शब्द का अर्थ
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जयंत :
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वि० [सं०√जि (जीतना)+झव्-अन्त] [स्त्री० जयंती] १. जय प्राप्त करनेवाला। विजयी। २. तरह-तरह के भेस बनानेवाला। बहुरुपिया। पुं० १. रुद्र। २. कार्तिकेय, इंद्र के पुत्र, धर्म के पुत्र, अक्रूर के पिता, दशरथ के मंत्री आदि लोगों का नाम। ३. संगीत में ध्रुवक जाति का एक ताल। ४. फलित ज्योतिष में एक योग जिसमें युद्ध के समय यात्रा करने पर विजय निश्चित मानी जाती है। |
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जयंत-पुर :
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पुं० [मध्य० स०] एक प्राचीन नगर जिसकी स्थापना निमिराज ने की थी और जिसका अवस्थान गौतम ऋषि के आश्रम के निकट था। |
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जयंतिका :
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स्त्री० [सं० जयंती+कन्-टाप्, हृस्व]=जयंती। |
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जयंती :
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वि० [सं०√जि (जीतना)+शतृ-ङीष्] विजय प्राप्त करने वाली। विजयिनी। स्त्री० १. वह स्त्री जिसने विजय प्राप्त की हो। २. दुर्गा। ३. पार्वती। ४. ध्वजा। ५. हल्दी। ६. अरणी और जैत नामक पेड़ों की संज्ञा। ७. बैंजंती का पौधा। ८. ज्योतिष का एक योग जो श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की आधी रात के समय रोहिणी नक्षत्र पड़ने पर होता है। ९. जन्माष्टमी। १॰. जौ के छोटे पौधे जो ब्राह्मण अपने यजमान को मंगल द्रव्य के रूप में विजयादशमी के दिन भेंट करता है। ११. किसी महापुरुष की जन्म-तिथि पर मनाया जानेवाला उत्सव। १२. किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के आरंभ होने की वार्षिक तिथि पर होनेवाला उत्सव। जैसे–स्वर्ण या हीरक जयंती। |
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जय :
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स्त्री० [सं० जि+अच्] किसी बहुत बड़े कार्य में मिलनेवाली महत्त्वपूर्ण विजय या सफलता। पद–जय गोपाल=भेंट होने पर पारस्परिक अभिवादन के लिए कहा जानेवला एक पद। मुहावरा–जय बोलना या मनाना=विजय सफलता आदि की कामना करना। पुं० १. विष्णु के एक पार्षद का नाम। २. ‘महाभारत’ नामक महाकाव्य का पुराना नाम। ३. संगीत में एक प्रकार का ताल। ४. ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति के प्रौष्ठपद नामक युग का तीसरा वर्ष। ५. युधिष्ठिर का उस समय का कल्पित नाम जब वे विराट के यहाँ अज्ञातवास कर रहे थे। ६. जयंती नामक पेड़। ७. लाभ ८. अयन। मार्ग। ९. वशीकरण। १॰. एक नाग। ११. दसवें मन्वन्तर के एक ऋषि। |
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जय-कंकण :
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पुं० [मध्य० स०] विजय का सूचक कंकण जो प्राचीन काल में विजयी को पहनाया जाता था। |
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जयक :
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वि० [सं० जय+कन्] जीतनेवाला। विजयी। |
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जयकरी :
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स्त्री० [सं० जय√कृ (करना)+ट-ङीष्] चौपाई नामक छंद का दूसरा नाम। |
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जय-कार :
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पुं० [ष० त०] १. किसी की जय कहने की क्रिया या भाव। २. वह पद या वाक्य जिसमें किसी की जय कही जाय। जैसे–बोलेगा सो निहाल सत् श्री अकाल। |
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जय-कोलाहल :
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पुं० [ब० स०] पासे का एक प्राचीन खेल। |
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जय-खाता :
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पुं० [हिं० जय=लाभ+खाता] वह बही जिसमें बनिये प्रतिदिन होनेवाले लाभ का हिसाब लिखते हैं। |
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जय-घोष :
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पुं० [ष० त०] जोर से कहीं जानेवाली किसी की जय। |
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जय-चिन्ह :
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पुं० [ष० त०] १. कोई ऐसा चिन्ह या संकेत जो किसी प्रकार की जीत का सचूक हो। जैसे–आखेट, युद्ध आदि में प्राप्त की हुई और अपने पास स्मृति के रूप में रखी जानेवाली कोई चीज। २. खेल, प्रतियोगिता आदि में विजयी को मिलनेवाली कोई चीज जो स्मारक के रूप में पास रखी जाय (ट्राफी)। |
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जय-जयकार :
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स्त्री० [हि०] सामूहिक रूप से किसी की बार-बार जय कहने की क्रिया या भाव। |
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जयजयवंती :
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स्त्री० [हिं०] रात के दूसरे पहर में गाई जानेवाली संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसे कुछ लोग मेघराज को आर्या और कुछ लोग मालकोश की सहचरी बताते हैं। |
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जय-जीव :
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पुं० [हिं० जय+जी] एक प्रकार का अभिवादन जिसका अर्थ है कि तुम्हारी जय हो और तुम चिरजीवी होओ। |
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जय-ढक :
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पुं=जयढक्का। |
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जय-ढक्का :
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स्त्री० [मध्य० स०] संगीत में एक ताल का नाम। |
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जयति :
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पुं० [सं० जयंत्] एक संकर राग जिसे कुछ लोग गौरी और ललित तथा कुछ लोग पूरिया और कल्याण के योग से बना हुआ मानते हैं। |
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जयति श्री :
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स्त्री० [हिं०] एक रागिनी जिसे दीपक राग का भार्या कहा गया है। |
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जयती :
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स्त्री=जयति। |
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जयत्कल्याण :
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पुं० [सं०] रात के पहले पहर में गाया जानेवाला संपूर्ण जाति का एकसंकर राग जो कल्याण और जयति-श्री के योग से बनता है। |
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जयत्सेन :
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पुं० [सं० जयन्ती-सेना, ब० स०] नकुल का वह नाम जो उसने स्वंय विराट् नगर में अज्ञातवास करते समय अपने लिए रखा था। |
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जय-दुंदुभी :
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स्त्री० [मध्य० स०] जीत होने पर बजाया जानेवाला डंका। |
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जय-दुर्गा :
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स्त्री० [कर्म० स०] दुर्गा की एक मूर्ति। (तंत्र)। |
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जयदेव :
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पुं० [सं०] संस्कृत के एक प्रसिद्ध कवि का नाम जो गीत गोविन्द के रचयिता थे। |
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जयद्बल :
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पुं० [सं० जयत्-बल, ब० स०] सहदेव का वह नाम जो उसने स्वयं विराट् नगर में अज्ञातवास करते समय अपने लिए रखा था। |
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जयद्रथ :
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पुं० [सं० जयत्-रथ, ब० स०] महाभारत में वर्णित एक राजा जिसने अभिमन्यु को मारा था और जिसका वध अर्जुन ने किया था। |
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जय-ध्वज :
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पुं० [मध्य० स०] विजय पताका। |
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जयना :
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स० [सं० जयन्] जय प्राप्त करना। जीतना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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जयनी :
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स्त्री० [सं०√जि+ल्युट्-अन, ङीष्] इन्द्र की कन्या का नाम। |
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जय-पत्र :
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पुं० [मध्य० स०] १. वह पत्र जो प्राचीन काल में पराजित राजा विजयी राजा को अपनी पराजय स्वीकार करते हुए लिखकर देते थे। २. न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को दिया हुआ वहपत्र जिसमें उसकी मुकदमें में होनेवाली जीत का उल्लेख होता है। |
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जय-पत्री :
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स्त्री० [मध्य० स०] जावित्री। |
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जय-पाल :
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पुं० [जय√पाल्(रक्षा करना)+अण्] १. जमालगोटा। २. विष्णु। ३. राजा। |
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जय-पुत्रक :
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पुं० [मध्य० स०] पुरानी चाल का एक प्रकार का पासा। |
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जय-प्रिय :
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पुं० [ब० स०] १. राजा विराट के भाई का नाम। २. ताल का एक भेद। |
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जयफर :
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पुं०=जायफल। उदाहरण–जयफर, लौंग सुपारि छोहारा। मिरिच होइ जो सहै न झारा।–जायसी। |
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जय-मंगल :
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पुं० [ब० स०] १. वह हाथी जिस पर विजयी राजा सवारी करता था। २. संगीत में एक प्रकार का ताल। |
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जय-मल्लार :
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पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सभी युद्ध स्वर लगते हैं। |
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जय-माल :
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स्त्री=जय-माला। |
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जय-माला :
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स्त्री० [मध्य० स०] १. विजेता को पहनाई जानेवाली माला। २. विवाह के समय फूलों आदि की वह माला जो कन्या अपने भावी पति के गले में डालती हैं। |
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जय-यज्ञ :
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पुं० [मध्य० स०] अश्वमेज्ञ यज्ञ। |
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जयरात :
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पुं० [सं०] महाभारत में वर्णित कलिंग देश का एक राजकुमार जो युद्ध में भीम के हाथों मारा गया था। |
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जय-लक्ष्मी :
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स्त्री० [मध्य० स०] जय-श्री। विजय-श्री। |
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जय-लेख :
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पुं०=जय-पत्र (दे०) |
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जय-वाहिनी :
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स्त्री० [ष० त०] इंद्राणी। शची। |
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जयशाल :
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पुं० [सं०] यादव वंश के प्रसिद्ध राजा जिन्होंने जैसलमेर नगर बसाया था। |
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जय-श्रृंग :
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पुं० [मध्य० स०] जय-ध्वनि करनेवाला। नरसिंघा। |
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जय-श्री :
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स्त्री० [ष० त०] १. विजय। २. विजय की अधिष्त्राती देवी। ३. संध्या के समय गाई जानेवाली संपूर्ण राग की एक रागिनी। |
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जय-स्तंभ :
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पुं० [मध्य० स०] वह स्तम्भ या बहुत ऊंची वास्तु-रचना जो किसी देश पर विजय की स्मृति में बनाई जाती है। |
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जया :
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स्त्री० [सं०√जि (जीतना)+अच्-टाप्] १. दुर्गा, दुर्गा की सहचरी तथा पार्वती जी का नाम। २. अरणी, जयंती तथा शमी के वृक्षों की संज्ञा। ३. अड़हुल का फूल। ४. हरी दूब। ५. हरीतकी। हड़। ६. भाँग। ७. पताका। ८. सोलह मातृकाओं में से एक। ९. माघ शुक्ला एकादशी। १॰. कृष्ण तथा शुक्ल पक्षों की तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी तिथियाँ। वि० स्त्री० जय दिलानेवाली। |
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जयदित्य :
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पुं० [सं०] काश्मीर के एक प्राचीन राजा जो काशिकावृत्ति के कर्त्ता माने जाते हैं। |
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जया-द्वय :
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स्त्री० [ष० त०] जयंती और हड़। |
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जयानीक :
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पुं० [सं०] १. राजा द्रुपद के एक पुत्र का नाम। २. राजा विराट् के भाई का नाम। |
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जयावती :
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स्त्री० [सं० जया+मतुप्, वत्व-ङीष्] १. कार्तिकेय की एक मातृका का नाम। २. संकर जाति की एक रागिनी। |
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जयावह :
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वि० [सं० जय-आ√वह् (पहुँचाना)+अच्] जय दिलानेवाला। |
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जयाश्व :
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पुं० [सं०] राजा विराट् के एक भाई का नाम। |
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जयिष्णु :
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वि० [सं०√जि (जीतना)+इष्णुच्] १. जय दिलानेवाला। विजय प्राप्त करनेवाला। २. जो बराबर जीतता रहता हो। |
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जयी(यिन्) :
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वि० [सं०√जि (जीतना)+इनि] जिसकी जय अर्थात् विजय हुई हो। स्त्री० =जई। |
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जयेंद्र :
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पुं० [सं०] काश्मीर के राजा विजय के एक पुत्र का नाम। |
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जयेती :
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स्त्री० [सं०] एक संकर रागिनी। |
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जयोल्लास :
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पुं० [जय-उल्लास, ष० त०] जय अर्थात् विजय मिलने पर होनेवाला उल्लास। |
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जय्य :
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वि० [सं०√जि+यत्] जो जीता जा सकता हो। जीते जाने के योग्य। |
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