शब्द का अर्थ
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काकंदि :
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स्त्री० [सं० ] आधुनिक कोकंद देश का पुराना नाम। |
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काक :
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पुं० [सं० कै (शब्द करना)+कन्] १. कौआ नामक प्रसिद्ध पक्षी। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो बहुत अधिक चालाक या धूर्त हो। २. माथे पर तिलक लगाकर बनाई हुई आकृति। पुं० =काग (वृक्ष और उसकी छाल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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काक-गोलक :
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पुं० [ष० त०] कौए की आँख की पुतली। विशेष—ऐसा प्रवाद है कि कौए की एक पुतली होती है जिसे वह आवश्यकतानुसार आँखों या गोलकों में पहुंचा सकता है। |
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काक-जंघा :
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स्त्री० [ब० स०] १. एक प्रकार की वनस्पति। चकसेनी। मसी। २. मुगवन नाम की लता। ३. गुंजा। घुँघची। |
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काकड़ा :
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पुं० [सं० कर्कट, प्रा० कक्कड़] १. बारहसिंघे की जाति का गाढ़े कत्थई रंग का एक जंगली पशु जो लगभग २॰-२२ फुट ऊंचा तथा ३ फुट लंबा होता है। २. एक प्रकार का पहाड़ी पेड़। |
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काकड़ासींगी :
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स्त्री० [सं० कर्कटश्रृंगी] एक प्रकार की पर-जीवी वनस्पति जो काकड़ा नामक वृक्ष पर चढ़कर फैलती और बढ़ती है और जिसका ओषधि में उपयोग होता है। |
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काकतालीय :
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वि० [सं० काकताल+छ-ईय] ठीक उसी प्रकार अचानक और आप-से-आप संयोगवश तथा सहसा हो जानेवाला जिस प्रकार किसी कौए के बैठते ही ताड़ का कोई फल गिर पड़ता है। |
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काकतालीय न्याय :
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पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का सिद्धांत सूचक न्याय या कहावत जिसका प्रयोग ऐसे अवसरों पर होता है जब कोई एक बड़ी घटना संयोगवश बहुत बड़ी घटना के साथ या एक ही समय में हो जाती है और दोनों घटनाओं में कार्य-कारण संबंध का धोखा होने की संभावना रहती है। |
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काकतंड़ी :
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स्त्री० [सं० काक√तुण्ड् (नष्ट करना)+अण्-ङीष्] कौआटोंटी (पौधा) |
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काक-दंत :
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पुं० [ष० त०] वैसी ही अनहोनी या असंभव बात जैसी कौए के दाँत होने की चर्चा। |
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काक-ध्वज :
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पुं० [ब० स०] बाड़वानल बाड़वाग्नि। |
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काक-नासा (नासिका) :
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स्त्री० [ब० स०] काक-जंघा नामक वनस्पति। |
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काक-पक्ष :
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पुं० [ब० स०] बालों के वे पट्टे जो पुराने जमाने में दोनों ओर कानों के ऊपर रक्खे जाते थे। |
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काक-पद :
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पुं० [ब० स०] १. लिखने में एक प्रकार का चिन्ह जो लेख में पंक्ति के नीचे यह सूचित करने के लिए लगाया जाता है कि यहाँ वह पद या शब्द छूट गया है जो उसके ऊपर लिखा गया है। इसका रूप यह है -^। २. हीरे का एक प्रकार का दोष। |
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काकपदी (दिन्) :
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वि० [सं० काक-पद, ष० त०+इनि] काकपद के आकार या रूप का। इस आकार का-^ |
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काकपुष्ट :
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पुं० [तृ० त०] कोयल। |
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काक-फल :
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पुं० [ब० स०] नीम का पेड़ जिसके फल (नीम कौड़ी) कौए खाते हैं। |
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काक-बंध्या :
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स्त्री० [उपमि० स०] ऐसी स्त्री जो एक संतान प्रसव करने के बाद बाँझ हो गई हो। एक बाँझ। |
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काकब :
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पुं० =काकपक्ष। |
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काक-बलि :
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स्त्री० [मध्य० स०] श्राद्ध के समय भोजन का वह अंश जो कौओं को दिय़ा जाता है। कागौर। |
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काकभुशुंडि :
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पुं० एक राम-भक्त ब्राह्मण जो लोमश ऋषि के शाप से कौआ हो गए थे। |
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काकमाची :
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स्त्री० [सं० काक√मञ्च् (धारण करना)+अण्, ङीष् (पृषो) नलोप] मकोय नामक पौधा और उसका फल। |
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काक-माता (तृ) :
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स्त्री० [ष० त०]=काकमाची। |
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काकमारी :
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स्त्री०=ककमारी (लता)। |
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काक-रव :
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पुं० [ष० त०] १. कौए का शब्द। २. [ब० स०] लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो व्यर्थ में अथवा जरा-सी बात होने पर होहल्ला मचाने लगे। ३. कायर या डरपोक व्यक्ति। |
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काकरी :
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स्त्री०=कंकड़ी। |
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काकरूक :
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पुं० [सं० कु√कृ (करना)+ऊक, कु०=क] १. उल्लू। २. पत्नी का आज्ञाकारी और भक्त। जोरू का गुलाम। |
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काकरेज :
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पुं० [फा०] एक प्रकार का गहरा काला रंग जिसमें ऊदे या नीले रंग की भी कुछ छाया होती हो। वि० उक्त प्रकार के रंग का। काकरेजी। |
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काकरेजा :
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पुं० [फा०] काकरेज रंग का कपड़ा। |
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काकरेजी :
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वि० [फा०] ऐसा गहरा काला जिसमें ऊदे या नीलेपन की भी कुछ झलक हो। पुं० उक्त प्रकार का रंग। |
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काकल :
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पुं० [कु-कल, ब० स० कु=क] [वि० काकली] १. गले के अंदर की घंटी। २. कौआ। |
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काकली :
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स्त्री० [सं० कु-कलि, प्रा० स० कु०=क, काकलि+ङीष्] १. ऐसी कल या नाद जो मंद तथा मधुर हो। कोमल तथा प्रिय ध्वनि या स्वर। २. संगीत में ऐसा मन्द तथा मधुर स्वर जो यह जानने के लिए उत्पन्न किया जाता है कि कोई जाग रहा है या सो रहा है। ३. घुँघची। ४. साठी धान। ५. काकली द्राक्षा (देखें)। |
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काकली-द्राक्षा :
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स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. एक प्रकार का छोटा अंगूर या दाख जिसे सुखा कर किशमिश बनाते हैं। २. किशमिश। |
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काकली-निषाद :
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पुं० [सं० मध्य० स०] संगीत में निषाद स्वर का एक विकृत रूप। |
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काकली-रव :
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पुं० [ब० स०] [सं० काकली-रवा] कोयल। |
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काकलोद :
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स्त्री० [सं० आकुलता] मन में होनेवाली किसी प्रकार की आकुलता या विकलता। |
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काकांगा :
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स्त्री० [सं० काक-अंग, ब० स० टाप्] काकजंघा। |
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काका :
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पुं० [फा० काका=बड़ा भाई] [स्त्री० काकी] १. पिता का छोटा भाई। चाचा। २. छोटा बच्चा। (पश्चिम)। स्त्री० [सं० काक+अच्, टाप्] १. कांकजंघा। मसी। २. काकोली। ३. घुँघची। ४. कठ-गूलर। कठमर। ५. मकोय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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काका-कौआ :
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पुं० =काकातुआ। |
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काकाक्षिगोलक :
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पुं० [काक-अक्षिगोलक, ष० त०]=काकगोलक (दे०)। |
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काकाक्षिगोलक-न्याय :
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पुं० [सं० कर्म० स०] उस स्थिति का सूचक नियम या सिद्धांत जिसमें कोई तत्त्व या बात दोनों ओर या पक्षों में समान रूप से ठीक बैठती हो। (अर्थात् उसी प्रकार बैठती हो जिस प्रकार लोकमान्यता के अनुसार कौए की एक पुतली उसके दोनों गोलकों में फिरती है।) काकातुआ पुं० [मला० ककाटू] तोते की जाति का एक बड़ा पक्षी जो प्रायः अपनी सुन्दरता के लिए पाला जाता है। |
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काकारि :
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पुं० [काक-अरि, ब० स०] उल्लू। |
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काकिणी :
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स्त्री० [सं०√कक् (लौल्य)+णिनि, ङीष्, णत्व] १. प्राचीन भारत में मुद्रा का एक मान जो पण का चौथाई भाग अर्थात् २॰ कौड़ियों का होता था। २. एक प्राचीन तौल जो एक माशे की चौथाई होती थी। ३. कौड़ी। ४. गुंजा। घुँघची। |
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काकिनी :
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स्त्री०=काकिणी। |
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काकिल :
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पुं० [सं० कु√कृ (विक्षेप)+क, ऋ=इर्, र=ल, कु०=क] मधुर ध्वनि या स्वर। काकली। |
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काकी :
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स्त्री० [सं० काक+ङीष्] काक अर्थात् कौए की मादा। स्त्री० [हिं० काक] १. काका या चाचा की पत्नी। चाची। २. छोटी बच्ची या लड़की। (पश्चिम)। |
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काकु :
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पुं० [सं०√कक्+अण्] १. वह विचित्र या परिवर्तित ध्वनि जो आश्चर्य, कष्ट, क्रोध, भय आदि के कारण मुँह से निकलती है। ऐसी बात जो अप्रत्यक्ष रूप से किसी का मन दुखाती हो। २. वक्रोक्ति अलंकार का एक भेद, जिसमें किसी की काकु उक्ति में कही हुई बात का दूसरे द्वारा अन्य अर्थ कल्पित किया जाता है। जैसे—नव रसाल वन विहरण सीला। सोह कि कोकिल विपिन करीला।—तुलसीदास। |
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काकुत्स्थ :
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पुं० [सं० ककुत्स्थ+अण्] ककुत्स्थ राजा के वंश में उत्पन्न व्यक्ति। २. श्रीराम -चन्द्रजी। |
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काकुद :
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पुं० [सं० काकु√दा (देना)+क] तालु। |
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काकुन :
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स्त्री०=कंगनी (अन्न)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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काकुल :
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पुं० [फा०] कनपटी पर लटकते हुए ऐसे लंबे बाल जो सुंदर जान पड़ें। जुल्फ। मुहावरा—काकुल छोड़ना=बालों की जुलफें इधर-उधर निकालना या लटकाना। काकुल झाड़ना=बालों में कंघी करना। |
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काकु-वक्रोक्ति :
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स्त्री० [कर्म० स०] दे० काकु। |
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काकोदर :
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पुं० [काक-उदर, ब० स०] [स्त्री० काकोदरी] साँप। |
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काकोल :
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पुं० [सं० कु√कुल् (पीड़ित करना)+घञ्, कु०=का] एक प्रकार का विष। |
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काकोली :
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स्त्री० [सं० काकोल+ङीष्] एक प्रकार की वनस्पति जिसका कंद औषध के काम आता है। |
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काकोलूकीय-न्याय :
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पुं० [सं० काक-उलूक, द्व० स० काकोलूक+छ-ईय, काकोलूकीय-न्याय, कर्म० स०] ऐसी स्थिति जो इस बात की सूचक हो कि यहाँ दोनों पक्षों में वैसा ही वैर है जैसे स्वभावतः कौवे और उल्लू में होता है। |
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