ में चले जाने की संभावना हो।
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अर्थाना  : स० [सं० अर्थ] १. पद या वाक्य का अर्थ लगाना। २. ब्योरे की सब बातें अच्छी तरह समझाकर कहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अर्थानुबंध  : पुं० [अर्थ-अनुबंध, ष० त०] आर्थिक दृष्टि से कुछ लोगों समुदायों या राष्ट्रों में होनेवाला समझौता। अर्थ-बंध।
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अर्थानुवाद  : पुं० [अर्थ-अनुवाद, ष० त०] न्याय में, बार-बार ऐसी बात कहना जिसका विधान पहले से विधि ने ही कर रखा हो।
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अर्थानुसंधान  : पुं० [अर्थ-अनुसंधान, ष० त०] शब्द या पदों के अर्थों को ढूँढ़ने या समझने का प्रयत्न करना। अनुवचन।
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अर्थान्वित  : वि० [अर्थ-अन्वित, तृ० त०] १. अर्थ या आशय से युक्त। २. महत्त्वपूर्ण। ३.धनवान्। सम्पन्न।
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अर्थापत्ति  : पुं० [अर्थ-आपत्ति, ष० त०] १. मीमांसा में ऐसा प्रमाण जिससे एक बात कहने से दूसरी बात आप से आप सिद्ध हो जाए। २. साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी बात या तथ्य के आधार पर एक दूसरी ही बात या तथ्य स्थिर हो जाता है। जैसे-सारा मकान जल गया से दूसरा अर्थ स्थिर होगा उसमें का सब सामान जल गया। ३. लोक-व्यवहार में, किसी घटना या बात से निकलने वाला ऐसा निष्कर्ष जो बहुत कुछ ठीक और संभावित जान पड़ता हो। यह मान लिया जाना कि इसका यही अर्थ या आशय हो सकता है। (प्रिजम्पशन, उक्त सभी अर्थों के लिए)।
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अर्थापत्ति-सम  : पुं० [तृ० त०] न्याय में, वादी के उत्तर में यह कहना कि यदि तुम मेरा प्रतिपादित अमुक सिद्धांत मानोगे तो तुम्हें दोष लगेगा। (यह जाति या दोषों के २४ भेदों में से एक है)
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अर्थापदेश  : पुं० [अर्थ-अपदेश, ष० त०] शब्दों के मूल अर्थ छूटने और उनमें नये अर्थ लगने की क्रिया या भाव।
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अर्थापन  : पुं० [सं०√अर्थ+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] पदों या शब्दों के अर्थ लगाने बतलाने अथवा उनकी व्याख्या करने की क्रिया या भाव। (इन्टरप्रेटेशन)
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अर्थार्थी (र्थिन्)  : पुं० [अर्थ-अर्थी, ष० त०] १. वह जो किसी प्रकार के अर्थ या उद्देश्य सिद्धि की कामना करता हो। २. वह जो धन लेना चाहता हो या माँगता हो। ३. चार प्रकार के भक्तों में से एक जो किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए भगवान की भक्ति करता है। (ऐसा भक्त निकृष्ट माना गया है)।
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अर्थालंकार  : पुं० [अर्थ-अलंकार, स० त०] साहित्य में, (शब्दालंकार से भिन्न) ऐसा अलंकार जिसमें अर्थसंबंधी अनूठापन या चमत्कार हो। विशेष
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अर्थिक  : वि० [सं० अर्थिन्+कन्] १. जिसके मन में कोई अर्थ (कामना या चाह) हो। २. धन की कामना करने वाला। ३. दे० ‘अभ्यर्थी’।
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अर्थित  : भू० कृ० [सं० √अर्थ्(याचना)+क्त] १. चाहा या माँगा हुआ। २. प्रार्थित। ३. जिसका अर्थ माने किया या लगाया गया हो।
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अर्थिता  : स्त्री० [सं० अर्थित+टाप्] किसी से कुछ माँगने की अवस्था या भाव।
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अर्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० अर्थ+इनि] १. चाहने या माँगनेवाला। २. जो किसी इष्ट की प्राप्ति में संलग्न हो अथवा उद्देश्य या प्रायोजन से युक्त हो। (यौ० के अंत में)। जैसे—अधिकारार्थी, काय्यार्थी आदि। ३. अर्थ-न्यायालय में वाद उपस्थित करनेवाला। वादी। मुद्दई। ४. धनी। पुं० नौकर। सेवक। स्त्री० दे० ‘अरथी’ (रथी)।
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अर्थोपचार  : पुं० [अर्थ-उपचार, ष० त०] किसी प्रकार की हानि या क्षति के बदले में अर्थ-न्यायालय द्वारा होनेवाला उपचार या कराई जानेवाली क्षति-पूर्ति। (सिविल रमेडी)
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अर्थ्य  : वि० [सं०√अर्थ्+यत्] १. जिसकी चाह या कामना की गई हो अथवा की जा सके। २. उचित या उपयुक्त। ३. बुद्धिमान। ४. धनी। पुं० शिलाजीत।
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अर्थ्यक  : पुं० [सं० अर्थ्य+कन्] दे० ‘प्राप्यक’।
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अर्दन  : पुं० [सं० अर्द (पीड़ा)+ल्युट्-अन] १. कष्ट पहुँचाने या पीड़ित करने की क्रिया या भाव। दुःख देना। २. दूर करना या हटाना। ३. चलने या गमन करने की क्रिया या भाव। ४. चाहना या माँगना।
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अर्दना  : अ० [सं० अर्दन-पीड़न] कष्ट या दुःख देना। पीड़ित करना। स० दूर करना। हटाना।
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अर्दली  : पुं० =अरदली।
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अर्दित  : भू० कृ० [सं०√अर्द्+क्त] १. जिसे पीड़ा पहुँचाई गयी हो। पीड़ित। २. गया हुआ। गत। ३. चाहा या माँगा हुआ। पुं० एक बात रोग जिसमें मुँह, गरदन और आँखे टेढ़ी हो जाती है।
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अर्द्ध  : वि० -अर्थ। (अर्द्ध के यौ०के लिए दे० ‘अर्ध’ के यौ०)।
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अर्धग  : पुं० दे० ‘अर्धांग’।
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अर्धंगी  : पुं० =अर्धांगी।
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अर्ध  : वि० [सं०√ऋध् (वृद्धि)+णिच्+अच्] १. किसी वस्तु के दो बराबर या एक जैसे भागों में हर एक का आधा। (हाफ) जैसे—अर्धवृत्त। २. जो अभी अधूरा, आधे के लगभग या अपूर्ण हो। आँशिक। (सेमी) जैसे—अर्ध सम्य। ३. जो तुलनात्मक दृष्टि से पूरा न होने पर भी थोड़ा बहुत हो। जैसे—अर्ध-बर्बर, अर्ध-सरकारी आदि। ४.किसी निश्चित काल या मान के दो समान भागों में से हर भाग में होनेवाला। (सेमी) जैसे—अर्ध वार्षिक।
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अर्धक  : वि० [सं० अर्ध+कन्] १. आधा। २. अधूरा।
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अर्ध-काल  : पुं० [ब० स०] शिव।
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अर्ध-कूट  : पुं० [ब० स०] शिव।
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अर्ध-गंगा  : स्त्री० [एकदेशि, त० स०] दक्षिण भारत की कावेरी नदी।
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अर्ध-गुच्छ  : पुं० [कर्म० स०] चौबीस लड़ियों का हार या माला।
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अर्ध-गोल  : पु० [एकदेशि, त० स०] दे० गोलार्द्ध। वि० १. गोले का आधा। २. जो आधा गोल हो।
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अर्ध-चंद्र  : पुं० [एकदेशित० स०] १. अष्टमी का चंद्रमा जो आधा होता है। २. मोर-पंख पर की आँख या चन्द्रिका जो देखने में आधे चंद्रमा के समान होती है। ३. नखक्षत्र। ४. अर्द्ध चंद्रकार नोक वाला बाण। ५. सानुनासिक ध्वनि का चिन्ह। चंद्रविंदु। ६. एक प्रकार का त्रिपुड। ७. किसी को धक्का देकर निकालने के लिए उसकी गरदन पकड़ने की मुद्रा। गरदनियाँ। (व्यंग्य।
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अर्ध-चंद्रिका  : स्त्री० [एकदेशि, त० स०] कन-फोड़ा या तिधारा नाम की लता।
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अर्ध-जल  : पुं० [ब० स०] दे० ‘अर्धोंदक’।
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अर्ध-ज्योतिका  : स्त्री० [एकदेशि त० स०] संगीत में चौदह मात्राओं का एक ताल।
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अर्ध-तिक्त  : पुं० [कर्म० स०] नेपाल में होनेवाली एक प्रकार की नीम। (वृक्ष)
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अर्ध-तूर  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का पुराना बाजा।
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अर्ध-नयन  : पुं० [कर्म० स०] देवताओं का तीसरा नयन या नेत्र जो मस्तक या ललाट पर होता है।
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अर्ध-नराच  : पुं० [सं० अर्धनाराच] १. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में जगण, रगण और लघु गुरु होता है। इसे प्रमाणिका भी कहते हैं। २. एक प्रकार का तीर या बाण।
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अर्ध-नाराज  : पुं० [कर्म० स०]=अर्ध-नराच।
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अर्ध-नारायण  : पुं० [कर्म० स०] विष्णु का एक रूप।
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अर्ध-नारीश  : पुं० [अर्ध-अर्धाग्ङ-नारी, स० त०, अर्धनारी-ईश, ष० त०] =अर्ध-नारीश्वर।
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अर्ध-नारीश्वर  : पुं० [सं० अर्ध-नारी, स० त०, अर्धनारी-ईश्वर, ष० त०] १. शिव का एक रूप जिसमें उनके शरीर के आधे भाग में स्वयं उनका तथा शेष आधे भाग में पार्वती का रूप होता है। २. वैद्यक में, एक प्रकार का अंजन जो ज्वर उतारने के लिए आँखों में लगाया जाता है।
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अर्ध-पारावत  : पुं० [तृ० त०] तीतर।
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अर्ध-पोहल  : पुं० [देश०] मोटी पत्तियोंवाला एक पौधा।
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अर्ध-भाक्  : वि० [सं० अर्ध√भज् (सेवा)+ण्वि]=अर्ध-भागिक।
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अर्ध-भागिक  : वि० [सं० अर्ध-भाग, कर्म० स०, अर्धभाग+ठन्-इक] १. जो आधे भाग या हिस्से का अधिकारी हो। २. जिसने किसी कार्य विशेष में आधा काम किया हो।
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अर्ध-भास्कर  : पुं० [कर्म० स०] दोपहर या मध्याह्र का सूर्य।
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अर्ध-भुजंगी  : पुं० [कर्म० स०] रसावल नामक छंद का दूसरा नाम।
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अर्ध-मागधी  : स्त्री० [कर्म० स०] सागधी और शौरसेनी प्राकृतों का वह मिश्रित रूप जो कौशल में प्रचलित था। विशेष—महावीर और बुद्ध के समय में यही कौशल की लोक-भाषा थी, अतः इसी में उनके धर्मोपदेश भी हुए थे, और अशोक के पूर्वीशिलालेख भी अंकित हुए थे। आज-कल की पूर्वी हिन्दी अर्थात् अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी आदि बोलियाँ इसी से निकली है। (विशेष दे० ‘प्राच्या और मागधी’)।
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अर्ध-मात्रा  : स्त्री० [कर्म० स०] १. आधी मात्रा। २. व्यंजन वर्ण। ३. चतुर्दश मात्रा नामक ताल के एक भेद। (संगीत)
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अर्ध-विसर्ग  : पु० [कर्म० स०] विसर्ग की तरह का या उसका आधा वह उच्चारण जो क, ख, प, या फ से पहले होता है। विशेष—इसका चिन्ह विसर्ग के चिन्ह (
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अर्ध-वृत्त  : पुं० [एकदेशि त० स०] वृत्त का आधा भाग जो उसकी आधी परिधि या व्यास से घिरा हो। आधा गोल या वृत्त। (सेमी सर्किल)
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अर्ध-वृद्ध  : वि० [कर्म० स०] युवावस्था और वृद्धावस्था के बीच का। अधेड़।
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अर्ध-वैनाशिक  : पुं० [कर्म० स०] प्राचीन भारत में कणाद के अनुयायियों की संज्ञा।
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अर्ध-व्यास  : पु० [कर्म० स०] किसी वृत्त के केंद्र से परिधि तक की दूरी। आधा व्यास। पुं०=त्रिज्या।
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अर्ध-शफर  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार की मछली।
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अर्ध-शब्द  : वि० [ब० स०] जिसका शब्द जोर का नहीं, बल्कि आधा या कुछ धीमा होता है।
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अर्ध-शेष  : वि० [ब० स०] जिसका आधा ही शेष रह गया हो, आधा नष्ट हो चुका हो।
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अर्ध-सम  : वि० [तृ० त०] (छंद या वृत्त) जिसके पहले तथा तीसरे और दूसरे तथा चौथे चरणों में बराबर-बराबर मात्राएं या वर्ण हो। जैसे—दोहा, सोरठा आदि।
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अर्धसमवृत्त  : पुं० [अर्धसम, तृ० त०, अर्धसमवृत्त, कर्म० स०]=अर्द्धसम।
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अर्ध-हार  : पुं० [कर्म० स०] ६४ या ४॰ लडियों का हार।
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अर्धह्रस्व  : पुं० [एकदेशि, त० स०] (स्वर) जो लघु या ह्रस्व का भी आधा हो।
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अर्धाग्ङ  : पुं० [सं० अर्ध-अंग, कर्म० स०] १. आधा अंग या आधा शरीर। २. शिव का एक नाम। ३. दे० ‘अर्धाग्ङ घात’।
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अर्धाग्ङ-घात  : पुं० [स० त०] अंगघात रोग का एक प्रकार जिसमें शरीर के दाहिने या बाएँ सब अंग बिल्कुल अचेष्ट अक्रिय तथा सुन्न हो जाते हैं। (हेमिप्लेगिया)
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अर्धाग्ङिनी  : स्त्री० [सं० अर्धाग्ङ+इनि-ङीष्] विवाहित स्त्री या पत्नी जो पुरुष के आधे अंग के रूप में मानी जाती है।
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अर्धाग्ङी (गिन्)  : पु० [सं० अर्धाग्ङ+इनि] १. शिव। २. वह जो अर्धाग रोग से पीड़ित हो।
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अर्धाशी (शिन्)  : वि० [सं० अर्ध-अंश, एकदेशि० स० अर्धाश+इनि] आधे अंश, भाग या हिस्से का अधिकारी या पात्र।
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अर्धार्ध  : वि० [सं० अर्ध-अर्ध एकदेशि० त० स०] आधे का भी आधा। एक चौथाई।
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अर्धाली  : वि० [सं० अर्ध-अलि] चौपाई (छंद) का आधा भाग जिसमें दो चरण होते हैं।
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अर्धावभेदक  : पुं० [सं० अर्ध-अवभेदक, कर्म० स०] अध-कपारी या आधासीसी नामक रोग।
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अर्धाशन  : पुं० [अर्ध-शन, कर्म० स०] ऐसा भोजन या भोजन की वह मात्रा जिसमें आधा ही पेट भरें।
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अर्धासन  : पुं० [सं० अर्ध-आसन, एकदेशि, त० स०] किसी को अपनी बराबरी का समझकर उसका सम्मान करने के लिए उसे अपने साथ अपने ही आसन पर बैठाना अथवा अपने आसन का आधा अंश उसे देना।
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अर्धिक  : पुं० [सं० अर्ध+टिठन्-इक] १. अधकपारी या आधासीसी नामक रोग। २. ब्राह्मण पिता और वैश्य माता से उत्पन्न संतान।
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अर्धीकरण  : पुं० [सं० अर्ध√कृ+च्वि, ऊत्व+ल्युट्-अन] १. दो तुल्य या समान भागों में बाँटने की क्रिया या भाव। २. दो चीजें एक साथ या एक धरातल में बैठाने के लिए दोनों के आधे-आधे भाग छाँट या निकाल देना।
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अर्धुक  : वि० [सं०√ऋध् (वृद्धि)+उकञ्] उन्नत, समृद्ध या संपन्न।
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अर्धेदु  : पुं० [अर्ध-इंदु, एकदेशि त० स०] अर्द्ध चंद्र।
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अर्धेदुमौलि  : पुं० [ब० स०] शिव।
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अर्धोत्तोलित  : भू० कृ० [अर्ध-उत्तेलित, कर्म० स०] जो आधा (उचित या ठीक ऊँचाई से कम) उठाया गया हो। जैसे—अर्द्धोत्तोलित ध्वज।
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अर्धोदक  : पुं० [अर्ध-उदय, मध्य० स०] हिंदुओं की एक धार्मिक प्रथा जिसे मरणासन्न अथवा मृत व्यक्ति को दाह संस्कार करने से पहले किसी जलाशय या नदी में इस प्रकार रख देते हैं कि उसका आधा शरीर जल के अंदर और आधा शरीर बाहर रहे।
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अर्धोदय  : पुं० [अर्ध-उदय० ब० स०] एक पर्व जो माघ की उस अमावस्या को होता है जो रविवार व्यतीतपात योग तथा श्रवण नक्षत्र से युक्त होती है।
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अर्धोरुक  : पुं० [सं० अर्ध-उरू,एकदेशि, त० स०, अर्धोरू√काश् (दीप्ति)+ड] जाँघिया जिससे आधे उरु या जाँघे ढकी रहती है।
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अर्न  : पुं० [सं० अर्णस्] जल। पानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अर्पक  : वि० [सं०√ऋ (गति)+णिच्, पुक्+ण्वुल्-अक] किसी को कुछ अर्पण करने या नम्रतापूर्वक देनेवाला।
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अर्पण  : पुं० [सं०√ऋणिच्, पुक्+ल्युट्-अन] [कर्ता अर्पक भू० कृ० अर्पित] १. किसी को कुछ आदरपूर्वक कुछ देना या सौपना। नम्रतापूर्वक भेंट करना। २. विधिक क्षेत्र में, किसी वस्तु पर से अपना अधिकार या स्वत्त्व हटाकर उसे पूरी तरह से सदा के लिए किसी को देना या सौंपना। (आँफरिग) ३. स्थापित करना। रखना। जैसे—पदार्पण।
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अर्पणनामा  : पुं० =अर्पण-पत्र।
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अर्पण-पत्र  : पुं० [ष०त ०] वह पत्र जिसमें यह लिखा हो कि अमुक वस्तु या संपत्ति अमुक व्यक्ति को सदा के लिए अर्पित कर दी गई। (गिफ्ट डीड या डीड आँफ गिफ्ट)
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अर्पण-प्रतिभू  : पुं० [ष० त०] वह प्रतिभू या जमानतदार जो ऋणी के ऋण परिशोधन करने पर स्वयं उसका ऋण चुकाने को तैयार हो।
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अर्पना  : स० =अरपना। (अर्पित करना)।
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अर्पित  : भू० कृ० [सं०√ऋ +णिच्,पुक्+क्त] जो नमर्तापूर्वक किसी को अर्पण किया या दे दिया गया हो। अर्पण करके दिया हुआ।
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अर्पिस  : पुं० [सं०√ऋ +णिच्,पुक्+इसन्] १. हृदय का मांस। २. हृदय।
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अर्ब-दर्ब  : पुं० [सं० द्रव्य] धन-संपत्ति। दौलत।
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अर्बुद  : पुं० [सं०√अर्बु (गति)+विच्, उद्√इ√प्र (गति)+ड] १. गणित में, इकाई-दहाई के नवें स्थान की संख्या। दस करोड़। २. शरीर में गाँठ के रूप में होनेवाला रोग। (ट्यूमर) ३.गर्भ का वह रूप जो उसे दो महीने होने पर प्राप्त होता है। ४. राजस्थान का एक पर्वत। ५. बादल। मेघ। ६. एक नरक का नाम। ७. कद्रु के पुत्र, एक सर्प का नाम। ८. एक असुर का नाम।
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अर्बुदि  : पुं० [सं० अर्बुद+णिच् (ना० घा०)+इन्] १. सर्वव्यापक ईश्वर। २. एक राक्षस का नाम।
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अर्बुदी (दिन्)  : वि० [सं० अर्बुद+इनि] जिसे अर्बुद रोग हुआ हो।
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अर्भ  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+भ] १. शिशु। बालक। २. शिशिर ऋतु। ३. छत्र। ४. सागपात। ५. कुशा। ६. नेत्रबाला नामक औषधि। वि० १. मलिन। २. तुच्छ। ३. धुँधला।
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अर्भक  : वि० [सं० अर्भ+कन्] १. मात्रा के विचार से, अल्प, कम या थोड़ा। २. आकार के विचार से, क्षीण या दुबला-पतला। ३. मान के विचार से, छोटा, सूक्ष्म या हलका। ४. वय के विचार से बच्चा या शिशु। ५. बुद्धि के विचार से, अनजान या मूर्ख। ६. सदृश। समान। ७. नेत्रों से युक्त। आँखोंवाला। पुं० १. बालक। २. पशुओं का बच्चा। छौना। ३. कुशा।
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अर्म  : पुं० [सं०√ऋ+मन्] १. आँख का फूली नामक रोग। ढेंढर। २. खँडहर।
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अर्मनी  : पुं०=अरमनी।
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अर्य  : वि० [सं०√ऋ+यत्] १. उत्तम। श्रेष्ठ। २. प्रिय। ३. आदरणीय। पुं० १. मालिक। स्वामी। २. ईश्वर। ३. वैश्य।
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अर्यमा (मन्)  : पुं० [सं० अर्य√मा (मान)+कनिन्] १. सूर्य। २. बारह आदित्यों में से एक। ३. पितरों का एक गण या वर्ग। ४. उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र। ५. आक। मदार।
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अर्या  : स्त्री० [सं० अर्य+टाप्] १. वैश्य जाति की स्त्री। २. गृहिणी। ३. रखी हुई स्त्री। रखेली।
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अर्रबर्र  : पुं० [अनु०] झूठ-मूठ या व्यर्थ की बातें। बक-बक। बकवाद।
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अर्रा  : पुं० [?] १. एक जंगली वृक्ष जिसकी लकड़ी छत आदि पाटने के काम आती है। २. अरहर।
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अर्राना  : अ० [अनु०] १. चिल्लाना। २. जोर से पुकारना। ३. व्यर्थ की बातें करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अर्वट  : पु० [सं०√अर्व (हिंसा)+अटन्] भस्म। राख।
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अर्वाक् (च्)  : अव्य० [सं० अवर√अञ्च् (गति)+क्विन्, पृषो० अर्व आदेश] १. इस ओर। इधर। जैसे—अर्वाक्कालिक-इधर हाल का। २. किसी निश्चित मान या बिन्दु से कम अथवा पहले। जैसे—अर्वाक्शत् या अर्वाक् सहस्र (अर्थात् सौ या हजार से कम) ३. नीचे की ओर। जैसे—अर्वाक्-स्रोत-नीचे की ओर चलनेवाला।
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अर्वाक्-स्रोता (तस्)  : वि० [ब० स०] जिसका वीर्य प्रातः स्खलित होता रहता हो। ‘ऊर्ध्वरेस्ता का विपर्याय’।
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अर्वाचीन  : वि० [सं० अर्वाच्+ख+ईन] [भाव अर्वाचीनता] १. जो वर्त्तमान में बना या निर्मित्त हुआ हो। प्रस्तुत समय से संबंध रखनेवाला। आधुनिक। २. जो वर्त्तमान समय की विशेषताओं से युक्त हो अर्थात् अद्यतन, अनूठा तथा अपूर्व हो। (माडर्न) ३. जो दिनातीत या पुराना न हो। जैसे—अर्वाचीन कला या काव्य, अर्वाचीन चिकित्सा प्रणाली आदि।
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अर्श  : पुं० [सं०√ऋश् (गति)+अच्] बवासीर नामक रोग। (पाइल्स) पुं० [अ०] १. आकाश। मुहावरा—(किसी को) अर्श पर चढ़ाना=प्रशंसा आदि के द्वारा बहुत बड़ा या श्रेष्ठ ठहराना। दिमाग या मिजाज अर्श पर होना=बहुत अधिक अभिमान होना। २. स्वर्ग। ३. छत। पाटन। ४. बहुत ऊँचा आसन।
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अर्श-वर्त्म  : पुं० [ष० त०] बवासीर रोग का एक उग्र प्रकार या भेद।
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अर्शस  : पुं० [सं० अर्शस्+अच्] =अर्शी।
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अर्शहर  : पुं० [सं० अर्श√हृ(हरण करना)+अच्] अर्श या बवासीर नामक रोग में लाभ करनेवाली वस्तुएँ। जैसे—ओल या सूरन नामक कंद, तेजबल, भिलावाँ, सफेद सरसों आदि।
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अर्शी (शिन्)  : पुं० [सं० अर्श+इनि] बवासीर का रोगी।
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अर्शोध्न  : पुं० [सं० अर्शस्√हन् (हिंसा)+ट] =अर्शहर।
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अर्शोहित  : पुं० [सं० अर्शस्-हित, स० त०]=अर्शहर।
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अर्हत  : वि० [सं० अर्ह (पूजा)+झ (बा०) =अन्त] सुयोग्य। पुं० बुद्ध। पुं० जैनियों के एक जिन देव।
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अर्ह  : वि० [सं०√अर्ह+अच्] १. आदरणीय। पूज्य। २. उपयुक्त। योग्य। ३. अधिकारी या पात्र। पुं० १. ईश्वर। २. विष्णु। ३. इंद्र। ४. सोना। स्वर्ण। ५. पूजा। ६. गति। चाल। ७. योग्यता।
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अर्हण  : पुं० [सं० अर्ह्+ल्युट्-अन] आदर-सत्कार या पूजा करना।
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अर्हणा  : स्त्री० [सं० अर्ह+युच्-अन, टाप्]=अर्हण।
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अर्हणीय  : वि० [सं०√अर्ह+अनीयर] जिसका आदर-सत्कार या पूजा होने को हो अथवा जो उसका पात्र हो। आदरणीय। पूज्य।
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अर्हत्  : वि० [सं०√अर्ह्+शतृ] पूज्य। पुं० जिनदेव (जैनियों के देवता)।
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अर्हा  : स्त्री० [सं०√अर्ह+अङ-टाप्]=अर्हण।
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अर्हित  : भू० कृ० [सं०√अर्ह्+क्त] जिसका आदर सत्कार या पूजा हुई हो। पूजित।
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