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द्वंद  : पुं० [द्वंद] दो चीजों का जोड़ा। युग्म। पुं० [सं० द्वंद] घड़ियाल जिस पर आघात करके समय सूचित किया जाता है। पुं० [सं० द्वंद] १. जोड़ा। युग्म। २. दो आदमियों में होनेवाली लड़ाई। ३. उत्पात। उपद्रव। ४. झगड़ा। बखेड़ा। ५. उलझन। झंझट। क्रि० प्र०—खड़ा करना।—मचाना। ६. कष्ट। दुःख। ७. आशंका। खटका। ८. डर। भय। ९. असमंजस। दुविधा। १॰. दे० ‘द्वंद’। स्त्री०=दुंदुभी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
द्वंदज  : वि०=द्वंद्वज।
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द्वंद-युद्ध  : पुं०=द्वंद्ध-युद्ध।
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द्वंदर  : वि० [सं० द्वंद्वालु] झगड़ालू। लड़का।
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द्वंद्व  : पुं० [सं० द्वि शब्द से नि० सिद्धि] १. जोड़ा। युग्म। २. ऐसे दो गुण, पदार्थ या स्थितियाँ जो परस्पर विरोधी हों। जैसे—सुख और दुःख ताप और शीत। ३. प्राचीन काल में दो शस्त्र योद्धाओं में होनेवाला संघर्ष जिसमें पराजित को विजेता की आज्ञा माननी पड़ती थी अथवा उसके वश में होकर रहना पड़ता था। ४. दो विरोधी अथवा विभिन्न शक्तियों, विचार धाराओं आदि में स्वयं आगे बढ़ने और दूसरी को पीछे हटाने के लिए होनेवाला संघर्ष। ५. मानसिक संघर्ष। ६. उत्पात। उपद्रव। ७. झगड़ा। बखेड़ा। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना। ८. व्याकरण में एक प्रकार का समास जिसमें के दोनों अथवा सभी पदों की समान रूप से प्रधानता होती है और जिसका अन्वय एक ही क्रिया के साथ होता है। जैसे—सुख-दुःख यों ही आते-जाते रहते हैं। ९. गुप्त बात। रहस्य। १॰. किला। दुर्ग।
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द्वंद्वचर  : वि० [सं० द्वंद्व√चर्(गति)+ट] (पशु या पक्षी) जो अपने जोड़े के साथ रहता हो। पुं० चकवा या चक्रवाक पक्षी।
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द्वंद्वचारी (रिन्)  : पुं० [सं० द्वंद्व√चर्+णिनि] [स्त्री० द्वंद्वचारिणी] चकवा।
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द्वंद्वज  : वि० [सं० द्वंद्व√जन् (उत्पत्ति)+ड] किसी प्रकार के द्वंद्व से उत्पन्न। जैसे—(क) कफ और वात के प्रकोप से उत्पन्न द्वंद्वज रोग। (ख) राग-द्वेष से उत्पन्न द्वंद्वज कष्ट या दूषित मनोवृत्ति।
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द्वंद्व-युद्ध  : पुं० [ष० त०] १. वह युद्ध या लड़ाई जो दो दलों, व्यक्तियों आदि में से और जिसमें कोई तीसरा सम्मिलित न हो। २. दो आदमियो में होनेवाली हाथा-पाई या कुश्ती।
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द्वंद्वी (द्विन्)  : वि० [सं० द्वंद्व+इनि] १. परस्पर मिलकर युग्म बनानेवाले (दो)। २. परस्पर विरुद्ध रहनेवाले (दो)। ३. द्वंद्व (उपद्रव या झगड़ा) करने या मचानेवाला। पुं० झगड़ालू व्यक्ति।
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