शब्द का अर्थ
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कुंज :
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पुं० [सं० कु√जन् (उत्पन्न होना)+ड, पृषो० सिद्धि] १. झाड़ियों, लताओं आदि से घिरा हुआ, प्रायः गोलाकार स्थान। २. हाथी का दाँत। पुं० [फा० मिं० सं० कुंज] १. कोना। २. छाजन में कोने पर पड़नेवाली लकड़ी। कोनिया। ३. चादरों, दुशालों आदि के चारों कोनों पर बनाये जानेवाले बूटे। कुंजक पुं० [सं० कंचुकी] कंचुकी। डेवढ़ी पर का वह चोबदार जो अंतःपुर में आता जाता हो। ख्वाजःसरा। पुं० =कंचुकी (अंतःपुर का पहरेदार)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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कुंज-कुटीर :
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पुं० [उपमि० स०] किसी कुंज के अंदर रहने का स्थान। लता-गृह। |
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कुंज-गली :
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स्त्री० [सं० +हिं] १. बगीचों आदि में वह पगडंडी या तंग रास्ता जो झाड़ियों, लताओं आदि से छाया हुआ हो। २. बहुत पतली या सँकरी गली, जिसमें जल्दी धूप न आती हो। |
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कुंजड़ :
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पुं० =कुंदुर (गोंद)। |
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कुँजड़ा :
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पुं० [सं० कुंज+हिं० ड़ा(प्रत्य)] [स्त्री० कुँजड़ी, कुँजड़िन] १. तरकारी, फल आदि होने या बेचनेवाले लोगों की एक जाति। पद—कुँजड़े-कसाई=छोटी जातियों के लोग। २. तरकारी, फल साग आदि बेचनेवाला दूकानदार। पद—कुँजड़े का गल्ला=किसी पदार्थ, विशेषतः धन, आदि की ऐसी राशि, जिसके आय-व्यय या लेन-देन का कोई हिसाब न रहता हो। |
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कुँजड़ियाना :
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पुं० [हिं० कुँजड़ा] वह स्थान जहाँ कुँजड़े बैठकर तरकारी बेचते हैं। उदाहरण—मींटिंग क्या होगी, कुँजड़ियाना बन जायगा।—वृंदावनलाल वर्मा। |
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कुंज-पक्षी (क्षिन्) :
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पुं० [मध्य० स०] नीलकंठ की तरह का एक प्रकार का पक्षी,जिसका घोंसला प्रायः कुंज के रूप में होता है। यह प्रायः झुंड बनाकर गाता-नाचता है। |
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कुंजर :
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पुं० [सं० कुंज+र] [स्त्री० कुंजरा, कुंजरी] १. हाथी। २. आठ दिग्गजों के कारण आठ की संख्या का वाचक शब्द। ३. हस्त नक्षत्र। ४. कच। बाल। ५. पीपल। ६. एक प्राचीन देश। ७. अंजना के पिता और हनुमान के नाना का नाम। ८. छप्पय के छंद का इक्कीसवाँ भेद जिसमें ५॰ गुरु और ५२ लघु अर्थात् कुल १॰२ वर्ण और १५२ मात्राएँ अथवा ५॰ गुरु और ४ ८ लघु अर्थात् कुल ९८ वर्ण और १४८ मात्राएँ होती है। ९. पाँच मात्राओं वाले छंदों के प्रस्तार में पहला प्रस्तार। वि० उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे—नर-कुंजर। |
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कुंजर-कण :
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स्त्री० [मध्य० स०] गज-पीपल (ओषधि)। |
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कुंजर-दरी :
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स्त्री० [ब० स०] मलय के पास के एक प्रदेश का पुराना नाम। |
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कुंजर-पिपली :
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स्त्री० [मध्य० स०] गज-पीपल (ओषधि)। |
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कुंजरा :
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स्त्री० [सं० कुंजर+टाप्] हथिनी। |
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कुंजराराति :
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पुं० [सं० कुंजर-अराति, ष० त०] हाथी का शत्रु, सिंह। शेर। |
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कुंजरारोह :
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पुं० [सं० कुंजर-आरोह, ष० त०] महावत। हाथीवान। |
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कुंजराशन :
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पुं० [सं० कुंजर-अशन, ष० त०] हाथी का भोज्य या खाद्य पीपल। |
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कुंजरी :
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स्त्री० [सं० कुंजर+ङीष्] हथिनी। |
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कुंजल :
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पुं० [सं० कु-जल, ब० स० पृषो० सिद्धि] काँजी। पुं० =कुंजर (हाथी)। |
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कुंज-बिहारी (रिन्) :
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पुं० [सं० कुंज-वि√हृ (हरना)+णिनि, उप० स०] १. कुंजों में बिहार करनेवाला पुरुष। २. श्रीकृष्ण का एक नाम। |
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कुंजा :
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पुं० [अ० कूजाः] मिट्टी का पुरवा। चुक्कड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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कुंजिका :
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स्त्री० [सं०√कुंज् (गति)+ण्वुल्-अक, टाप्, इत्व] काला जीरा। |
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कुंजित :
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वि०=कूजित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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कुंजी :
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स्त्री० [सं० कुंञ्चिका, गु० कुंची, पं० सि० कुंजी, कुझ, बँ० कूजी, उ० कुंझी] १. वह उपकरण जिससे ताला खोला तथा बन्द किया जाता है। ताली। २. ताली जैसी कोई वस्तु। जैसे—घड़ी या मोटर की कुंजी। ३. ऐसा सरल साधन, जिसे कोई उद्देश्य सहज में सिद्ध होता हो। मुहावरा—(किसी की) कुंजी हाथ में होना=परिचालित करने का सूत्र हाथ में होना। ४. ऐसी सहायक पुस्तक जिसमें किसी दूसरी कठिन पुस्तक के अर्थ भाव आदि स्पष्ट किये गये हों। (की उक्त सभी अर्थों के लिए)। |
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