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गोनंद  : पुं० [सं० गो√नन्द् (प्रसन्न होना)+णिच्+अण्] १. कार्तिकेय के एक गण का नाम। २. एक प्राचीन देश।
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गोन  : स्त्री० [सं० गोणी, गु० बं० गुण,सि० गूणी, मरा० गोण] १. वह दोहरा बोरा जो अनाज आदि भरकर बैलों की पीठ पर लादा जाता है। २. अनाज आदि भरने का बोरा। ३. कोई बड़ा थैला। ४. अनाज आदि की एक पुरानी तौल जो १६ मानी (२५६ सेर) की होती थी। स्त्री० [?] एक प्रकार का साग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० दे० ‘गून’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =गमन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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गोनर  : पुं० =गोनरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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गोनरखा  : पुं० [हिं० गोनरस्सी+रखना] १. नाव का वह मस्तूल जिसमें गोन बाँधकर उसे खींचते हैं। २. उक्त मस्तूल में रस्सी बाँधकर नाव को खीचनेवाला मल्लाह या मजदूर।
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गोनरा  : पुं० [सं० गुंद्रा] उत्तरी भारत में होनेवाली एक प्रकार की लंबी घास जो पशुओं के खाने और चटाइयाँ बनाने के काम आती है।
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गोनर्द  : पुं० [सं० गोनर्द (शब्द)+अच्] १. उत्तर-पश्चिमी भारत का एक प्राचीन देश जहाँ महर्षि पतंजलि का जन्म हुआ था। २. महादेव। शिव। ३. नागरमोथा। ४. सारस पक्षी।
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गोनर्दीय  : पुं० [सं० गोनर्द+छ-ईय] महर्षि पतंजलि जो गोनर्द देश के थे।
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गोना  : स० [सं० गोपन] १. छिपाना। लुकाना। उदाहरण–होइ मैदान परी अब गोई।–जायसी। २. चुराना। उदाहरण–नगर नवल कुँवर बर सुंदर मारग जात लेत मन गोई।–सूर।
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गोनास  : पुं० =गोनस।
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गोनिया  : स्त्री० [सं० गोण, हिं० कोना+इया (प्रत्य)] बढ़ई, लोहार आदि का एक समकोण जिससे वे दीवार, लकड़ी आदि की सिधाई जाँचते हैं। पुं० [हिं० गोन] वह जो अपनी या बैलों की पीठ पर गोन, अर्थात् बोरा लादकर ढोता हो। पुं० [हिं० गोन-रस्सी+इया (प्रत्य)] रस्सी बाँधकर उससे नाव खींचनेवाला मल्लाह।
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