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शब्द का अर्थ

परिंदगी  : स्त्री० [फा०] १. पक्षियों का जीवन। २. परिन्दों की उड़ान।
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परिंदा  : पुं० [फा० परिंदः] चिड़िया। पक्षी।
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परि  : उप० [सं०√पृ (पूर्ति)+इन्] एक संस्कृत उपसर्ग जो प्रायः क्रियाओं से बनी हुई संज्ञाओं के पहले लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है। १. आस-पास या चारों तरफ ओर। जैसे—परिक्रमण, परिभ्रमण आदि। २. अच्छी या पूरी तरह अथवा हर तरह। जैसे—परिकल्पन, परिवर्द्धन, परिरक्षण आदि। ३. अतिरिक्त रूप से, बहुत अधिक या बहुत जोरों से। जैसे—परिकंप, परिताप, परित्याग, परिश्रम आदि। ४. दोष दिखलाते या निंदनीय ठहराते हुए। जैसे—परिवाद, परिहास आदि। ५. किसी विशिष्ट क्रम या नियम से। जैसे—परिच्छेद। विशेष—(क) कुछ अवस्थाओं में यह विशेषणों और अन्य प्रकार की संज्ञाओं तथा प्रत्ययों के पहले भी लगता और बहुत-कुछ उक्त प्रकार के अर्थ देता है। जैसे—परिपूर्ण=अच्छी तरह से भरा हुआ; परिलघु=बहुत ही छोटा; परितः=चारों ओर; परिधि= चारों ओर का घेरा; पंर्यग्नि=चारों ओर जानेवाली अग्नि से घिरा हुआ; पर्यश्रु=उमड़ते हुए आँसुओंवाला। (ख) जुए के दाँव, पासे, संख्या आदि के प्रसंग में यह कुछ शब्दों के अन्त में लगकर ‘हारा हुआ’ का भी अर्थ देता है। जैसे—अक्षपरि=पासे के खेल में हारा हुआ। (ग) कहीं-कहीं इसके रूप ‘पर’ भी हो जाता है; परन्तु अर्थ ज्यों का त्यों रहता है। जैसे—परिवाह और परीवाह; परिहास और परीहास आदि। अव्य० [?] १. तरह या प्रकार से। उदा०—पिड़ि पहिर तै नवी परि।—प्रिथीराज। २. के तुल्य। के बराबर। समान। उदा०—पेखि कली पदमिणी परी।—प्रिथीराज। विशेष—उक्त अर्थों में यह शब्द राजस्थानी के अतिरिक्त गुजराती और मराठी में भी इसी रूप में प्रचलित है।
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परि-कंप  : पुं० [सं० परि√कम्प् (काँपना)+घऽञ्] बहुत जोरों का कंपन।
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परिक  : स्त्री० [देश०] बहुत अधिक खोटी या मिलावटवाली चाँदी।
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परि-कथा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बौद्धों के अनुसार, कोई धार्मिक कथा का विवरण। २. कहानी।
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परि-कर  : पुं० [सं० पर√कृ (विक्षेप)+अप्] १. पर्यंक। पलंग। २. घर या परिवार के लोग। ३. किसी के आस-पास या संग-साथ रहनेवाले लोग। जैसे—राजाओं का परिकर। ४. वृन्द। समूह। ५. तैयारी। समारंभ। ६. कमरबन्द। पटका। ६. विवेक। ८. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी विशेष्य से पहले किसी विशिष्ट अभिप्राय से विशेषण लगाये जाते हैं। जैसे—हिमकर वदनी (ताप हरण करनेवाली नायिका)।
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परिकरमा  : स्त्री०=परिक्रमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिकरांकुर  : पुं० [सं० परिकर-अंकुर, ष० त०] वह अर्थालंकार जिसमें विशेष्य का कथन किसी विशिष्ट अभिप्राय से किया जाता है।
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परिकर्तन  : पुं० [सं० परि√कृत् (काटना)+ल्युट्—अन] १. चारों ओर से काटना। २. गोलाकार काटना। ३. शूल।
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परिकर्तिका  : स्त्री० [सं० परि√कृत्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] शूल।
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परिकर्म (कर्मन्)  : पुं० [सं० परि√कृ (करना)+मनिन्] १. देह को सजाने का काम। २. शरीर का श्रृंगार या सजावट।
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परिकर्मा (कर्मन्)  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] नौकर। सेवक।
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परिकर्षण  : पुं० [सं०] खेती-बारी के काम के लिए जमीन जोतना, बोना आदि।
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परिकलक  : पुं० [सं० परि√कल् (गिनना)+णिच्+ ण्वुल्—अक] १. परिकलन करने अर्थात् हिसाब लगाने या लेखा करनेवाला व्यक्ति। २. एक तरह का आधुनिक यंत्र जो कई प्रकार का काम जल्दी और सहज में करता है। ३. वह पुस्तक जिसमें अनेक प्रकार के लगे हुए हिसाबों के बहुत से कोष्ठक होते हैं। (कैलकुलेटर, उक्त दोनों अर्थों में)
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परिकलन  : पुं० [सं० परि√कल्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिकलित] १. गणित में वह गणना जो कुछ जटिल होती है तथा जिसमें कुछ विशिष्ट तथा निश्चित क्रियाओं की सहायता लेनी पड़ती है। (कैलकुलेशन)
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परिकलित  : भू०-कृ० [सं० परि√कल्+णिच्+क्त] जिसका परिकलन हो चुका हो।
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परिकल्पन  : पुं० [सं० परि√कृप् (सामर्थ्य)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिकल्पित] १. परिकल्पना करने की क्रिया या भाव। २. किसी विषय पर होनेवाला चिंतन या मनन। ३. बनावट। रचना। ४. विभाजन। ५. दे० ‘परिकल्पना’।
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परिकल्पना  : स्त्री० [सं० परि√कृप्+णिच्+युच्—अन+टाप्] १. जिस बात की बहुत-कुछ संभावना हो उसे पहले ही मान लेना या उसके नाम, रूप आदि की कल्पना कर लेना। २. केवल तर्क के लिए कोई बात मान लेना। ३. कुछ विशिष्ट आधारों पर कोई बात ठीक या सही मान लेना। ४. गणित में कोई विशिष्ट मान या राशि निकलने से पहले उसके लिए कोई निश्चित मान राशि या चिह्न अवधारित करना। (प्रिज़म्पशन)
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परिकल्पित  : भू० कृ० [सं० परि√कृप्+क्त] १. (बात या विषय) जिसकी परिकल्पना की गई हो। २. (पदार्थ या रूप) जो परिकल्पना के फल-स्वरूप बना या प्रस्तुत हुआ हो। ३. जो केवल तर्क के लिए मान लिया गया हो। ४. जो कुछ विशिष्ट आधारों पर ठीक या सही मान लिया गया हो। ५. कल्पित। मन-गढ़न्त। ६. ठहराया या ठीक किया हुआ। निश्चित। ६. बनाया हुआ। रचित।
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परिकांक्षित  : पुं० [सं० परि√काङ्क्ष (चाहना)+क्त] १. भक्त। २. तपस्वी।
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परिकीर्ण  : भू० कृ० [सं० परि√कृ+क्त, इत्व, नत्व] १. फैला य फैलाया हुआ विस्तृत। २. छितरा या छिटकाया हुआ। ३. समर्पित।
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परिकीर्तन  : पुं० [सं० परि√कृत् (जोर से शब्द करना) +ल्युट्—अन] १. खूब ऊँचे स्वर से कीर्तन करना। २. किसी के गुणों के बहुत अधिक और विस्तारपूर्वक किया जानेवाला वर्णन।
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परिकीर्तित  : भू० कृ० [सं० परि√कृत्+क्त] जिसका परिकीर्तन हुआ हो या किया गया हो।
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परि-कूट  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. नगर या दुर्ग के फाटक को घेरनेवाली खाईं। २. एक नागराज का नाम।
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परिकूल  : पुं० [सं० प्रा० स०] कूल अर्थात् किनारे के पास का स्थान।
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परिकेंद्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] ज्यामिति में परिवृत्त (देखें) का केन्द्र।
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परिकोप  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या प्रचंड क्रोध।
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परिक्रम  : पुं० [सं० परि√क्रम् (गति)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। २. घूमना। ३. सैर करने के लिए घूमना। टहलना। ४. किसी काम की जाँच या निरीक्षण के लिए जगह-जगह जाना या घूमना। (टूर) ५. प्रवेश। ६. दे० ‘क्रम’। ६. दे० ‘परिक्रमा’।
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परिक्रमण  : पुं० [सं० परि√क्रम्+ल्युट्—अन्] १. चारों ओर चलने अथवा घूमने, टहलने या सैर करने की क्रिया या भाव। २. किसी काम की देख-रेख के लिए जगह-जगह जाना। दौरा करना। ३. परिक्रमा करना।
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परिक्रम-सह  : पुं० [सं० परिक्रम√सह् (सहना)+अच्] बकरा।
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परिक्रमा  : स्त्री० [सं० परि√क्रम्+अ+टाप्] १. चारों ओर चक्कर लगाना या घूमना। २. किसी तीर्थ, देवता या मंदिर के चारों ओर भक्ति और श्रद्धा से तथा पुण्य की भावना से चक्कर लगाने की क्रिया। प्रदक्षिणा। ४. उक्त प्रकार का चक्कर लगाने के लिए नियत किया या बना हुआ मार्ग।
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परिक्रय  : पुं० [सं० परि√क्री (खरीदना)+अच्] १. खरीदने दी क्रिया या भाव। खरीद। २. भाड़ा। ३. मजदूरी। ४. पारिश्रमिक या मजदूरी तै करके किसी को किसी कार्य पर लगाना। ५. व्यापारिक कार्यों के लिए माल आदि का होनवाला विनिमय। ६. इस प्रकार दिया या लिया हुआ माल।
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परिक्रांत  : वि० [सं० परि√क्रम्+क्त] जिसके चारों ओर चला या चक्कर लगाया जा सके।
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परिक्रामी  : वि० [सं०] १. परिक्रमा करने अर्थात् चारों ओर घूमनेवाला। २. बराबर एक स्थान से दूसरे पर जाता या घूमता रहनेवाला।
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परिक्रिया  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज को चारों ओर से दीवार, खाईं आदि से घेरने की क्रिया या भाव। २. स्वर्ग की कामना से किया जानेवाला एक प्रकार का यज्ञ। ३. आनन्द, मोह आदि के लिए की जानेवाली कोई क्रिया या आयोजन।
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परिक्लांत  : वि० [सं० परि√क्लम् (थकना)+क्त] जो थककर चूर हो गया हो।
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परिक्लिष्ट  : वि० [सं० परि√क्लिश् (कष्ट सहना)+क्त] १. बहुत अधिक क्लिष्ट। २. तोड़ा-फोड़ा और नष्ट-भ्रष्ट किया हुआ।
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परिक्लेद  : पुं० [सं० परि√क्लिद् (गीला होना)+घञ्] आर्द्रता। नमी।
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परिक्वणन  : वि० [सं० परि√क्वण् (शब्द करना)+ ल्युट्+अन] बहुत ऊँचा (स्वर)। बादल जो बहुत ऊँचा स्वर करता है।
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परिक्षत  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिक्षति] १. जिसे बहुत अधिक क्षति पहुँची हो। २. जिसे बहुत अधिक चोट लगी हो। आहत। ३. नष्ट-भ्रष्ट।
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परिक्षय  : पुं० [सं० प्रा० स०] पूरा और सामूहिक विनाश।
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परिक्षव  : पुं० [सं० परि+क्षु (शब्द करना)+अप्] अशुभ सगुनवाली छींक।
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परिक्षा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] कीचड़। स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिक्षाम  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक क्षीण या दुर्बल।
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परिक्षालन  : पुं० [सं०√क्षल् (धोना)+णिच्+ल्युट्—अन] १. वस्त्र आदि धोने की क्रिया या भाव। २. धोने का काम।
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परिक्षित्  : पुं० [सं० परि√क्षि (नाश)+क्विप्, तुक्-आगम] १. एक प्रसिद्ध प्रतापी राजा जो अभिमन्यु के पुत्र और जनमेजय के पिता थे। २. अग्नि।
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परिक्षिप्त  : भू० कृ० [सं० परि√क्षिप् (प्रेरणा)+क्त] १. जो चारों ओर से घिरा या घेरा गया हो। २. फेंका और त्यागा हुआ।
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परिक्षीण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक दुर्बल। २. निर्धन। ३. दे० ‘शोषाक्षय’।
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परिक्षेत्रिक  : वि० [सं०] दे० ‘परिनागर’।
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परिक्षेप  : पुं० [सं० परि√क्षिप्+घञ्] १. गदा को चारों ओर घुमाते हुए प्रहार करना। २. अच्छी तरह से चलना-फिरना या घूमना-टहलना। ३. वह पट्टी या सीमा जिससे कोई चीज घिरी हुई हो। ४. फेंकना। ५. परित्याग करना।
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परिखन  : वि० [हिं० परखना] १. परखनेवाला। २. प्रतीक्षा करनेवाला। स्त्री०=परख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिखना  : अ० १.=परखना। २.=परेखना (प्रतीक्षा करना)।
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परिखा  : स्त्री० [सं० परि√खन् (खोदना)+ड+टाप्] १. दुर्ग, नगरी आदि के चारों ओर बनी हुई गहरी खाईं। २. गहराई।
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परिखात  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज के चारों ओर बना हुआ गड्ढा। २. खाईं। परिखा।
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परिखान  : स्त्री० [सं० परिखात] कच्ची सड़क या जमीन पर बना हुआ गाड़ी के पहिए का चिह्न।
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परिखिन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक खिन्न या दुःखी।
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परिखेद  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक थकावट।
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परिख्यात  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिख्याति] जिसकी यथेष्ट ख्याति हो।
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परिख्याति  : स्त्री० [प्रा० स०] चारों ओर फैली हुई यथेष्ट ख्याति।
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परिगंतव्य  : वि० [सं० परि√गम् (जाना)+तव्यत्] १. जिसे प्राप्त किया जा सके। २. जिसे जाना जा सके। जिस तक पहुँचा जा सके।
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परिगणक  : पुं० [सं० परि√गण्+ण्वुल—अक] परिगणन करनेवाला अधिकारी या कर्मचारी। (इन्युमेरेटर)
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परिगणन  : पुं० [सं० परि√गण् (गिनना)+ल्युट—अन] १. अच्छी तरह गिनना। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य से किसी स्थान पर होनेवाली वस्तुओं आदि को एक-एक करके गिनना। (इन्युमेरेशन) जैसे—जनसंख्या का परिगणन, पुस्तकालय की पुस्तकों का परिगणन।
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परिगणना  : स्त्री० [सं० प्रा० स०]=परिगणन।
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परिगणनीय  : वि० [सं० परि√गण्+अनीयर्] परिगणन किये जाने के योग्य। २. जिसका परिगणन होने को हो या हो सके।
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परिगणित  : वि० [सं० परि√गण्+क्त] १. जिसका परिगणन हो चुका हो। २. जिसका उल्लेख या गणन किसी अनुसूची में हुआ हो। अनुसूचित। जैसे—परिगणित जन-जातियाँ। (शेड्यूल्ड)
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परिगण्य  : वि० [सं० परि√गण्+यत्] परिगणनीय।
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परिगत  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. चारों ओर से घिरा हुआ। (सर्कम-स्क्राइब्ड) २. गुजरा या बीता हुआ। गत। ३. मरा हुआ। मृत। ४. भूला हुआ। विस्तृत। ५. जाना हुआ। ज्ञात। मिला हुआ। प्राप्त।
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परिगमन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी के चारों ओर जाना। २. जानना। ३. प्राप्त करना।
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परिगर्भिक  : पुं० [सं० परिगर्भ, प्रा० स०,+ठन्—इक] गर्भवती माता का दूध पीने से बच्चों को होनेवाला एक प्रकार का रोग।
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परिगर्वित  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक गर्व या घमंड करनेवाला। बहुत बड़ा अभिमानी।
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परिगर्हण  : पुं० [सं० प्रा० स०] अतिनिंदा।
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परिगलित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. गिरा हुआ। च्युत। २. अच्छी तरह गला हुआ। ३. पिघला हुआ। तरल। ४. गायब। लुप्त। ५. डूबा हुआ।
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परिगह  : पुं० [सं० परिग्रह] घर या परिवार के अथवा आपसदारी के लोग। आत्मीय और कुटुंबी।
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परिगहन  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक गहन।
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परिगहना  : स० [परिग्रहण] ग्रहण करना। अंगीकार या स्वीकार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिगीत  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका बहुत अधिक गुण-कीर्तन हुआ या किया गया हो।
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परिगीत  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] एक प्रकार का वर्ण-वृत्त।
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परिगुंठन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिगुणी] शिक्षा, प्रशिक्षा आदि के द्वारा प्राप्त किया हुआ वह गुण या योग्यता जिससे मनुष्य ज्ञान आदि के किसी नियत और मान्य मानक तक पहुँच जाता है। और प्रायः उसका प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लेता है। (क्वालिफिकेशन)
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परिगुणन  : पुं [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिगुणित] किसी चीज को बढ़ाकर या संख्या को गुणा करके गई गुना अधिक बढ़ाना। (मल्टीप्लिकेशन)
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परिगुणित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका परिगुणन हुआ हो।
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परिगुणी (णिन्)  : वि० [सं० परिगुण+इनि] जिसने कोई परिगुण अर्जित किया हो। (क्वालिफायड)
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परिगूढ़  : वि० [सं० प्रा० स०] परिगहन। (दे०)
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परिगृद्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत बड़ा लालची। अतिलोभी।
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परिगृहीत  : भू० कृ० [सं० परि√ग्रह् (स्वीकार)+क्त] १. अंगीकार ग्रहण या स्वीकार किया हुआ। गृहीत। स्वीकृत। २. प्राप्त। ३. किसी के साथ मिला या मिलाया हुआ। सम्मिलित।
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परिगृह्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह जिसे ग्रहण किया गया हो अर्थात् पत्नी।
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परिग्रह  : पुं० [सं० परि√ग्रह्+अप्] १. दान लेना। प्रतिग्रह। २. प्राप्ति। ३. धन आदि का संग्रह। ४. मंजूरी। स्वीकृति। ५. अनुग्रह। दया। मेहरबानी। ६. किसी स्त्री को पत्नी के रूप में ग्रहण करना। पाणिग्रहण। ६. पत्नी। भार्या। ८. परिवार के लोग। परिजन। ९. उपहार, भेंट आदि के रूप में ग्रहण की जानेवाली वस्तु। १॰. सेना का पिछला भाग। ११. सूर्य या चंद्र का ग्रहण। १२. कंद। मूल। १३. शाप। १४. कुसुम। शपथ। १५. विष्णु का एक नाम। १६. कुछ विशिष्ट वस्तुएँ संग्रह करने का व्रत। १६. जैन शास्त्रों के अनुसार तीन प्रकार के प्रगति निबंधन कर्म—द्रव्य परिग्रह, भाव परिग्रह और द्रव्यभाव परिग्रह।
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परिग्रहण  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से ग्रहण करना। २. कपड़े पहनना।
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परिग्रहीता (तृ)  : पुं० [सं० परी√ग्रह्+तच्] १. वह जिसने किसी को अंगीकार या ग्रहण किया हो। २. पति। ३. किसी को दत्तक बनाने या गोद लेनेवाला व्यक्ति।
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परिग्राम  : पुं० [सं० अव्य० स०] गाँव के चारों ओर या सामने का भाग।
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परिग्राह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. एक विशेष प्रकार की यज्ञ वेदी। २. बलि चढ़ाने के स्थान पर बना हुआ चारों ओर का घेरा।
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परिग्राह्य  : वि० [सं० प्रा० स०] जो आदरपूर्वक ग्रहण किये जाने के योग्य हो।
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परिघ  : पुं० [सं० परि√हन् (हिंसा)+अप्, घ—आदेश] १. लकड़ी, लोहे आदि का ब्योंड़ा। अर्गल। २. आड़ या रुकावट के लिए खड़ी की हुई कोई चीज। ३. कोई ऐसा तत्त्व या बात जो किसी काम को यथा-साथ्य पूरी तरह से रोकने में समर्थ हो। (बेरियर) ४. वह दंडा जिसके सिरे पर लोहा जड़ा हुआ हो। लोहाँगी। ५. बरछा। भाला। ६. मुद्गर। ७. कलश। घड़ा। ८. गोपुर। फाटक। ९. घर। मकान। १॰. तीर। वाण। ११. पर्वत। पहाड़। १२. वज्र। १३. जल का घड़ा। १४. चंद्रमा। १५. सूर्य। १६. नदी। १७. स्थल। १८. एक प्रकार का मूढ़ गर्भ। १९. कार्तिकेय का एक अनुचर। २॰. ज्योतिष के २६ योगों में से १९वाँ योग। २१. शेषनाग। २२. अविद्या जो मनुष्य को आनंद और सुख से दूर रखती है। २३. वे बादल जो सूर्य के उदय या अस्त होने के समय उसके सामने आ जायँ।
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परिघट्टन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिघट्टित] तरल पदार्थ को चलाना।
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परिघ-मूढ़-गर्भ  : पुं० [सं० मूढ़-गर्भ कर्म० स०, परिघ-मूढ़ा—गर्भ, उपमि० स०] वह बालक जो प्रसव के समय अर्गल या परिध की तरह अटक जाय।
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परिधर्म  : पुं० [सं० परि√घृ (बहना)+मन्] एक तरह का यज्ञ-पात्र जिसमें मदिरा आदि बनाई जाती थी।
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परिधर्म्य  : पुं० [सं० परिघर्म+यत्] यज्ञ में काम आनेवाला एक प्रकार का पात्र।
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परिघात  : पुं० [सं० परि+हन् (मारना)+घञ्, वृद्धि—न, त] १. मारडालना। हत्या। हनन। २. ऐसा अस्त्र जिससे किसी की हत्या हो सकती हो।
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परिघातन  : पुं० [सं० परि√हन्+णिच्+ल्युट्—अन] मार डालने की क्रिया या भाव। वध। हत्या।
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परिघाती (तिन्)  : वि० [सं० परि√हन्+णिच्+णिनि] हत्यारा।
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परिघृष्ट  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या चारों ओर से घिरा हुआ।
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परिघृष्टिक  : पुं० [सं० परिघृष्ट+तन्—इक] एक प्रकार का वानप्रस्थ।
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परिघोष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. जोर का शब्द। घोर आवाज। २. [प्रा० ब० स०] बादल की गरज। मेघ-गर्जन।
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परिचक्रा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] एक प्राचीन नगरी।
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परिचना  : अ०=परचना।
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परिचपल  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक चंचल या चपल।
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परिचय  : पुं० [सं० परि√चि (इकट्ठा करना)+अच्] १. ऐसी स्थिति जिसमें दो व्यक्ति एक दूसरे को प्रायः प्रत्यक्ष भेंट के आधार पर जानते और पहचानते हों। जैसे—पंडित जी से मेरा परिचय रेल में हुआ था। २. किसी व्यक्ति के नाम-धाम या गुण-कर्म आदि से संबंध रखनेवाली सब या कुछ बातें जो किसी को बतलाई जायँ। जैसे—गोष्ठी में आये हुए कवि अपना परिचय स्वयं देंगे। ३. किसी विषय, रचना, साहित्य आदि का थोड़ा-बहुत अध्ययन करने पर उसके संबंध में होनेवाला ज्ञान। जैसे—बंगला साहित्य से उनका कुछ परिचय है। ४. गुण, धर्म शक्ति आदि जतलाने या प्रदर्शित करने की क्रिया या भाव। जैसे—उसने अपनी योग्यता या हठवादिता का खूब परिचय दिया। ५. हठ योग में, नाद की चार अवस्थाओं में से तीसरी अवस्था।
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परिचय-पत्र  : पुं० [ष० त०] १. ऐसा पत्र जिसमें किसी का नाम, पता, ठिकाना, पद आदि लिखा होता है और जो किसी को किसी का परिचय देने के लिए दिया जाता है। २. किसी वस्तु अथवा संस्था विषयक वह पत्रक या पुस्तिका जिसमें उस वस्तु की सब बातों अथवा संस्था के उद्देश्यों, कार्य-क्षेत्रों और कार्य-प्रणालियों आदि का परिचय या विवरण दिया हो। (मेमोरैन्डम)
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परिचर  : पुं० [सं० परि√चर् (गति)+अच्] [स्त्री० परिचरी] १. सेवा-शुश्रूषा करनेवाला सेवक। टहलुआ। २. रोगी की सेवा शुश्रूषा करनेवाला व्यक्ति। ३. वह सैनिक जो रथ और रथी की रक्षा करने के लिए रथ पर रहता था। ४. सेनापति। ५. दंडनायक।
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परिचरजा  : स्त्री०=परिचर्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचरण  : पुं० [सं० परि√चर्+ल्युट्—अन] [वि० परिचरणीय, परिचारितव्य] परिचर्या करना।
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परिचरत  : स्त्री० [?] प्रलय। कयामत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचरिता (तृ)  : पुं० [सं० परि√चर्+तृच्] सेवा-शुश्रूषा करनेवाला व्यक्ति।
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परिचरी  : स्त्री० [सं० परिचर+ङीष्] दासी। लौंडी।
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परिचर्चा  : स्त्री० [सं०] किसी तथ्य, विषय, पुस्तक आदि की विशेष तथा विस्तृत रूप से की जानेवाली चर्चा।
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परिचर्जा  : स्त्री०=परिचर्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचर्मण्य  : पुं० [सं० परिचर्मन्+यत्] चमड़े का फीता।
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परिचर्या  : स्त्री० [सं० परि√चर्+श, यक्, नि०] १. किसी की की जानेवाली अनेक प्रकार की सेवाएँ। खिदमत। २. रोगी की सेवा-शुश्रूषा। ३. किसी संघटित गोष्ठी या सभा-समिति में होनेवाली ऐसी बात-चीत जिसमें किसी विशिष्ट विषय का विचार या विवेचन होता है। (सिम्पोज़ियम)
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परिचायक  : वि० [सं० परि√चि+ण्वुल्—अक] १. जिसके द्वारा किसी का परिचय प्राप्त होता हो। जैसे—यह चिह्न धर्म-ध्वजता का परिचायक है। २. अच्छी तरह से जतलाने, बतलाने या सूचित करनेवाला। परिचय करानेवाला।
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परिचाय्य  : पुं० [सं० परि√चि+ण्य्त्] १. यज्ञ की अग्नि। २. यज्ञकुंड।
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परिचार  : पुं० [सं० परि√चर्+घञ्] १. सेवा। टहल। खिदमत। २. ऐसा स्थान जहाँ लोग टहलने के लिए जाते हों। ३. ऐसी देखरेख या सेवा-शुश्रूषा जिससे कम अवस्थावाले बच्चों, पौधों, आदि का भरण-पोषण, लालन-पालन तथा अभिवर्द्धन ठीक क्रम तथा ढंग से हो सके। (नर्सिंग) ४. अशक्त, रुग्ण तथा पंगु व्यक्तियों की की जानेवाली टहल। सेवा।
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परिचारक  : वि० [सं० परि√चर्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० परिचारिका] जो परिचार करता हो। परिचार करनेवाला। पुं० १. नौकर। सेवक। २. परिचर्या करनेवाला व्यक्ति। ३. देव-मंदिर का प्रबंध करनेवाला व्यक्ति।
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परिचार-गाड़ी  : स्त्री० [सं०+हिं] वह गाड़ी जिस पर घायल, रुग्ण लोगों को उठाकर चिकित्सा-स्थल आदि पर ले जाया जाता है। (एम्ब्युलेंस कार)
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परिचारण  : पुं० [सं० परि√चर्+णिच्+ल्युट्—अन] १. सेवा या टहल करना। २. संग या साथ रहना।
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परिचारना  : सं० [सं० परिचरण] परिचार या सेवा करना।
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परिचारिका  : स्त्री० [सं० परिचारक+टाप्, इत्व] १. दासी। सेविका। परिचार करनेवाली स्त्री।
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परिचारित  : वि० [सं० परि√चर्+णिच्+क्त] जिसका परिचारण किया गया हो या हुआ हो। पुं० १. क्रीड़ा। खेल। २. मनोविनोद।
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परिचारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√चर्+इन्] टहलनेवाला। भ्रमण करने वाला। पुं० टहल या सेवा करनेवाला। सेवक। टहलुआ।
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परिचार्य  : वि० [सं० परि√चर्+ण्यत्] जिसका परिचार या सेवा करना उचित हो। सेव्य।
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परिचालक  : वि० [सं० परि-चल् (चलाना)+णिच्+ण्वुल्—अक] [भाव० परिचालकता] १. परिचालन करनेवाला। २. बहुत बड़ा चालाक।
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परिचालकता  : स्त्री० [सं० परिचालक+तल्—टाप्] परिचालक होने की अवस्था, गुण या भाव।
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परिचालन  : पुं० [सं० परि√चल्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिचालित] १. ठीक तरह से गति में लाना। चलाना। जैसे—नौका या रथ का परिचालन। २. उचित रूप में किसी कार्य का निर्वाह करना। संचालन। जैसे—किसी संस्था या सभा अथवा उसके कार्यों का परिचालन करना। ३. हिलाना।
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परिचालित  : भू० कृ० [सं० परि√चल्+णिच्+क्त] जिसका परिचालन किया गया हो। जो चलाया गया हो।
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परिचिंतन  : पुं० [सं० परि√चिन्त् (स्मरण करना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह से चिंतन करना।
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परिचित  : वि० [सं० पर√चि० (चयन करना)+क्त] [भाव० परिचिति] १. जिसका या जिसके साथ परिचय हो चुका हो। जिसे जान लिया गया हो या जिसकी जानकारी हो चुकी हो। जाना-बूझा या समझा हुआ। ज्ञात। जैसे—वे मेरे परिचित हैं। २. जिसे परिचय मिल चुका हो या जानकारी हो चुकी हो। जैसे—मैं उनसे भली-भाँति परिचित हूँ। ३. जिससे जान-पहचान और मेल-जोल हो। जैसे—वहाँ हमारे कई परिचित हैं। ४. इकट्ठा किया हुआ। संचित। पुं० जैन दर्शन के अनुसार वह स्वर्गीय आत्मा जो दोबारा किसी चक्र में आ चुकी हो।
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परिचिति  : स्त्री० [सं० परि√चि+क्तिन्] १. परिचित होने की अवस्था या भाव। वि०=परिचित। (पूरब)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचित्र  : पुं० [सं० परि+चित्र] दे० ‘चार्ट’।
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परिचित्रित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसे अच्छी तरह से चिह्नित किया गया हो। २. जिस पर हस्ताक्षर किये जा चुके हों। (स्मृति)
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परिचेय  : वि० [सं० परि√चि+यत्] १. जिसका परिचय प्राप्त किया जा सके, या किया जाने को हो। २. जिसका परिचय प्राप्त करना उचित या कर्त्तव्य हो। ३. जिसका चयन (संग्रह या संचय) किया जा सके या किया जाने को हो। संग्राह्य।
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परिचो  : पुं० [सं० परिचय]=परिचय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिच्छद  : पुं० [सं० परि√छद् (ढाँकना)+णिच्+घ, ह्रस्व] १. किसी चीज को चारों ओर से ढकनेवाला कपड़ा। जैसे—तकिये की खोली या गिलाफ। २. शरीर पर पहने जानेवाले कपड़े। पहनावा। पोशाक (ड्रेस) ३. वह विशिष्ट पहनावा जो किसी दल, वर्ग या सेवा विशेष के लोगों के लिए नियत या निर्धारित होता है। (यूनिफार्म) ४. राजचिह्न। ५. राजा-महाराजाओं के साथ रहनेवाले लोग। परिचर। ६. कुटुंब या परिवार के लोग। ६. असबाब। सामान।
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परिच्छन्न  : भू० कृ० [सं० परि√छद्+क्त] १. जो चारों ओर से अथवा अच्छी तरह से ढका हुआ हो। २. छिपा या छिपाया हुआ। ३. जो परिच्छद तथा वस्त्र पहने हुए हो। ४. साफ या स्वच्छ किया हुआ।
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परिच्छा  : स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिच्छित्ति  : स्त्री० [सं० परि√छिद् (काटना)+क्तिन्] १. सीमा। हद। २. विभाग करने के लिए सीमा का निर्धारण। ३. किसी प्रकार का पृथक्करण या विभाजन।
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परिच्छिन्न  : भू० कृ० [सं० परि√छिद्+क्त] १. जिसका परिछेद (अलगाव या विभाजन) किया गया हो। २. जो ठीक प्रकार से मर्यादित या सीमित किया गया हो। ३. घिरा हुआ। ४. छिपा या ढका हुआ।
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परिच्छेद  : पुं० [सं० परि√छिद्+घञ्] १. कोई चीज या बात इस प्रकार अलग-अलग या विभक्त करना कि उसका अच्छापन एक तरफ आ जाय और बुराई दूसरी तरफ। २. बँटवारा। ३. खंड। भाग। ४. ग्रन्थों आदि का ऐसा विभाग जिसमें किसी विषय या उसके किसी अंग का स्वतंत्र रूप से प्रतिपादन, वर्णन या विवेचन किया गया हो। ५. अध्याय। प्रकरण। ६. सीमा। हद। ७. निर्णय।
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परिच्छेदक  : वि० [सं० परि√छिद्+ण्वुल्—अक] १. सीमा निर्धारित करनेवाला। हद बतलाने या मुकर्रर करनेवाला। पुं० १. सीमा। हद। २. नाप, परिमाण आदि।
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परिच्छेनकर  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार की समाधि।
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परिच्छेदन  : पुं० [सं० परि√छिद्+ल्युट्—अन] १. परिच्छेद अर्थात् खंड या विभाग करना। २. अच्छाई और बुराई अलग अलग कर दिखलाना। ३. अध्याय। प्रकरण। ४. निर्णय।
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परिच्छेद्य  : वि० [सं० परि√छिद्+ण्यत्] १. जिसे गिन, तौल या नाप सके। परिमेय। २. जिसे काटकर या और किसी प्रकार अलग कर सकें। ३. जिसका बँटवारा या विभाजन हो सके। विभाज्य। ४. जिसकी परिभाषा ठीक प्रकार से की जा सके।
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परिच्युत  : वि० [सं० परि√च्यु (गति)+क्त] [भाव० परिच्युति] १. सब प्रकार से गिरा हुआ। २. पतित और भ्रष्ट। ३. जाति या बिरादरी से निकाला हुआ। जातिबहिष्कार।
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परिच्युति  : स्त्री० [सं० परि√च्यु+क्तिन्] परिच्युत होने की अवस्था या भाव।
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परिछत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक तरह की बहुत बड़ी छतरी जिसकी सहायता से हवाबाज उड़ते हुए जहाजों से कूदकर नीचे उतरते हैं। (पैराशूट)
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परिछत्रक  : वि० [सं० परिछत्र] परिछत्र की सहायता से उतरनेवाला। जैसे—परिछत्रक सेना।
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परिछन  : पुं०=परछन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिछाहीं  : स्त्री०=परछाईं।
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परिछिन्न  : वि०=परिच्छिन्न।
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परिजटन  : पुं०=पर्यटन।
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परिजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिजनता] १. चारों ओर के लोग विशेषतः परिवार के सदस्य। २. अनुगामी और अनुचर वर्ग।
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परिजन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० परि√जन् (उत्पत्ति)+ मन , नि०] १. चंद्रमा। २. अग्नि।
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परिजप्त  : वि० [सं० परि√जप् (जपना)+क्त] मंद स्वर में कहा हुआ।
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परिजय्य  : वि० [सं० परि√जि (जीतना)+यत् नि० या आदेश] जो चारों ओर जय करने में समर्थ हो। सब ओर जीत सकनेवाला। स्त्री० चारों दिशाओं में होनेवाली विजय।
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परिजल्पित  : पुं० [सं० परि√जल्प् (बोलना)+क्त] १. दूसरों के अवगुण, दोष, धूर्तता आदि दिखलाते हुए अप्रत्यक्ष रूप से अपनी उच्चता, श्रेष्ठता, सच्चाई आदि दिखलाना। २. अवमानित या उपेक्षित नायिका। ३. अवमानित या उपेक्षित नायिका का व्यंग्यपूर्ण शब्दों द्वारा नायक की निर्दयता का वर्णन करना।
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परिजा  : स्त्री० [सं० परि√जन्+ड+टाप्] १. उद्भव। २. जन्म आदि का मूल स्थान।
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परिजात  : वि० [सं० प्रा० स०] जन्मा हुआ। उत्पन्न।
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परिजीवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अपने चारों ओर रहनेवालों विशेषतः अपनी जाति, वर्ग आदि के सदस्यों के न रह जाने पर भी प्राप्त होनेवाला दीर्घ जीवन। २. नियत काल से अधिक चलनेवाला जीवन। (सर्वाइवल, उक्त दोनों अर्थों में)
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परिजीवित  : वि० [सं० प्रा० स०] जो अपने चारों ओर रहनेवालों। आदि के न रहने पर भी बचा हुआ और जीवित हो।
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परिजीवी (विन्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह जो दूसरों की अपेक्षा अधिक समय तक जीता या बचा रहे। (सर्वाइवर)
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परिज्ञप्ति  : स्त्री० [सं० परि√ज्ञप् (जतलाना)+क्तिन्] १. बात-चीत। कथोपकथन। वर्त्तालाप। २. परिचय। ३. पहचान।
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परिज्ञा  : स्त्री० [सं० परि√ज्ञा (जानना)+अङ्—टाप्] १. ज्ञान। २. निश्चयात्मक, विशुद्ध और संशय-रहित ज्ञान।
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परिज्ञात  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह या विशेष रूप से जाना हुआ।
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परिज्ञाता (तृ)  : पुं० [सं० परि√ज्ञा+तृच्] वह जिसे परिज्ञान हो।
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परिज्ञान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज या बात का ठीक और पूरा ज्ञान। पूर्ण या सम्यक् ज्ञान। २. ऐसा ज्ञान जिसका भरोसा किया जा सके। निश्चयात्मक और सच्चा ज्ञान। ३. अंतर, भेद आदि के संबंध में होनेवाला सूक्ष्म ज्ञान।
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परिज्वा (ज्वन्)  : पुं० [सं० परि√जु (गति)+कनिन्] १. चंद्रमा। २. अग्नि। ३. नौकर। ४. इन्द्र। ५. वह जो यज्ञ करता हो। याजक।
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परिठना  : अ० [?] देखना। उदा०—नारकेलि फल परिठ दुज, चौक पूरी मनि मुत्ति।—चंदबरदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिडीन  : पुं० [सं० परि√डी (उड़ना)+क्त] पक्षी की वृत्ताकार उड़ान। पक्षी का चक्कर काटते हुए उड़ना।
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परिणत  : भू० कृ० [सं० परि√नम् (झुकना)+क्त] [भाव० परिणित] १. बहुत अधिक झुका या झुकाया झुकाया हुआ। बहुत अधिक नत। २. बहुत अधिक नम्र या विनीत। ३. जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन, रूपान्तर या विकार हुआ हो। जैसे—दूध जमाने पर दही के रूप में परिणत हो जाता है। ४. जो ठीक प्रकार से पका, बना या विकसित हुआ हो। ४. पचाया हुआ। ६. समाप्त।
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परिणति  : स्त्री० [सं० परि√नम्+क्तिन्] १. परिणत होने की अवस्था या भाव। २. झुकाव। नति। ३. किसी प्रकार के परिवर्तन या विकार के कारण बननेवाला नया रूप। ४. अच्छी तरह पकने या पचने की क्रिया दशा या भाव। परिपाक। ५. पुष्टता। प्रौढ़ता। ६. वृद्धावस्था। ६. अंत। समाप्ति।
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परिणद्ध  : वि० [सं० परि√नह् (बाँधना)+क्त] १. दूर तक फैला हुआ। लंबा-चौड़ा। विस्तृत। २. बहुत बड़ा, भारी या विशाल।
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परिणमन  : पुं० [सं० परि√नम्+ल्युट्—अन] १. परिवर्तन या रूपांतर होना। ३. किसी रूप में परिणत होना।
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परिणय  : पुं० [सं० परि√नी (ले जाना)+अच्] विवाह। शादी।
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परिणयन  : पुं० [सं० परि√नी+ल्युट्—अन] पाणी-ग्रहण। विवाह।
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परिणहन  : पुं० [सं० परि√नह् (बाँधना)+ल्युट्—अन]=परिणाह।
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परिणाम  : पुं० [सं० परि√नम्+घञ्] १. किसी पदार्थ की पहली या प्रकृत अवस्था, गुण, रूप आदि में होनेवाला ऐसा परिवर्तन या विकार जिससे वह पदार्थ कुछ और ही हो जाय अथवा किसी अन्य अवस्था, गुण या रूप से युक्त प्रतीत होने लगे। एक रूप के स्थान पर होनेवाले दूसरे रूप की प्राप्ति। तबदीली। रूपांतरण। जैसे—घड़ा गीली मिट्टी का, दही जमे हुए दूध का या राख जलती हुई लकड़ी का परिणाम है। विशेष—सांख्य दर्शन के अनुसार परिणाम वस्तुतः प्रकृति का मुख्य गुण या स्वभाव है। सभी चीजें अपनी एक अवस्था या रूप छोड़कर दूसरी अवस्था या रूप धारण करती रहती हैं। यही अवस्थांतरण या रूपांतरण उनका ‘परिणाम’ कहलाती है। जब सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों की साम्यावस्था नष्ट या भग्न हो जाती है, तब उसके परिणाम-स्वरूप सृष्टि के सब पदार्थों की रचना होती है; और जब यही क्रम उलटा चलने लगता है, तब उसके परिणाम के रूप में सृष्टि का नाश या प्रलय होता है। इसी रूपांतरण के आधार पर पतंजलि ने योग-दर्शन में चित्त के ये तीन परिणाम माने हैं—निरोध, समाधि और एकाग्रता। अन्य पदार्थों में भी धर्म, लक्षण और अवस्था के विचार से तीन प्रकार के परिणाम होते हैं। जैसे—मिट्टी के घड़े का बनना धर्म-परिणाम है। देखी-सुनी हुई चीजों या बातों में भूत और वर्तमान का जो अन्तर होता है, वह लक्षण-परिणाम है, और उनमें स्पष्टता तथा अस्पष्टता का जो अन्तर होता है, वह अवस्था-परिणाम है। २. किसी काम या बात का तर्क-संगत रूप में अंत होने पर उससे प्राप्त होनेवाला फल। नतीजा। (रिजल्ट) जैसे—(क) इस वाद-विवाद का परिणाम यह हुआ कि काम जल्दी और अच्छे ढंग से होने लगा। (ख) धर्म, न्याय और सत्य का परिणाम सदा सुख ही होता है। किसी कार्य के उपरांत क्रियात्मक रूप से पड़नेवाला उसका प्रभाव। (कांसीक्वेन्स) जैसे—आपस के लड़ाई-झगड़े का परिणाम यह हुआ कि दोनों घर चौपट हो गये। ४. बहुत-सी बातें सुन-समझकर उनसे निकाला हुआ निष्कर्ष। नतीजा। (कन्क्लुज़न) जैसे—उनकी बातें सुनकर हम इसी परिणाम पर पहुँचे हुए हैं कि वे पूरे नास्तिक हैं। ५. अन्न आदि का पेट में पहुँचकर पचना। परिपाक। ६. किसी पदार्थ का अच्छी तरह पुष्ट, प्रौढ़ या विकसित होकर पूर्णता तक पहुँचना। ६. अंत। अवसान। समाप्ति। ८. वृद्धावस्था। बुढ़ापा। ९. साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें किसी कार्य के होने पर उसके साथ उस कार्य के परिणाम का भी उल्लेख होता है। (कम्यूटेशन) जैसे—मुख चंद्र के दर्शनों से मन का सारा संताप शांत हो जाता है। विशेष—यह अलंकार अभेद और सादृश्य पर आश्रित होता है, फिर भी इसमें आरोपण का तत्त्व प्रधान है। परवर्ती साहित्यकारों ने इस अलंकार का लक्षण या स्वरूप बहुत-कुछ बदल दिया है। ‘चंद्रलोक’ के मत से जहाँ उपमेय के कार्य का उपमान द्वारा दिया जाना वर्णित होता है अथवा उपमान का उपमेय के साथ एक रूप होकर कोई काम करने का उल्लेख होता है, वहाँ परिणाम अलंकार होता है। जैसे—यदि कहा जाय—राष्ट्रपति जी ने अपने कर-कमलों से प्रदर्शनी का उद्घाटन किया।’ तो यहाँ इसलिए परिणाम अलंकार हो जायगा कि उन्होंने अपने करों से नहीं, बल्कि कर रूपी कमलों से उद्घाटन किया। रूपक अलंकार से इसमें यह अंतर है कि रूपक में तो उपमेय पर उपमान का आरोप मात्र कर दिया जाता है; परंतु परिणाम अलंकार में यह विशेषता होती है कि उपमेय का काम उपमान से कराकर अर्थ में चमत्कार लाया जाता है। १॰. नाट्य-शास्त्र में कथावस्तु, की वह अंतिम स्थिति जिसमें संघर्ष की समाप्ति होने पर उसका फल दिखलाया जाता है। जैसे—हरिश्चंद्र नाटक के अंत में रोहिताश्व का जी उठना और राजा हरिश्चंद्र का अपनी पत्नी को पाकर फिर से परम सुखी और वैभवशाली होना ‘परिणाम’ कहा जायगा। इसी ‘परिणाम’ के आधार पर नाटकों के दुःखांत और सुखांत नामक दो भेद हुए हैं।
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परिणामक  : वि० [सं० परि√नम्+णिच्+ण्वुल्—अक] जिसके कारण कोई परिणाम हो।
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परिणामदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० परिणाम√दृश् (देखना)+णिनि] १. जिसे होनेवाले परिणाम का पहले से भान हो। २. जो परिणाम या फल का ध्यान रखकर काम करता हो।
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परिणाम-दृष्टि  : स्त्री० [सं० स० त०] वह दृष्टि या शक्ति जिससे मनुष्य किसी काम या बात का परिणाम अथवा फल पहले से जान या समझ लेता है।
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परिणामन  : पुं० [सं० परि√नम्+णिच्+ल्युट्—अन] १. अच्छी तरह पुष्ट करना और बढ़ाना। २. जातीय या संघीय वस्तुओं का किया जानेवाला व्यक्तिगत उपभोग। (बौद्ध)
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परिणामवाद  : पुं० [सं० ष० त०] सांख्य का यह मत या सिद्धान्त कि जगत् की उत्पत्ति औऱ विनाश दोनों सदा नित्य परिणाम के रूप में होते रहते हैं।
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परिणामवादी (दिन्)  : वि० [सं० परिणामवाद—इनि] परिणामवाद-संबंधी। पुं० वह जिसका परिणामवाद में विश्वास हो।
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परिणाम-शूल  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें भोजन करने के उपरांत पेट में पीड़ा होने लगती है।
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परिणामिक  : वि० [सं० पारिणामिक] १. परिणाम के रूप में होनेवाला। जैसे—दुष्कर्मों का परिणामिक भोग। २. (भोजन) जो शीघ्र या सहज में पच जाय।
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परिणामित्र  : पुं० [सं०] आधुनिक यंत्र-विज्ञान में एक प्रकार का यंत्र जो एक प्रकार की विद्युत-धारा को दूसरे प्रकार की विद्युत-धारा (अर्थात् निम्न को उच्च अथवा उच्च को निम्न) के रूप में परिवर्तित करता है। (ट्रान्सफार्मर)
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परिणामित्व  : पुं० [सं० परिणामिन्+त्व] परिणामी अर्थात् परिवर्तनशील होने की अवस्था या भाव।
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परिणामि-नित्य  : वि० [सं० कर्म० स०] जो नित्य होने पर भी बदलता रहे। जिसकी सत्ता तो स्थिर रहे, पर रूप बराबर बदलता रहे। जो एक रस न होकर भी अवनाशी हो।
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परिणामी (मिन्)  : वि० [सं० परिणाम+इनि] [स्त्री० परिणामिनी] १. परिणाम के रूप में होनेवाला। २. परिणाम-संबंधी। ३. जो बराबर बदलता रहे। रुपांतरित होता रहनेवाला। परिवर्तनशील। ४. जो परिवर्तन मान या सह ले। ५. परिणाम-दर्शी।
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परिणाय  : पुं० [सं० परि√नी (ले जाना)+घञ्] १. किसी वस्तु को जिस दिशा में चाहे उस दिशा में चलाना। सब ओर चलाना। २. चौसर, शतरंज आदि की गोटियाँ एक घर से दूसरे घर में ले जाना या ले चलना। ३. ब्याह। विवाह।
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परिणायक  : पुं० [सं० परि√नी+ण्वुल्—अक] १. परिणय या विवाह करनेवाला, अर्थात् पति। २. पथप्रदर्शक। अगुआ। नेता। ३. सेनापति।
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परिणायक-रत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] बौद्ध चक्रवर्ती राजाओं के सप्तधन अथवा सात कोषों में से एक।
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परिणाह  : पुं० [सं० परि√नह् (बाँधना)+घञ्] १. विस्तार। फैलाव। २. घेरा। परिधि। ३. दीर्घ निश्वास।
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परिणाहवान (वत्)  : वि० [सं० परिणाह+मतुप्, वत्व] फैला हुआ। प्रशस्त। विस्तृत।
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परिणाही (हिन्)  : वि० [सं० परिणाह+इनि] फैला हुआ। प्रशस्त। विस्तृत।
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परिणिंसक  : वि० [सं० परि√निंस् (चूमना)+ण्वुल्—अक] १. खाने या भक्षण करनेवाला। २. चुंबन करनेवाला।
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परिणिंसा  : स्त्री० [सं० परि√निंस्+अ+टाप्] १. भक्षण। खाना। २. चुंबन।
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परिणीत  : भू० कृ० [सं० परि√नी+क्त] [स्त्री० परिणीता] १. जिसका परिणय हो चुका हो। ब्याहा हुआ। विवाहित। २. उक्त के आधार पर, जिसका किसी के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित हो चुका हो। उदा०—तुम परिणीत नहीं इन थोथे विश्वासों से।—पंत। ३. (कार्य) जो पूरा या संपन्न हो चुका हो। संपादित।
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परिणीत-रत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०]=परिणायकरत्न। (दे०)
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परिणीता  : वि० [सं० परिणीत+टाप्] (स्त्री) जिसका किसी के साथ विधिवत् परिणय या विवाह हो चुका हो। विवाहिता। स्त्री० विवाहिता स्त्री या पत्नी।
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परिणेता (तृ)  : पुं० [सं० परि√नी+तृच्] परिणय या विवाह करनेवाला व्यक्ति। पति।
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परिणेया  : वि० [सं० परि√नी+अच्+टाप्] (स्त्री) जो पत्नी या भार्या बनाने के लिए उपयुक्त हो। २. जिसका परिणय या विवाह होने को हो या हो सकता हो।
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परितः  : अव्य० [सं० परि+तस्] १. सब ओर। चारों ओर। २. पूरी तरह से। सब प्रकार से।
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परितच्छ  : वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परितप्त  : भू० कृ० [सं० परि√तप् (तपना)+क्त] १. अच्छी तरह तपा या तपाया हुआ। बहुत गरम। २. जिसे बहुत अधिक परिताप या दुःख हुआ हो। बहुत अधिक दुःखी और संतप्त।
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परितप्ति  : स्त्री० [सं० परि√तप्+क्तिन्] १. परितप्त होने की अवस्था या भाव। परितात। २. जलन। डाह। ३. बहुत विकट। मानसिक व्यथा। मनस्ताप।
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परितर्कण  : पुं० [सं० परि√तर्क (दीप्ति, विचार)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह तर्क या विचार करना।
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परितर्पण  : पुं० [सं० परि√तृप् (संतुष्ट करना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह प्रसन्न या संतुष्ट करना।
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परिताप  : पुं० [सं० परि√तप्+घञ्] १. बहुत अधिक ताप जिससे चीजें जलने या झुलसने लगे। २. घोर व्यथा। संताप। ३. पछतावा। पश्चात्ताप। ४. डर। भय। ५. कँप-कँपी। कंप। ६. एक नरक का नाम।
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परितापी (पिन्)  : वि० [सं० परि√तप्+णिनि] १. परिताप-संबंधी। २. परिताप उत्पन्न करनेवाला। ३. दे० ‘परितप्त’।
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परितिक्त  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक तीता। पुं० निंब। नीम।
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परितुलन  : पुं० [सं० परि√तुल् (तुलना करना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परितुलित] साहित्य में किसी ग्रंथ की लिखित और मुद्रित प्रतियों और उनके भिन्न संस्करणों आदि का यह जानने के लिए मिलान करना कि उनका ठीक और मूल रूप क्या है अथवा क्या होना चाहिए। (कोल्लेशन) जैसे—सूर सागर का सम्पादन करते समय रत्नाकर जी ने उसकी पचीसों हस्त-लिखित प्रतियों का परितुलन किया था।
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परितुष्ट  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परितुष्टि] १. जिसका परितोष हो चुका हो या किया जा चुका हो। अच्छी तरह से तथा सब प्रकार से तुष्ट। २. जो बहुत खुश या प्रसन्न हो।
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परितुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से की जानेवाली तुष्टि। परितोष। २. खुशी। प्रसन्नता।
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परितृप्ति  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परितृप्ति] जो अच्छी तरह तृप्त हो चुका हो। पूर्ण रूप से तृप्त।
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परितृप्त  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परितृप्त करने या होने की अवस्था या भाव।
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परितृप्ति  : पुं०=परितोष।
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परितोलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० परितौलित] दे० ‘परितुलन’।
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परितोख  : पुं० [सं० परि√तुष् (प्रीति)+घञ्] १. निश्चिन्तता युक्त सुख जो कामना या साध पूरी होने पर होता है। अच्छी तरह होनेवाला तोष। पूर्ण तृप्ति। २. खुशी। प्रसन्नता।
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परितोषक  : वि० [सं० परि√तुष्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. परितोष करनेवाला। संतुष्ट करनेवाला। २. प्रसन्न या खुश करनेवाला।
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परितोषण  : पुं० [सं० परि√तुष्+णिच्+ल्युट्—अन] १. परितुष्ट करने की क्रिया या भाव। ऐसा काम करना जिससे किसी का परितोष हो। २. वह धन जो किसी को परितुष्ट करने के लिए दिया गया हो।
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परितोषवान् (वत्)  : वि० [सं० परितोष+मतुप्, वत्व] जो सहज में परितोष प्राप्त कर लेता है।
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परितोषी (विन्)  : वि० [सं० परितोष+इनि] १. जिसे परितोष हो। २. जल्दी या सहज में परितुष्ट होनेवाला।
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परितोस  : पुं०=परितोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परित्यक्त  : भू० कृ० [सं० परि√त्यज् (छोड़ना)+क्त] जिसे पूर्ण रूप से अथवा उपेक्षापूर्वक छोड़ दिया गया हो। (एबन्डन्ड)
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परित्यक्ता  : पुं० [सं० परित्यक्त+टाप्] त्यागने या छोड़नेवाला। वि० सं० ‘परित्यक्त’ का स्त्री०। स्त्री० वह स्त्री० जिसे उसके पति ने त्याग या छोड़ दिया हो।
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परित्यजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+ल्युट्—अन] परित्याग करने की क्रिया या भाव। त्यागना। छोड़ना।
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परित्यज्य  : वि० [सं० परित्याज्य]=परित्याज्य।
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परित्याग  : पुं० [सं० परि√त्यज्+घञ्] अधिकार स्वामित्व, संबंध, आधिकृत वस्तु, निजी संपत्ति, संबंधी आदि का पूर्ण रूप से तथा सदा के लिए किया जानेवाला त्याग। पूरी तरह से छोड़ देना। (एबन्डनिंग)
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परित्यागना  : स० [सं० परित्याग] पूरी तरह से ये सदा के लिए परित्याग करना।
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परित्यागी (गिन्)  : वि० [सं० परि√त्यज्+घिनुण्] परित्याग करने अर्थात् पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़नेवाला।
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परित्याजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+णिच्+ल्युट्—अन] परित्याग।
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परित्याज्य  : वि० [सं० परि√त्याज्+ण्यत्] जिसका परित्याग करना उचित हो या किया जाने को हो। जो पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़े जाने के योग्य हो।
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परित्रस्त  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक त्रस्त या डरा हुआ।
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परित्राण  : पुं० [सं० परि√त्रै (बचाना)+ल्युट्—अन] १. कष्ट, विपत्ति आदि से की जानेवाली पूर्ण रक्षा। २. शरीर पर के बाल या रोएँ। रोम।
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परित्रात  : भू० कृ० [सं० परि√त्रै+क्त] जिसका परित्राण या रक्षा की गई हो। रक्षा-प्राप्त।
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परित्राता (तृ)  : वि० [सं० परि√त्रै+तृच्] जो दूसरों का परित्राण करता हो। पूरी रक्षा करनेवाला।
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परित्रायक  : वि० [सं० परि√त्रै+ण्वुल—अक]=परित्राता।
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परित्रास  : पुं० [सं० परि√त्रस् (डरना)+घञ्] अत्यधिक त्रास।
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परिदंशित  : भू० कृ० [सं० परिदंश, प्रा० स०,+इतच्] जो पूर्ण रूप से अस्त्रों से सुसज्जित हो या किया गया हो।
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परिदत्त  : भू० कृ० [सं० परि√दा (देना)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे परिदान मिला हो। २. (धन) जो परिदान के रूप में दिया गया हो।
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परिदर  : पुं० [सं० परि√दृ (फाड़ना)+अप्] मसूड़ों में से खून और मवाद निकलने या बहने का एक रोग। (पायरिया)
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परिदर्शन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अच्छी तरह से किया जानेवाला या होनेवाला दर्शन। पूर्ण दर्शन। २. निरीक्षण। ३. न्यायालय में किसी मुकद्दमे की होनेवाली सुनवाई। (ट्रायल)
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परिदष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√दंश+क्त] १. काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया हो। २. जिसे डंक या दाँत लगा हो। डंका या दाँत से काटा हुआ। दंशित।
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परिदहन  : पुं० [सं० परि√दह् (जलाना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह या पूर्ण रूप से जलाना।
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परिदान  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिदत्त] १. लौटा देना। वापस कर देना। फेर देना। २. अदला-बदली। ३. अमानत लौटाना। ४. आज-कल वह आर्थिक सहायता जो राज्य सरकार व्यक्तियों, संस्थाओं आदि को उद्योगीकरण में प्रोत्साहित करने के लिए देती है। (सब्साइडी)
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परिदाय  : पुं० [सं० पर√दा (देना)+घञ्] सुगंधि। खुशबू।
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परिदायी (यिन्)  : वि० [सं० परि√दा+णिनि] जो ऐसे वर से अपनी कन्या का विवाह करता हो जिसका बड़ा भाई अभी तक कुआँरा हो।
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परिदाह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत जलन या दाह। २. मानसिक कष्ट। दुःख या संताप।
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परिदिग्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] जिस पर कोई वस्तु बहुत अधिक मात्रा में लगी या पुती हो।
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परिदीन  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक दीन या दुःखी।
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परिदृढ़  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत दृढ़।
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परिदृष्टि  : स्त्री० [सं०] किसी वस्तु का ऐसा दृश्य या रूप जिसमें दूर से देखने पर उसके सब अंग अपने ठीक अनुपात में और एक दूसरे से उचित दूरी पर दिखाई दें। संदर्श। (परस्पेक्टिव)
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परिदेव  : पुं० [सं० परि√दिव् (गति)+घञ्] रोना-धोना। विलाप।
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परिदेवन  : पुं० [सं० परि√दिव्+ल्युट्—अन] १. कष्ट पहुँचने या हानि होने पर की जानेवाली चीख-पुकार। २. उक्त स्थिति में की जानेवाली फरियाद या शिकायत। परिवाद। (कम्प्लेन्ट)
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परिदेवना  : स्त्री०=परिदेवन।
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परिद्रष्टा (ष्ट्ट)  : वि० [सं० परि√दृश् (देखना)+तृच्] परिदर्शन करनेवाला।
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परिद्वीप  : पुं० [सं० ब० स०] गरुड़ का एक पुत्र।
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परिध  : स्त्री०=परिधि।
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परिधन  : पुं० [सं० परिधान] कमर और उससे निचला भाग ढकने के लिए पहना जानेवाला कपड़ा। अधोवस्त्र।
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परिधर्षण  : पुं० [सं० परि√धृष् (झिड़कना)+ल्युट्—अन] १. आक्रमण। २. अपमान। तिरस्कार। ३. दूषित या बुरा व्यवहार।
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परिधान  : पुं० [सं० परि√धा (धारण करना)+ल्युट्—अन] १. शरीर पर वस्त्र आदि धारण करना। कपड़े ओढ़ना या पहनना। २. वे कपड़े जो शरीर पर धारण किये या पहने जायँ। पोशाक। ३. कमर के नीचे पहनने या बाँधने का कपड़ा। जैसे—धोती, लुंगी आदि। ४. प्रार्थना स्तुति आदि का अंत या समाप्ति।
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परिधानीय  : वि० [सं० परि√धा+अनीयर्] [स्त्री० परिधानीया] जो परिधान के रूप में धारण किया जा सके पहने जाने के योग्य (वस्त्र)
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परिधाय  : पुं० [सं० परि√धा+घञ्] १. कपड़ा। वस्त्र। २. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। ३. वह स्थान जहाँ जल हो।
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परिधायक  : वि० [सं० परि√धा+ण्वुल्—अक] १. ढकने, लपेटने या चारों ओर से घेरनेवाला। पुं० १. घेरा। २. चहारदीवारी। प्राचीर।
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परिधायन  : पुं० [सं० परि√धा+णिच्+ल्युट्—अन] १. पहनना। २. पोशाक।
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परिधारण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिधार्य, परिधृत] १. अच्छी तरह किया जानेवाला धारण। २. अपने ऊपर उठाना, लेना या सहना। ३. बचाकर या रक्षित रूप में रखना।
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परिधावन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या बहुत तेज दौड़ना।
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परिधि  : स्त्री० [सं० परि√धा+कि] १. वृत्त की रेखा। २. किसी गोलाकार वस्तु के चारों ओर खिंची हुई वृत्ताकार रेखा। (सरकम्फरेन्स) ३. वह गोलाकार मार्ग जिस पर कोई चीज चलती, घूमती या चक्कर लगाती हो। ४. प्रायः गोलाकार माना जानेवाला कोई ऐसा वास्तविक या कल्पित घेरा, जो दूसरे बाहरी क्षेत्रों से अलग हो। कुछ विशेष लोगों या कार्यों का स्वतंत्र क्षेत्र। वृत्त। (सर्किल) ५. सूर्य या चन्द्रमा के आस-पास दिखाई पड़नेवाला घेरा। परिवेश। मंडल। ६. किसी वस्तु की रक्षा के लिए बनाया हुआ घेरा। बड़ा चहारदीवारी। नियत या नियमित मार्ग। ८. वे तीन खूँटे जो यज्ञ-मंडप के आस-पास गाड़े जाते थे। ९. क्षितिज। १॰. परिधान। ११. दे० ‘परिवेश’।
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परिधिक  : वि० [सं०] १. परिधि-संबंधी। २. जिसका कार्य-क्षेत्र किसी विशेष परिधि में हो। जैसे—परिधिक निरीक्षक। (सर्किल इंस्पेक्टर)
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परिधिस्थ  : वि० [सं० परिधि√स्था (ठहरना)+क] जो किसी परिधि में स्थित हो। पुं० १. नौकर। सेवक। २. वह सेना जो रथ और रथी की रक्षा के लिए नियुक्त रहती थी।
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परिधीर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक धीरजवाला। परम धीर।
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परिधूपित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] धूप से अच्छी तरह बसाया या सुगंधित किया हुआ।
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परिधूमन  : पुं० [सं० परिधूम, प्रा० स०,+क्विप्+ल्युट्—अन] १. डकार। २. सुश्रुत के अनुसार तृष्णा रोग का एक उपद्रव जिसमें एक विशेष प्रकार की कै होती है।
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परिधूसर  : वि० [सं० प्रा० स०] १. धूल से भरा हुआ। जिसमें खूब धूल लगी हो। २. धूल के रंग का। मटमैला।
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परिधेय  : वि० [सं० परि√धा (धारण)+यत्] जो परिधान के रूप में काम आ सके। जो पहना जा सके या पहने जाने योग्य हो। पुं० १. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। २. अंदर या नीचे पहनने का कपड़ा। जैसे—गंजी, लहँगा या साया।
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परिध्वंस  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से होनेवाला ध्वसं या नाश। सर्व-नाश। २. ध्वंस। नाश
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परिध्वस्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका पूरी तरह से ध्वंस या नाश हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिनगर  : पुं० [सं० प्रा० स०] नगर से कुछ हटकर बनी हुई बस्ती जो शासकीय दृष्टि से उसकी सीमा के अंतर्गत मानी जाती हो। (सबर्व)
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परिनय  : पुं०=परिणय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनागर  : वि० [सं० पारिनगर] परिनगर-संबंधी। (सबर्बन)
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परिनाम  : पुं०=परिणाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनामी  : वि०=परिणामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनिर्णय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी विवाद के संबंध में दिया हुआ पंचों का निर्णय। २. वह पत्र जिसमें पंचों का निर्णय लिखा हुआ हो। पंचाट। (अवार्ड)
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परिनिर्वाण  : पुं० [सं० प्रा० स०] पूर्ण निर्वाण। पूर्ण मोक्ष।
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परिनिर्वाति  : स्त्री० [सं० परि-निर्√वा (गति)+क्तिन्]=परिनिर्वाण।
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परिनिर्वृत्त  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिनिर्वृत्ति] १. जो मुक्त हो चुका हो। छूटा हुआ। २. जिसे मोक्ष मिल चुका हो।
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परिनिर्वृत्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. मोक्ष। २. छुटकारा। मुक्ति।
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परिनिष्ठा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. चरमसीमा या अवस्था। अंतिम सीमा। पराकाष्ठा। २. पूर्णता। ३. अभ्यास या ज्ञान की पूर्णता।
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परिनिष्ठित  : वि० [सं० परि-नि√स्था+क्त] १. (कार्य) जो पूरा या सम्पन्न किया जा चुका हो। निपटाया हुआ। २. जो किसी काम में पूरी तरह से कुशल या दक्ष हो।
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परिनिष्पन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (काम) जो अच्छी तरह पूरा हो चुका हो। २. जो भाव-अभाव और सुख-दुःख की कल्पना से बिलकुल दूर या परे हो। (बौद्ध)
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परिनैष्ठिक  : वि० [सं० प्रा० स०] सर्वश्रेष्ठ। सर्वोत्कृष्ट।
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परिन्यास  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी पद, वाक्य आदि के भाव में पूर्णता लाना जो साहित्य में एक विशिष्ट गुण माना गया है। २. साहित्यिक रचना में उक्त प्रकार का स्थल। ३. नाटक में आख्यान बीज अर्थात् मुख्य कथा की मूलभूत घटना का संकेत करना।
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परिपंच  : पुं०=प्रपंच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपंथ  : वि० [सं० परि√पंथ् (गति)+अच्] जो रास्ता रोके हुए हो।
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परिपंथक  : वि० [सं० परि√पंथ्+ण्वुल्—अक] मार्ग या रास्ता रोकने वाला। पुं० १. वह जो प्रतिकूल या विरुद्ध आचरण या व्यवहार करता हो। २. दुश्मन। शत्रु। उदा०—पार भई परिपंथि गंजिमय।—गोरखनाथ। ३. लुटेरा। डाकू।
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परिपंथिक  : वि०, पुं०=परिपंथक।
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परिपंथी (न्थिन्)  : वि०, पुं० [सं० परि√पंथ्+ णिनि ]=परिपंथक।
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परिपक्व  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिपक्वता] १. जो अभिवृद्धि, विकास आदि की दृष्टि से पूर्णता तक पहुँच चुका हो। जैसे—परिपक्व अन्न, फल आदि २. अच्छी तरह पचा हुआ (भोजन)। ३. जिसका उपयुक्त या नियत समय आ गया हो। (मैच्योर) ४. अच्छा अनुभवी, ज्ञाता और बहुदर्शी। ५. कुशल। दक्ष। निपुण।
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परिपक्वता  : स्त्री० [सं० परिपक्व+तल्+टाप्] परिपक्व होने की अवस्था या भाव।
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परिपण  : पुं० [परि√पण् (व्यवहार करना)+घ] मूलधन। पूँजी।
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परिपणन  : पुं० [सं० परि√पण्+ल्युट्—अन] १. बाजी या शर्त लगाना। २. प्रतिज्ञा या वादा करना।
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परिपणित  : भू० कृ० [सं० परि√पण्+क्त] १. (कार्य या बात) जिस पर शर्त लगी या लगाई गई हो। २. (धन) जो बाजी या शर्त में लगाया गया हो। ३. (बात) जिसके संबंध में वादा किया गया हो।
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परिपणित-काल-संधि  : स्त्री० [सं० काल-संधि, ष० त० परिपणित-काल संधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली एक तरह की संधि, जिसमें यह नियत किया जाता था कि कितने-कितने समय तक कौन-कौन सदस्य लड़ेगा।
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परिपणित-देश-संधि  : स्त्री० [सं० देश-संधि, ष० त०, परिपणित-देशसंधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली वह संधि, जिसमें यह नियत होता था कि कौन किस देश पर आक्रमण करेगा।
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परिपणित-संधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह संधि जिसमें कुछ शर्तें स्वीकार की गई हों।
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परिपणितार्थ-संधि  : स्त्री० [सं० अर्थ-संधि, ष० त० परिपणितअर्थसंधि, कर्म० स०] ऐसी संधि जिसके अनुसार किसी को पूर्व निश्चय के अनुसार कुछ काम करना पड़ता हो।
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परिपतन  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी के चारों ओर उड़ना, चक्कर लगाना या मँडराना।
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परिपति  : वि० [सं० परि√पत् (गिरना)+इन्] जो सब का स्वामी हो। पुं० परमात्मा।
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परिपत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह आधिकारिक पत्र जो विशिष्ट या संबद्ध पदाधिकारियों, सदस्यों आदि को सूचनार्थ भेजा जाता है। गश्ती चिट्ठी। (सरक्यूलर) २. वह पत्र जिसमें किसी को कुछ स्मरण करने के लिए कुछ लिखा गया हो। स्मृतिपत्र। (मैमोरैण्डम)
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परिपथ  : पुं० [सं०] १. किसी वृत्ताकार वस्तु के किनारे-किनारे बना हुआ पथ। २. अनेक नगरों, देशों, स्थलों आदि में पारी-पारी से होते हुए जाने के लिए पहले से नियत किया हुआ मार्ग। (सरकिट)
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परिपर  : पुं० [सं० परि√पृ (पूर्ति)+अप्]=परिपथ।
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परिपवन  : पुं० [सं० परि√पू (पवित्र करना)+ल्युट्—अन] १. अनाज ओसाना या बरसाना। २. अन्न ओसाने का सूप।
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परिपांडिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पांडिमान, पांडु+ इमनिच्, परिपांडिमन्, प्रा० स०] बहुत अधिक सफेदी या पीलापन।
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परिपांडु  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत हलका पीला। सफेदी लिए हुए पीला। २. दुबला-पतला। कृश और क्षीण।
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परिपाक  : पुं० [सं० परि√पच् (पकाना)+घञ्] १. अच्छी तरह या ठीक पकना या पकाया जाना। २. पेट में भोजन अच्छी तरह पचना। ३. किसी विषय या बात की ऐसी पूर्ण अवस्था तक पहुँचना जिसमें कुछ भी त्रुटि न रह जाय। ४. परिणाम। फल। ५. निपुणता। दक्षता।
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परिपाकिनी  : स्त्री० [सं० परिपाक+इनि+ङीष्] निसोथ।
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परिपाचन  : पुं० [सं० परि√पच्+णिच्+ल्युट्—अन] अच्छी तरह पचाना। भली भाँति पचाना।
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परिपाचित  : भू० कृ० [सं० परि√पच्+णिच्+क्त] अच्छी तरह पकाया हुआ।
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परिपाटल  : वि० [सं० प्रा० स०] पीलापन लिए लाल रंगवाला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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परिपाटलित  : भू० कृ० [सं० परिपाटल+क्विप्+क्त] परिपाटल रंग में रँगा हुआ।
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परिपाटि  : स्त्री० [सं० परि√पट् (गति)+णिच्+ इन्]= परिपाटी।
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परिपाटी  : स्त्री० [सं० परिपाटि+ङीष्] १. किसी जाति, समाज आदि में कोई काम करने का कोई विशिष्ट बँधा हुआ ढंग अथवा शैली। २. विशिष्ट अवसर पर कोई विशिष्ट काम करने की प्रथा। ३. उक्त प्रकार के काम करने का ढंग या प्रथा। विशेष—परिपाटी, पद्धति और प्रथा का अन्तर जानने के लिए देखें ‘प्रथा’ का विशेष।
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परिपाठ  : पुं० [सं० परि√पठ् (पढ़ना)+घञ्] १. वेदों का पुनर्पठन। २. विस्तार के साथ उल्लेख या पाठ करना।
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परिपार (रि)  : स्त्री० [सं० पाली=मर्यादा]। उदा०—किहिं नर किहिं सर राखियै खैंर बठै परिपारि।—बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपार्श्व  : वि० [सं० प्रा० स०] पार्श्व या बगल का। बहुत पास का। पुं० १. पार्श्व। २. समीप्य।
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परिपालक  : वि० [सं० परि√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+ ण्वुल—अक] परिपालन करनेवाला।
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परिपालन  : पुं० [सं० परि+पाल+णिच्+ल्युट्—अन] १. रक्षा। बचाव। २. बहुत ही सावधानी से किया जानेवाला पालन-पोषण या लालन-पालन।
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परिपालना  : स्त्री० [सं० परि√पाल्+णिच्+युच्—अन] रक्षण। बचाव। स० [सं० परिपालन] परिपालन करना।
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परिपालनीय  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+अनीयर्] जिसका परिपालन करना या होना चाहिए।
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परिपालयिता (तृ)  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+ अनीयर्] जिसका परिपालन करनेवाला व्यक्ति। परिपालक।
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परिपाल्य  : वि० [सं० परि√पाल्+ण्यत्] जिसका परिपालन करना उचित हो या किया जाने को हो।
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परिपिंजर  : वि० [सं० प्रा० स०] हलके लाल रंग का।
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परिपिच्छ  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक प्रकार का आभूषण, जो मोर की पूँछ के परो का बना होता था।
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परिपिष्टक  : पुं० [सं० परि√पिष् (चूर्ण करना)+क्त+ कन्] सीसा।
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परिपीड़न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत पीड़ा पहुँचाना। बहुत कष्ट देना। २. अच्छी तरह दबाना या पीसना। ३. अनिष्ट, अपकार या हानि करना।
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परिपीड़ित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो बहुत अधिक पीड़ित किया गया हो या हुआ हो।
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परिपोवर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधि मोटा या स्थूल।
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परिपुष्करा  : स्त्री० [सं० प्रा० ब० स०] गोडुंब ककड़ी। गोंडुबा।
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परिपुष्ट  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसका पोषण भली भाँति हुआ हो। पूर्ण रूप से पुष्ट।
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परिपुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिपूजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्यक् प्रकार से किया जानेवाला पूजन या उपासना।
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परिपूत  : वि० [सं० प्रा० स०] अति पवित्र। पुं० ऐसा अन्न जिसमें से कूड़ा-करकट, भूसी आदि निकाल दी गई हो। साफ किया हुआ अन्न।
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परिपूरक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. परिपूर्ण करनेवाला। भर देनेवाला। २. धन-धान्य आदि से युक्त या संपन्न करनेवाला। ३. पूरा। संपूर्ण। सारा।
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परिपूरणीय  : वि० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण किये जाने के योग्य।
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परिपूरन  : वि०=परिपूर्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपूरित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह या पूरा-पूरा भरा हुआ। लबालब। २. पूरा या समाप्त किया हुआ।
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परिपूर्ण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो सब प्रकार से पूर्ण हो। २. अच्छी तरह तृप्त किया हुआ। ३. जो पूरा या समाप्त हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिपूर्णेन्दु  : पुं० [सं० परिपूर्ण-इंदु, कर्म० स०] सोलहों कलाओं से युक्त चंद्रमा। पूर्णिमा का पूरा चाँद।
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परिपूर्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण होने की अवस्था, क्रिया या भाव। परिपूर्णता।
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परिपृच्छक  : वि० [सं० परिप्रच्छक] जिज्ञासा या प्रश्न करनेवाला। पूछनेवाला।
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परिपृच्छनिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह बात जिसके संबंध में वाद-विवाद किया जाय। वाद का विषय।
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परिपृच्छा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूछने की क्रिया या भाव। पूछताछ। २. जिज्ञासा।
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परिपेल  : पुं० [सं० परि√पेल् (कंपन)+अच्] केवटी मोथा। कैवर्त मुस्तक।
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परिपेलव  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर तथा सुकुमार। पुं० केवटी मोथा।
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परिपोट (क)  : पुं० [सं० परि√पुट् (फोड़ना)+घञ्] [परिपोट+कन्] कान का एक रोग जिसमें उसकी त्वचा गल या छिल जाती है।
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परिपोटन  : पुं० [सं० परि√पुट्+ल्युट्—अन] किसी चीज का छिलका अथवा ऊपरी आवरण हटाना।
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परिपोषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिपोषित] अच्छी तरह किया जानेवाला पोषण। भली भाँति पुष्ट करना।
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परिप्रश्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] कोई बात जानने के लिए किया जानेवाला प्रश्न। (एन्क्वायरी)
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परि-प्रश्नक  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ विशेष रूप से किसी विशिष्ट विभाग या विषय से संबंध रखनेवाली बातों की पूछ-ताछ की जाती है। (एन्क्वायरी आफिस)
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परिप्रेक्ष्य  : पुं० [सं०] चित्रकला में, दृश्यों, पदार्थों, व्यक्तियों का ऐसा अंकन या चित्रण जिसमें उनका पारस्परिक अन्तर ठीक उसी रूप में दिखाई देता हो, जिस रूप में वह साधारणतः आँखों से देखने पर दिखाई देता है। (पर्स्पेक्टिव)
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परिप्रेषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिप्रेषित] १. चारों ओर भेजना। २. किसी को दूत या हरकारा बनाकर कहीं भेजना। २. देश-निकाला। निर्वासन। ३. परित्याग।
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परिप्रेषित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. भेजा हुआ। प्रेषित। २. निकाला हुआ। निष्काषित। ३. छोड़ा या त्यागा हुआ। परित्यक्त।
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परिप्रेष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं० प्रा० स०] जो भेजा जाने को हो या भेजे जाने के योग्य हो। पुं० नौकर। सेवक।
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परिप्लव  : वि० [सं० परि√प्लु (गति)+अच्] १. तैरता या बहता हुआ। २. जो गति में हो। ३. हिलता-काँपता हुआ। पुं० १. तैरना। २. पानी की बाढ़। ३. अत्याचार। ४. नाव। नौका।
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परिप्लावित  : भू० कृ० [सं०] (स्थान) जो बाढ़ के कारण जलमग्न हो चुका हो।
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परिप्लुत  : वि० [सं० परि√प्लु+क्त] १. जिसके चारों ओर जल ही जल हो। २. भीगा हुआ। आर्द्र। गीला। तर। ३. काँपता या हिलता हुआ। पुं० कहीं पहुँचने के लिए उछलकर आगे बढ़ने की क्रिया। छलाँग।
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परिप्लुता  : स्त्री० [सं० परिप्लुत+टाप्] १. मदिरा। शराब। २. ऐसी योनि जिसमें मैथुन या मासिक रजःस्राव के समय पीड़ा होती हो। (वैद्यक)
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परिप्लुष्ट  : वि० [सं० परि√प्लुष् (दाह)+क्त] १. जला या जलाया हुआ। २. झुलसा हुआ।
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परिप्लोष  : पुं० [सं० परि√प्लुष्+घञ्] १. तपना। ताप। २. जलन। दाह। ३. शरीर के अन्दर का ताप।
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परिफुल्ल  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह खिला हुआ। खूब खिला हुआ। २. अच्छी तरह खुला हुआ। ३. बहुत अधिक प्रसन्न। ४. जिसके रोएँ खड़े हो गये हों। जिसे रोमांच हुआ हो।
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परिबंधन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिबद्ध] ऐसा बंधन जिसमें चारों ओर से किसी को जकड़ा जाय।
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परिबर्ह  : पुं० [सं० परि√बर्ह् (दान)+घञ्] १. राजाओं के हाथी-घोड़ों पर डाली जानेवाली झूल। २. राजा के छत्र, चँवर आदि राजचिह्न। राजा का साज-सामान। ३. घर-गृहस्थी में नित्य काम आनेवाली चीजें। घर का सामान। ४. धन-सम्पत्ति। दौलत।
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परिबर्हण  : पुं० [सं० परि√बर्ह्+ल्युट्—अन] १. पूजा। उपासना। २. सब प्रकार से होनेवाली वृद्धि। ३. सम्पन्नता। समृद्धि।
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परिबल  : पुं० [सं० प्रा० स०] यंत्रों आदि का वह बल या शक्ति जिसकी प्रेरणा से उसका कोई अंग या पहिया किसी अक्ष या बिन्दु पर घूमता या चक्कर लगाता है। (मोमेन्टम)
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परिबाधा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बहुत बड़ी या विकट बाधा। २. कष्ट। पीड़ा। ३. परिश्रम। ४. थकावट। श्रांति।
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परिबृंहण  : पुं० [सं० परि√बृंह् (वृद्धि)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवृंहित] १. चारों ओर या हर तरफ से बढ़ना। वर्धन। २. पूरक ग्रंथ जो किसी मुख्य ग्रंथ में प्रतिपादित विचारों की पुष्टि और समर्थन करता हो।
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परिबेख  : पुं०=परिवेष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिबेठना  : स० [सं० प्रतिवेष्ठन] आच्छादित करना। लपेटना। ढकना। उदा०—ग्रीष्म द्वैपहरी मिस जोन्ह महा विष ज्वालन सों परिबेठी।—देव।
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परिबोध  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ज्ञान। २. तर्क। ३. वे प्रतिबंध या विघ्न जो दुर्बल चित्तवाले साधकों को समाधिस्थ नहीं होने देते।
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परिबोधन  : पुं० [सं० परि√बुद्ध+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिबोधनीय] १. ठीक प्रकार से बोध करना। २. दंड की धमकी देकर कोई विशेष कार्य करने से रोकना। चेतावनी देना। ३. चेतावनी।
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परिबोधना  : स्त्री० [सं० परि√बुध्+णिच्+युच्—अन, टाप्] चेतावनी।
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परिभंग  : पुं० [सं० प्रा० स०] टुकड़े-टुकड़े करना।
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परिभक्ष  : वि० [सं० परि√भक्ष् (खाना)+अच्] परिभक्षण करनेवाला।
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परिभक्षण  : पुं० [सं० परि√भक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभक्षित] १. पूरी तरह से खाना। २. खूब खाना।
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परिभक्षा  : स्त्री० [सं० परि√भक्ष्+अ+टाप्] आपस्तंब सूत्र के अनुसार एक प्रकार का विधान।
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परिभर्त्सन  : पुं० [सं० प्रा० स०] चारों ओर से होनेवाली भर्त्सना।
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परिभव  : पुं० [सं० परि√भू (होना)+अप्] अनादर। अपमान। तिरस्कार। उदा०—चिर परिभव से श्रेष्ठ है मरण।—पंत।
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परिभवनीय  : वि० [सं० परि√भू+अनीयर्] १. जो अनादर या अपमान का पात्र हो। २. जिसकी पराजय निश्चित-प्राय हो।
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परिभवी (विन्)  : वि० [सं० पर√भू+इनि] दूसरों का अनादर या अपमान करनेवाला।
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परिभाव  : पुं० [सं० परि√भू+घञ्] १. अनादर। अपमान। परिभव। २. मात करना। हराना। पराभव।
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परिभावन  : पुं० [सं० परि√भू+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभावित] १. मिलाप। संयोग। मिलन। २. चिंता। फिक्र।
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परिभावना  : स्त्री० [सं० परि√भू+णिच्+युच्—अन+टाप्] १. चिन्तन। विचार। २. चिंता। फिक्र। ३. साहित्य में ऐसा वाक्य या पद जिससे अतिशय उत्सुकता उत्पन्न हो।
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परिभावित  : भू० कृ० [सं० परि√भू+णिच्+क्त] १. मिला या मिलाया हुआ। मिश्रित। २. व्याप्त। ३. जिस पर विचार किया जा चुका हो। विचारित।
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परिभावी (विन्)  : वि० [सं० परि√भू+णिच्+णिनि] अनादर, अपमान या तिरस्कार करनेवाला।
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परिभावुक  : वि०=परिभावी।
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परिभाषक  : वि० [सं० परि√भाष् (बोलना)+ण्वुल—अक] १. निंदा के द्वारा किसी का अपमान करनेवाला। २. निंदक।
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परिभाषण  : पुं० [सं० परि√भाष्+ल्युट्—अन] १. बात-चीत। वार्तालाप। २. दोषारोपण तथा निंदा करना। ३. नियम।
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परिभाषा  : स्त्री० [सं० परि√भाष्+अ+टाप्] १. बात-चीत। २. निंदा। ३. व्याकरण में वह व्याख्यापक सूत्र जो पाणिनी के सूत्रों के साथ रहता और उनके प्रयोग की रीति बतलाता है। ४. किसी वाक्य में आये हुए पद या शब्द का अर्थ अथवा आशय निश्चित रूप से स्पष्ट करने की क्रिया या प्रकार। ५. ऐसा कथन या वाक्य जो किसी पद या शब्द का अर्थ या आशय स्पष्ट रूप से बतलाता या व्यक्त करता हो। व्याख्या से युक्त अर्थापन। (डेफिनेशन) ६. ऐसा शब्द जो किसी विज्ञान या शास्त्र में किसी विशिष्ट अर्थ में चलता या प्रयुक्त होता हो। परिभाषिक शब्द। (टेक्निकल टर्म)
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परिभाषित  : भू० कृ० [सं० परि√भाष्+क्त] (शब्द या पद) जिसकी परिभाषा की गई या हो चुकी हो। (डिफाइन्ड)
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परिभाषी (षिन्)  : वि० [सं० परि√भाष्+णिनि] बोलने या भाषण करनेवाला।
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परिभाष्य  : वि० [सं० परि√भाष्+ण्यत्] १. जो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता हो या कहा जाने को हो। २. जिसकी परिभाषा की जा रही हो या की जाने को हो।
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परिभिन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. टूटा-फूटा या फटा हुआ। २. विकृत।
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परिभुक्त  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (भोगना)+क्त] जिसका परिभोग किया गया हो या हो चुका हो।
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परिभुग्न  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (चूर्ण करना)+क्त] टेढ़ा।
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परिभू  : वि० [सं० परि√भू+क्विप्] १. जो चारों ओर से घेरे या आच्छादित किये हुए हो। २. नियम, बंधन आदि में रहनेवाला। ३. नियामक। परिचालक।
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परिभूत  : भू० कृ० [सं० परि√भू+क्त] [भाव० परिभूति] १. जिसका परिभव हुआ हो। २. अनादृत। तिरस्कृत। ३. हारा हुआ। परास्त।
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परिभूति  : स्त्री० [सं० परि+भू+क्तिन्] अपमानित होने या हारने की अवस्था या भाव।
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परिभूषण  : पुं० [सं० परि√भूष् (सजाना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभूषित] १. अच्छी तरह से भूषित करना। अलंकृत करना। २. प्राचीन भारत में, वह संधि जो आक्रमक को अपने देश का राजस्व देकर की जाती थी।
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परिभूषित  : भू० कृ० [सं० परि√भूष्+क्त] जिसका परिभूषण किया गया हो या हुआ हो।
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परिभेद  : पुं० [सं० परि√भिद् (फाड़ना)+घञ्] १. अच्छी तरह से भेदन करना। २. शास्त्रों आदि से किया जानेवाला आघात। ३. उक्त प्रकार के आघात से होनेवाला क्षत। घाव। जखम।
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परिभेदक  : वि० [सं० परि√भिद्+ण्वुल्—अक] १. अच्छी तरह भेदन करने अर्थात् काटने या फाड़नेवाला। २. गहरा घाव करनेवाला। पुं० यथेष्ट क्षत या घात करनेवाला शस्त्र।
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परिभोक्ता (क्तृ)  : वि० परि√भुज्+तृच्] १. परिभोग करनेवाला। २. दूसरे के धन का उपभोग करनेवाला। पुं० गुरु के धन का उपभोग करनेवाला व्यक्ति।
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परिभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिभोग्य] १. बहुत अधिक किया जानेवाला भोग। २. स्त्री० के साथ किया जानेवाला मैथुन। संभोग।
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परिभ्रंश  : पुं० [सं० परि√भ्रंश् (अधःपतन)+घञ्] १. गिरना या गिराना। पतन। स्खलन। २. पलायन। भगदड़।
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परिभ्रम  : पुं० [सं० परि√भ्रम (घूमना)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। पर्यटन। २. भ्रम। ३. सीधी तरह से कोई बात न कहकर उसे घुमाफिराकर चक्करदार ढंग या सांकेतिक रूप से कहना। जैसे—‘नाक पर मक्खी न बैठने देना।’ के बदले में कहना—सूँघने की इन्द्रिय पर घर उड़ते फिरने वाले कीड़े या पतंगे को आसन न लगाने देना।
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परिभ्रमण  : पुं० [सं० परि√भ्रम्+ल्युट्—अन] १. चारों ओर घूमना। २. विज्ञान में, किसी एक वस्तु का किसी दूसरी वस्तु को केन्द्र मानकर उसके चारों ओर घूमना या चक्कर लगाना। (रोटेशन) जैसे—चंद्रमा पृथ्वी का और पृथ्वी सूर्य का परिभ्रमण करता है। ३. घेरा। परिधि।
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परिभ्रष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√भ्रंश+क्त] १. गिरा हुआ। च्युत। पतित। २. स्खलित। भागा हुआ।
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परिभ्रामी (मिन्)  : वि० [सं० परि√भ्रम्+णिनि] परिभ्रमण करनेवाला।
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परिमंडल  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिमंडलता] १. गोल। वर्तुलाकार। २. जो तौल में एक परमाणु के बराबर हो। पुं० १. चक्कर। २. घेरा। विशेषतः वृत्ताकार घेरा। परिधि। ३. एक तरह का जहरीला कीड़ा। ३. चंद्रमा अथवा सूर्य के चारों ओर की प्रकाशमान वृत्ताकार रेखा। ४. चंद्रमा या सूर्य का प्रभामंडल। (कारोना)
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परिमंडल कुष्ठ  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुष्ठ का एक भेद।
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परिमंडलता  : स्त्री० [सं० परिमंडल+तल्+टाप्] गोलाई।
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परिमंडलित  : भू० कृ० [सं० परिमंडल+इतच्] चारों ओर से गोल किया हुआ। गोलाकृति बनाया हुआ।
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परिमंथर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक मंथर।
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परिमंद  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अत्यधिक मंद बुद्धि। २. बहुत ही शिथिल या सुस्त।
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परिमन्यु  : वि० [सं० अत्या० स०] जिसे बहुत अधिक क्रोध आता हो। क्रोधी स्वभाव का। गुस्सेवर।
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परिमर  : पुं० [सं० परि√मृ (मरना)+अप्] १. पूर्ण नाश। २. किसी के पूर्ण नाश के लिए किया जानेवाला एक तांत्रिक प्रयोग। ३. वायु।
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परिमर्द्द  : पुं० [सं० परि√मृद् (मर्दन)+घञ्] बहुत अधिक या अच्छी तरह से किया जानेवाला मर्दन।
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परिमर्श  : पुं० [सं० परि√मृद् (छूना, विचारना)+घञ्] १. छू जाना। लग जाना। २. लगाव होना। ३. अच्छी तरह किया जानेवाला विचार। परामर्श।
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परिमर्ष  : पुं० [सं० परि√मृष् (सहना)+घञ्] १. ईर्ष्या। २. कुढ़न। ३. क्रोध।
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परिमल  : पुं० [सं० परि√मल् (धारण)+अच्] १. अच्छी तरह मलना। २. शरीर में सुगंधित द्रव्य मलना या लगाना। ३. उक्त प्रकार से शरीर में मले या लगाये हुए पदार्थों से निकलनेवाली सुगंध। ४. खुशबू। सुगंध। सुवास। ५. पुष्पों आदि से निकलनेवाली वह सुगंध जो चारों ओर दूर तक फैलती हो। ६. मैथुन। संभोग। ६. पंडितों या विद्वानों की मंडली या समुदाय।
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परिमलज  : वि० [सं० परिमल√जन् (उत्पन्न होना)+ ड] परिमल अर्थात् मैथुन से प्राप्त होनेवाला (सुख)।
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परिमलित  : भू० कृ० [सं० परिमल+इतच्] फूलों आदि की सुगंध से सुगंधित किया हुआ।
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परिमा  : स्त्री० [सं० परि√मा (मापना)+अङ्+टाप्] १. सीमा। हद। २. ज्यामिति में, किसी क्षेत्र की सीमा सूचित करनेवाली रेखा। (बाउंड)
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परिमाण  : पुं० [सं० परि√मा+ल्युट्—अन] १. गिनने, तौलने, मापने आदि पर प्राप्त होनेवाला फल। २. नाप, जोख तौल आदि की दृष्टि से किसी वस्तु की लंबाई, चौड़ाई, भार, घनत्व विस्तार आदि। मान। (क्वान्टिटी) ३. चारों ओर का विस्तार। घेरा।
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परिमाणक  : पुं० [सं० परिमाण+कन्] १. परिमाण। २. तौल। भार।
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परिमाण-मंडल  : पुं० [सं०] भूगर्भ-शास्त्र में पृथ्वी के तीन मुख्य पटलों या विभागों में बीच का पटल या विभाग जो अनेक प्रकार की धातु-मिश्रित चट्टानों का बना हुआ गरम और ठोस है और जिसके ऊपरी पटल पर मनुष्य बसते और वनस्पतियाँ उगती हैं। (बैरिस्फीयर)
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परिमाणी (णिन्)  : वि० [सं० परिमाण+इनि] परिमाण युक्त। परिमाण विशिष्ट।
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परिमाता (तृ)  : वि० [सं० परि√मा+तृच्] परिमाण का पता लगानेवाला। परिमाण स्थिर करनेवाला।
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परिमाथी (थिन्)  : वि० [सं० परि√मथ् (मथना)+ णिनि] कष्ट देनेवाला।
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परिमान  : पुं०=परिमाण।
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परिमाप  : पुं० [सं० परि√मा+णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] १. मापने या नापने की क्रिया या भाव। २. लंबाई, चौड़ाई की नाप या लेखा। (डाइमेंशन) ३. वह उपकरण जिससे कोई चीज मापी या नापी जाय। (स्केल) ४. ज्यामिति में किसी आकृति, क्षेत्र या तल को चारों ओर से घेरनेवाली बाहरी रेखा अथवा ऐसी रेखा की लंबाई या विस्तार। (परिमीटर)
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परिमार्ग  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी चीज के चारों ओर बना हुआ पथ या मार्ग। परिपथ।
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परिमार्गन  : पुं० [सं० परि√मार्ग (खोजना)+ल्युट्—अन ] १. टोह या पता लगाने के लिए चारों ओर जाना। २. अन्वेषण। ३. मन-बहलाव या सैर-सपाटे के लिए घूमना। (एक्सकर्शन)
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परिमार्गी (गिन्)  : वि० [सं० परि√मार्ग+णिनि] टोह या पता लगाने वाला।
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परिमार्जक  : वि० [सं० परि√मृज् (शुद्धि करना)+ ण्वुल्—अक] परिमार्जन करनेवाला।
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परिमार्जन  : पुं० [सं० परि√मृज्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमार्जित] १. साफ करने के लिए अच्छी तरह धोना। २. अच्छी तरह साफ करना। ३. साहित्य में, उनकी त्रुटियों, कमियों आदि को दूर करना और इस प्रकार उन्हें उज्जवल बनाना। ४. भूलें आदि सुधारना। ५. प्राचीन भारत में एक प्रकार की मिठाई जो शहद में पागकर बनाई जाती थी।
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परिमार्जित  : भू० कृ० [सं० परि√मृज्+णिच्+क्त] जिसका परिमार्जन किया गया हो या हुआ हो। स्वच्छ किया या सुधारा हुआ।
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परिमित  : वि० [सं० परि√मा+क्त] [भाव० परिमिति] १. जो मापा जा चुका हो। २. परिमाण या मात्रा में जो किसी विशिष्ट विंदु, संख्या आदि से कम हो, कम किया गया हो अथवा उससे अधिक न बढ़ सकता हो। (लिमिटेड)
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परिमितकथी (थिन्)  : वि० [सं० परिमित√कथ् (कहना)+णिनि] कम बोलनेवाला। नपे-तुले शब्द या बातें कहनेवाला। अल्प-भाषी।
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परिमितायु (स्)  : वि० [सं० परिमित-आयुस्, ब० स० ] जिसकी आयु परिमिति अर्थात् थोड़ी हो।
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परिमिताहार  : पुं० [सं० परिमिति-आहार, ब० स०] अल्प भोजन। कम खाना। वि० कम भोजन करनेवाला। अल्पाहारी।
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परिमिति  : स्त्री० [सं० परि√मा+क्तिन्] १. परिमिति होने की अवस्था या भाव। २. परिमाण। ३. सीमा। हद। ४. क्षितिज। ५. प्रतिष्ठा। मर्यादा।
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परिमिलन  : पुं० [सं० परि√मिल् (मिलना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमिलित] १. मिलन। २. संपर्क। ३. स्पर्श। ४. संयोग।
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परिमीठ  : भू० कृ० [सं० परि√मिह् (सींचना)+क्त] मूत्र से सिक्त।
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परिमुक्त  : वि० [सं० परि√मुच् (छोड़ना)+क्त] [भाव० परिमुक्ति] बिलकुल स्वतन्त्र।
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परिमृज्य  : वि० [सं० परि√मृज्+क्विप्] १. परिमार्जित किये जाने के योग्य। २. जिसका परिमार्जन होने को हो।
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परिमृष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√मृज् (शुद्ध करना)+क्त] १. धोया हुआ। २. साफ किया हुआ। ३. अधिकार में किया या लिया हुआ। अधिकृत। ४. (व्यक्ति) जिससे परामर्श किया गया हो। ५. (विषय) जिसके संबंध में परामर्श हो चुका हो। ६. आलिंगित।
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परिमृष्टि  : स्त्री० [सं० परिमृज्+क्तिन्] परिमृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिमेय  : वि० [सं० परि√मा+यत्] १. जिसका परिमाण जाना जा सके अथवा जाना जाने को हो। २. घनत्व, मान, विस्तार, संख्या आदि में कम।
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परिमोक्ष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण मोक्ष। निर्वाण। २. परित्याग। छोड़ना। ३. सब को मोक्ष देनेवाले, विष्णु। ४. मल-त्याग करना। हगना।
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परिमोक्षण  : पुं० [सं० परि√मोक्ष (छोड़ना)+ल्युट्—अन ] १. मुक्त करना या होना। २. मुक्ति या मोक्ष देना। ३. परित्याग करना। छोड़ना। ४. मल-त्याग करना। हगना। ५. हठयोग की भाँति धौति क्रिया से आँतें साफ करना।
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परिमोष  : पुं० [सं० परि√मुष् (चोरी करना)+घञ्] १. चोरी। २. डाका।
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परिमोषक  : पुं० [सं० परि√मुष्+ण्वुल्—अक] १. चोर। डाकू।
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परिमोषण  : पुं० [सं० परि√मुष्+ल्युट्—अन] चुराने या डाका डालने का काम। किसी को मूसना; अर्थात् उसका सब-कुछ ले लेना।
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परिमोषी (षिन्)  : पुं० [सं० परि√मुष्+णिनि] १. चोर। २. डाकू।
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परिमोहन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्मोहन। (दे०)
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परिम्लान  : वि० [सं० प्रा० स०] १. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ। २. निस्तेज। हतप्रभ।
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परियंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियंत  : अव्य०=पर्यंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियज्ञ  : पुं० [सं० ब० स०] किसी बड़े यज्ञ के पहले या पीछे किया जानेवाला छोटा यज्ञ
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परियत्त  : भू० कृ० [सं० परि√यत् (प्रयत्न)+क्त] चारों ओर से घिरा हुआ।
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परियष्टा (ष्टृ)  : पुं० [सं० परि√यज् (देवपूजन)+तृच्] अपने बड़े भाई से पहले सोम-याग करनेवाला व्यक्ति।
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परिया  : पुं० [तामिल परेंयान] दक्षिण भारत की एक प्राचीन अछूत या अस्पृश्य जाति। वि० १. अछूत। अस्पृश्य। २. क्षुद्र। तुच्छ। स्त्री० [देश०] वे लकड़ियाँ जिससे ताना ताना जाता है।
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परियाण  : पुं० [सं० परि√या (जाना)+ल्युट्—अन] १ चारों ओर घूमना। २. पर्यटन।
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परियाणिक  : पुं० [सं० परियाण+ठन्—इक्] १. वह जो परियाण या पर्यटन कर रहा हो। २. वह गाड़ी जिस पर बैठकर घूमा-फिरा जाता हो।
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परियात  : वि० [सं० परि√या+क्त] १. जो घूम-फिरकर लौट आया हो।
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परियाना  : अ० [सं० प्र-याति] जाना। उदा०—केन कार्य परियासि कुत्र।—प्रिथीराज। स० [?] अलग अलग करना। छाँटना।
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परियार  : पुं० [देश०] बिहारी शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की एक उपजाति। २. मदरास में बसनेवाली एक छोटी जाति।
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परियुक्ति  : स्त्री० [सं० परि√युज् (लगाना)+क्तिन्] १. काम, बात, समय आदि निश्चित या नियत करने अथवा इनके लिए किसी व्यक्ति को नियत या नियुक्त करने की क्रिया या भाव। २. वह स्थिति जिसमें किसी काम या बात के लिए कोई किसी से वचन-बद्ध हो। ठहराव। (एंगेजमेंट)
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परियुद्धक  : पुं० [सं०] युद्ध-काल में वह देस जो अपने हितों के रक्षार्थ दूसरे देश या देशों से लड़ रहा हो। (बेलीगरेन्ट)
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परियोजना  : स्त्री० [सं०] कार्य-रूप में लायी जानेवाली योजना के संबंध में नियमित और व्यवस्तिति रूप से स्थिर किया हुआ विचार और स्वरूप। (स्कीम)
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परिरंभ, परिरंभण  : पुं० [सं० परि√रभ् (मलना)+घञ्, मुम्] [सं० परि√रभ्+ल्युट्—अन] [वि० परिरंभित, परिरंभी] अच्छी तरह से गले लगाना। कसकर गले मिलना। गाढ़ अलिंगन।
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परिरंभना  : स० [सं० परिरंभ+ना (प्रत्य०)] किसी को गले से लगाना। आलिंगन करना।
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परिरक्षक  : वि० [सं० परि√रक्ष् (बचाना)+ण्वुल्—अक] जो सब ओर से रक्षा करता हो। हर तरफ से बचानेवाला।
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परिरक्षण  : पुं० [सं० परि√रक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिरक्षित] हर तरह से रक्षा करना।
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परिरथ्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] चौड़ा रास्ता जिस पर रथ चलते थे।
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परिरब्ध  : वि० [सं० परि√रभू+क्त] १. घिरा हुआ। गले लगाया हुआ।
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परिरमित  : वि० [सं० परिरत] (काम, क्रीड़ा आदि में) लीन।
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परिराटी (टिन्)  : वि० [सं० परि√रट् (रटना)+घिनुण्] १. चीखने-चिल्लानेवाला। २. कर्कश ध्वनि करनेवाला।
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परिरूप  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. कला, शिल्प आदि के क्षेत्र में, वह कलापूर्ण रेखा-चित्र जिसे आधार मानकर तथा जिसके अनुकरण पर कोई काम किया या रचना खड़ी की जाय। भाँत। २. उक्त के अनुकरण पर बनी हुई चीज। (डिज़ाइन, उक्त दोनों अर्थों में) जैसे—शहरों में कपड़ों और मकानों के नये-नये परिरूप देखने में आते हैं।
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परिरूपक  : पुं० [सं० परि√रूप् (रूपान्वित करना)+ णिच्+ण्वुल्—अक] वह शिल्पी जो विभिन्न वस्तुओं के नये-नये परिरूप बनाता हो। (डिज़ाइनर)
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परिरेखा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी तिकोने, चौकोर अथवा बहुभुजी क्षेत्र के सब ओर पड़नेवाली रेखा। (पेरिफेरी) जैसे—किसी टापू या पहाड़ की परिरेखा।
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परिरोध  : पुं० [सं० परि√रुध् (रोकना)+घञ्] चारों ओर से छेंकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलंघन  : पुं० [सं० परि√लङ्घ (लाँघना)+ल्युट्—अन] लाँघना।
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परिलघु  : वि० [सं० अत्या० स०] १. बहुत छोटा। २. बहुत जल्दी पचनेवाला। लघुपाक।
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परिलिखन  : पुं० [सं० परि√लिख् (लिखना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिलिखित] घिस या रगड़ कर किसी चीज को चिकना बनाना।
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परिलिखित  : भू० कृ० [सं० परि√लिख्+क्त] घिस या रगड़कर चिकना किया हुआ।
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परिलीढ़  : भू० कृ० [सं० परि√लिह् (चाटना)+क्त] अच्छी तरह चाटा हुआ
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परिलुप्त  : भू० कृ० [स० परि√लुप् (काटना)+क्त] १. जो लुप्त हो चुका हो। खोया हुआ। २. क्षतिग्रस्त।
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परिलुप्त-संज्ञ  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी संज्ञा न रह गई हो। बेहोश।
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परिंलूत  : भू० कृ० [सं० परि√लू+क्त] कटा अथवा काटकर अलग किया हुआ।
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परिलेख  : पुं० [सं० परि√लिख्+घञ्] १. चित्र का ढाँचा। रेखा-चित्र। खाका। २. चित्र। तसवीर। ३. चित्र अंकित करने की कूँची या कलम। ४. उल्लेख। वर्णन। ५. बड़े अधिकारियों के पास भेजा जानेवाला विवरण। (रिटर्न)
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परिलेखन  : पुं० [सं० परि√लिख्+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु के चारों ओर रेखाएँ बनाना। २. लिखना। ३. चित्र अंकित करना।
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परिलेखना  : स० [सं० परिलेख] कुछ महत्त्व का मानना या समझना। किसी लेखे में गिनना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलेही (हिन्)  : पुं० [सं० परि√लिह्+णिनि] एक रोग जिसमें कान की लोलक पर फुंसियाँ निकल आती हैं।
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परिलोप  : पुं० [सं० परि√लुप् (छेदन)+घञ्] १. लुप्त हो जाना। २. क्षति। हानि। ३. विनाश। विलोप।
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परिवंचन  : पुं० [सं० परि√वञ्च् (ठगना)+ल्युट्—अन] धोखा देना ठगना।
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परिवक्रा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वृत्ताकार गड्ढा।
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परिवत्सर  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. आदि से अंत तक का पूरा वर्ष या साल। २. ज्योतिष के पाँच विशेष संवत्सरों में से एक जिसका अधिपति सूर्य होता है।
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परिवत्सरीय  : वि० [सं० परिवत्सर+छ—ईय] परिवत्सर-संबंधी।
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परिवदन  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+ल्युट्—अन] दूसरे की की जानेवाली निंदा या बुराई।
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परिवपन  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+ल्युट्—अन] १. कतरना। २. मूँड़ना।
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परिवर्जन  : पुं० [सं० परि√वृज् (निषेध)+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्जनीय, भू० कृ० परिवर्जित] परित्याग करना। त्यागना। छोड़ना। तजना। २. मार डालना। वध या हत्या करना।
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परिवर्जनीय  : वि० [सं० परिवृज+अनीयर्] परित्याज्य।
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परिवर्जित  : भू० कृ० [सं० परि√वृज्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्जन हुआ हो। त्यागा हुआ।
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परिवर्णी  : वि० [सं० परिवर्ण+हिं० ई (प्रत्य०)] (शब्द) जो कई शब्दों के आरंभिक वर्णों या अक्षरों के योग से अथवा कुछ शब्दों के आरंभिक तथा कुछ शब्दों के अंतिम वर्णों या अक्षरों के योग से बना हो। (ऐक्रास्टिक) जैसे—भारतीय+युरोपीय के योग से ‘भारोपीय’ अथवा चानव और जेहलम (झेलम) नदियों के बीचवाले प्रदेश का नाम ‘चज’ परिवर्णीशब्द है। इसी प्रकार चांद्रमास के पक्षों के ‘बदी’ (देखें) और ‘सुदी’ (देखें) भी परिवर्णी शब्द हैं।
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परिवर्त  : पुं० [सं० परि√वृत् (बरतना)+घञ्] १. घुमाव। चक्कर। फेरा। २. अदला-बदली। विनिमय। ३. वह चीज जो किसी दूसरी चीज के बदले में दी या ली जाय। ४. किसी काल या युग का अंत होना या बीतना। ५. ग्रंथ का अध्याय या परिच्छेद। ६. संगीत में स्वर-साधन की एक प्रणाली।
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परिवर्तक  : वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्—अक] घूमनेवाला। चक्कर खानेवाला। वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्] १. घुमानेवाला। फिरानेवाला। चक्कर देनेवाला। २. अदला-बदली या विनिमय करनेवाला। ३. किसी प्रकार का परिवर्तन करनेवाला। ४. युग का अंत करनेवाला। पुं० मृत्यु के पुत्र दुस्साह का एक पुत्र।
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परिवर्तन  : पुं० [सं० परि√वृत्+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्तनीय, परिवर्तित, परिवर्ती] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। २. चक्कर या फेरा लगाना। घुमाव। चक्कर फेरा। ४. किसी काल या युग का अंत या समाप्ति। ५. एक चीज के बदले में दूसरी चीज देना। विशेषतः किसी की पसंद या सुभीते की चीज उसे देकर उसके बदले में अपनी पसंद या सुभीते की चीज लेना। (कम्यूटेशन) जैसे—नोटों का रुपये में और रुपये का रेजगी में परिवर्तन। ६. वह चीज जो इस प्रकार बदले में दी या ली जाय। ६. किसी की आकृति, गुण, रूप, स्थिति आदि में होनेवाला फेर-फार, सुधार, ह्रास आदि। जैसे—रंग, स्वास्थ्य या हृदय का परिवर्तन। ८. वह क्रिया जो किसी चीज या बात का रूप बदलने अथवा उसे नया रूप देने के लिए की जाय। (चेंज) ९. एक के स्थान पर दूसरे के आने का भाव। जैसे—ऋतु का परिवर्तन, पहनावे का परिवर्तन। १॰. भारतीय युद्ध-कला में शत्रु पर प्रहार करने के लिए उसके चारों ओर घूमना।
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परिवर्तनीय  : वि० [सं० परि√वृत्+अनीयर्] जिसमें परिवर्तन किया जाने को हो।
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परिवर्तिका  : स्त्री० [सं० परि√वृत्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें अधिक खुजलाने, दबाने या चोट लगने के कारण लिंगचर्म उलट कर सूज जाता है।
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परिवर्तित  : भू० कृ० [सं० परि√वृत्+णिच्+क्त] १. जिसमें परिवर्तन किया गया हो या हुआ हो। जिसका आकार या रूप बदला गया हो। बदला हुआ। रूपांतरित। २. जो किसी के परिवर्तन या बदले में मिला हो।
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परिवर्तिनी  : स्त्री० [सं० परिवर्तिन्+ङीप्] भादों के शुक्ल पक्ष की एकादशी।
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परिवर्ती (र्तिन्)  : [सं० परि√वृत्+णिनि] १. बराबर घूमता रहनेवाला। २. जिसमें परिवर्तन या फेर-बदल होता रहता हो। बराबर बदलता रहनेवाला। परिवर्तनशील। ३. परिवर्तन या विनिमय करनेवाला।
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परिवर्तुल  : वि० [सं० प्रा० स०] ठीक और पूरा गोल या वर्त्तुल।
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परिवर्त्यता  : स्त्री० [सं०] परिवर्त्य होने की अवस्था, गुण या भाव।
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परिवर्द्धन  : पुं० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवर्द्धित] १. आकार-प्रकार, विषय-वस्तु आदि में की जानेवाली वृद्धि। (एनलार्जमेंट) जैसे—पुस्तक का परिवर्द्धन। २. इस प्रकार बढ़ाया हुआ अंश। ३. जोड़।
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परिवर्द्धित  : भू० कृ० [सं० परि√वर्ध्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्द्धन किया गया हो या हुआ हो। बढ़ा या बढ़ाया हुआ। (एनालार्जड)
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परिवर्म (वर्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] वर्म से ढका हुआ। बख्तर से ढका हुआ। जिरहपोश।
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परिवर्ष  : पुं० [सं०] उतना समय जितना किसी एक ग्रह को रवि-बीच से चलकर फिर दोबारा वहाँ तक पहुँचने में लगता है। (अनोमेलस्टिक ईयर)
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परिवर्ह  : पुं० [सं० परि√वर्ह (उत्कर्ष)+घञ्] १. चँवर, छत्र आदि राजत्व की सूचक वस्तुएँ। २. राजाओं के दास आदि। ३. घर, कमरे आदि को सजाने के लिए उसमें रखी जानेवाली वस्तुएँ। सजावट की चीजें। ४. गृहस्थी में काम आनेवाली वस्तुएँ। ५. सम्पत्ति।
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परिवर्हण  : पुं० [सं० परि √वर्ह+ल्युट्—अन] १. अनुचर वर्ग। २. वेश-भूषा। पोशाक। ३. वृद्धि। ४. पूजा।
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परिवसथ  : पुं० [सं० परि√वस् (बसना)+अथच्] गाँव। ग्राम।
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परिवह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+अच्] १. सात पवनों में से छठा पवन; जो आकाश गंगा, सप्तऋषियों आदि को वहन करता है। २. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक जिह्वा की संज्ञा।
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परिवहन  : पुं० [सं० परि√वह्+ल्युट्—अन] माल, यात्रियों आदि को एक स्थान से ढोकर दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य, जो आज-कल रेलों, मोटरों, जहाजों, नावों आदि अनेक साधनों द्वारा किया जाता है। (ट्रान्सपोर्ट)
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परिवहन तंत्र  : पुं० [सं०] दे० ‘रक्तवह-तंत्र।
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परिवाँण  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवा  : स्त्री०=प्रतिपदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवाद  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+घञ्] १. निंदा। बुराई। शिकायत। २. बदनामी। ३. झूठी निन्दा या शिकायत। मिथ्या दोषारोपण। ४. कोई असुविधा या कष्ट होने पर अधिकारियों के सामने की जानेवाली किसी काम, बात, व्यक्ति आदि की शिकायत। (कम्पलेन्ट) ५. लोहे के तारों का वह छल्ला जिसे उँगली पर पहनकर वीणा, सितार आदि बजाई जाती है। मिजराब।
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परिवादक  : वि० [सं० परि√वद्+ण्वुल्—अक] १. परिवाद या निंदा करनेवाला। निंदक। २. शिकायत करनेवाला। पुं० वह जो वीणा, सितार या इसी तरह का और कोई बाजा बजाता हो।
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परिवादिनी  : स्त्री० [सं० परिवादिन्+ङीष्] एक तरह की वीणा जिसमें सात तार होते हैं।
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परिवादी (दिन्)  : वि० [सं० परि√वद्+णिनि]= परिवादक।
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परिवान  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवानना  : स० [सं० प्रमाण] प्रमाण के रूप में या ठीक मानना।
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परिवाप  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+घञ्] १. बाल आदि मूँड़ना। २. बोना। ३. जलाशय। ४. घर का उपयोगी सामान। ५. अनुचरवर्ग। ६. भूना हुआ चावल। लावा। फरुही। ६. छेना।
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परिवापित  : भू० कृ० [सं० परि√वप्+णिच्+क्त] मूँड़ा हुआ। मुंडित।
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परिवार  : पुं० [सं० परि√वृ (ढकना)+घञ्] १. एक ही पूर्व पुरुष के वंशज। २. एक घर में और विशेषतः एक कर्ता के अधीन या संरक्षण में रहनेवाले लोग। ३. किसी विशिष्ट गुण, संबंध आदि के विचार से चीजों का बननेवाला वर्ग। जैसे—आर्य-भाषाओं का परिवार। (फेमिली) ४. किसी राजा, रईस आदि के आगे-पीछे चलने या साथ रहनेवाले लोग।
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परिवारण  : पुं० [सं० परि√वृ+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिवारित] १. ढकने या छिपाने की क्रिया। २. आवरण। आच्छादन। ३. तलवार की म्यान। कोष।
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परिवार नियोजन  : पुं० [सं०] आज-कल देश अथवा संसार की दिन पर दिन बढ़ती हुई जन-संख्या को नियंत्रित करने या सीमित रखने के उद्देश्य से गार्हस्थ जीवन के संबंध में की जानेवाली वह योजना जिससे लोग आवश्यकता अथवा औचित्य से अधिक संतान उत्पन्न न करें। (फैमिली प्लानिंग)
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परिवारित  : भू० कृ० [सं० परि√वृ+णिच्+क्त] घिरा या घेरा हुआ। आवेष्टित।
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परिवारी  : पुं० [सं० परिवार] १. परिवार के लोग। २. नाते-रिश्ते के लोग। वि० पारिवारिक।
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परिवार्षिक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो पूरे वर्ष भर चलता या होता रहे। जैसे—परिवार्षिक नाला—ऐसा नाला जो बराबर बहता रहे, गरमियों में सूख न जाय; परिवार्षिक वृक्ष=ऐसा वृक्ष जो बराबर हरा रहता हो, और जिसके पत्ते किसी ऋतु में झड़ते न हों। २. बराबर या बहुत दिन तक स्थायी रूप से बना रहनेवाला। (पेरीनियल)
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परिवास  : पुं० [सं० परि√वस्+घञ्] १. टिकना। ठहरना। २. घर। मकान। ३. खुशबू। सुगन्ध। ४. संघ से किसी भिक्षु का होनेवाला बहिष्करण। (बौद्ध)
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परिवासन  : पुं० [सं० परि√वस्+णिच्+ल्युट्—अन] खंड। टुकड़ा।
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परिवाह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+घञ्] १. ऐसा बहाव जिसके कारण पानी ताल, तालाब आदि की समाई से अधिक हो जाता हो। पानी का खूब भर जाने के कारण बाँध, मेंड़ आदि के ऊपर से होकर बहना। २. वह नाली जिसके द्वारा आवश्यकता से अधिक पानी बाहर निकलता या निकाला जाता हो। जल की निकासी का मार्ग। ३. किसी प्रदेश की ऐसी नदियों की व्यवस्था जिनमें नावों आदि से माल भेजे जाते हों।
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परिवाही (हिन्)  : वि० [सं० परि√वह+णिनि] [स्त्री० परिवाहिनी] (तरल पदार्थ) जो आधान या पात्र में या किनारों पर से इधर-उधर भर जाने पर ऊपर से बहता हो।
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परिविंदक  : पुं० [सं० परि√विद् (प्राप्त करना)+ण्वुल—अक, नुम्] वह व्यक्ति जो बड़े भाई का विवाह होने से पहले अपना विवाह कर ले। परवेत्ता।
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परिविंदत्  : पुं० [परि√विन्द्+शतृ, नुम्] परिविंदक। (दे०)
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परिविण्ण (न्न)  : पुं० [सं० परि√विन्द् (लाभ)+क्त]= परिवित्त।
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परिवितर्क  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. विचार। २. परीक्षा। (बौद्ध)
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परिवित्त  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिविंदक। (दे०)
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परिवित्ति  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिवित्त। परिविंदक।
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परिविद्ध  : वि० [सं० परि√व्यध् (बेधना)+क्त] भली भाँति या चारों ओर से बिधा हुआ। पुं० कुबेर।
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परिविविदान  : पुं० [सं० परि√विद्+लिट्+कानच्] परिविंदक। (दे०)
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परिविष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√विष् (व्याप्ति)+क्त] [भाव० परिविष्टि] १. घिरा अथवा घेरा हुआ। २. परोसा हुआ (भोजन)।
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परिविष्टि  : स्त्री० [सं० परि√विष्+क्तिन्] घेरा। वेष्टन। २. सेवा। टहल। ३. भोजन परोसना।
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परिविहार  : पुं० [सं० प्रा० स०] जी भरकर या भली-भाँति किया जानेवाला विहार।
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परिवीक्षण  : पुं० [सं० परि-वि√ईक्ष् (देखना)—ल्युट्—अन] १. भली भाँति देखना। २. चारों ओर ध्यानपूर्वक देखना।
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परिवीजित  : वि० [सं० परि√वीज् (पंखा झलना)+क्त] जिस पर पंखे से हवा की गई हो।
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परिवीत  : भू० कृ० [सं० परि√व्य (बुनना)+क्त] १. घिरा हुआ। लपेटा हुआ। २. छिपाया हुआ। ३. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिवृत्त  : वि० [सं० परि√वृ+क्त] १. घेरा, छिपाया या ढका हुआ। २. उलटा-पुलटा हुआ। पुं० कार्य, घटना आदि के संबंध में, दूसरों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया जानेवाला संक्षिप्त विवरण। (स्टेटमेंट)
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परिवृत्ति  : स्त्री० [सं० परि√वृ+क्तिन्] १. ढकने, घेरने या छिपाने वाली वस्तु। घेरा। वेष्टन। २. घुमाव। चक्कर। ३. विनिमय। ४. अंत। समाप्ति। ५. दोबारा कोई काम करने की क्रिया या भाव। ६. किसी के किये हुए काम को देखकर वैसा ही और कोई काम करना। ६. व्याकरण में, एक शब्द या पद को दूसरे ऐसे शब्द या पद से बदलना जिससे अर्थ वही बना रहे। जैसे—‘कमललोचन’ के ‘कमल’ के स्थान पर पद्म’ अथवा ‘लोचन के स्थान पर ‘नयन’ रखना। ८. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी को अनुपात में कम या सस्ती वस्तु देकर अधिक या महंगी वस्तु लेने का वर्णन होता है।
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परिवृद्ध  : वि० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+क्त] [भाव परिवद्धि] १. जिसका परिवर्द्धन हुआ हो। २. चारों ओर से बढ़ा हुआ।
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परिवृद्धि  : स्त्री० [सं० परि√वृध्+क्तिन्] परिवृद्ध होने की अवस्था या भाव।
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परिवेता (तृ)  : पुं० [सं० परि√विद्+तृच्] परिविंदक। (दे०)
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परिवेद  : पुं० [सं० परि√विद्+घञ्] १. पूर्ण ज्ञान। २. अनेक विषयों की होनेवाली जानकारी। ३. परिवेदन।
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परिवेदन  : पुं० [सं० परि√विद्+ल्युट्—अन] १. पूर्ण ज्ञान। परिवेद। २. बड़े भाई के विवाह से पहले छोटे भाई का होनेवाला विवाह। ३. विवाह। शादी। ४. उपस्थिति। विद्यमानता। ५. प्राप्ति। लाभ। ६. वाद-विवाद। बहस। ६. कष्ट। विपत्ति।
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परिवेदना  : स्त्री० [सं० परि√विद् (ज्ञान)+णिच्+युच्—अन, टाप्] १. पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की विवेक-शक्ति। २. चतुराई।
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परिवेदनीया  : स्त्री० [सं० परि√विद्+अनीयर्+टाप्] परिविंदक की पत्नी। आविवाहित व्यक्ति की अनुज वधू।
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परिवेदिनी  : स्त्री० [सं० परिवेद+इनि—ङीष्]=परिवेदनीया।
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परिवेध  : पुं० [सं० परि√विध्+घञ्] १. प्रायः दो चीजों को जोड़ने के लिए उनमें किया जानेवाला ऐसा छेद जिसमें कील, पेच आदि लगाये अथवा चूल कसी जाती है। ३. इस प्रकार का बनाया जानेवाला छेद। (बोर)
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परिवेधन  : पुं० [परि√विध्+ल्युट्] परिवेध करने की क्रिया या भाव। (बोरिंग)
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परिवेश  : पुं० [सं० परि√विश् (प्रवेश)+घिञ्] १. वेष्टन। परिधि। घेरा। २. बदली के समय सूर्य या चंद्रमा के चारों ओर दिखाई देनेवाला घेरा। ३. प्रकाशमान पिंडों के चारों ओर कुछ दूरी तक दिखाई देनेवाला प्रकाश जो मंडलाकार होता है। ४. तेजस्वी पुरुषों, देवताओं आदि के चित्रों में उनके मुखमंडल के चारों ओर दिखलाया जानेवाला प्रकाशमान घेरा। प्रभा-मंडल। भा-मंडल। (हेलो)
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परिवेष  : पुं० [सं० परि√विष् (व्यक्ति)+घञ्] १. भोजन परसना या परोसना। २. चारों ओर से घेरकर रक्षा करनेवाली रचना या वस्तु। ३. परकोटा। प्राचीर। ४. दे० ‘परिवेश’। ५. दे० ‘प्रभावमंडल’।
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परिवेषक  : पुं० [सं० परि√विष्+ण्वुल्—अक] वह व्यक्ति जो भोजन आदि परसता या परोसता हो।
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परिवेषण  : पुं० [सं० परि√विष्+ल्युट्—अन] १. भोजन आदि परसने या या परोसने का काम। २. घेरा। परिधि। ३. दे० ‘परिवेष’।
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परिवेष्टन  : पुं० [सं० परि√वेष्ट् (घेरना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवेष्टित] १. किसी चीज को घेरना अथवा उसके चारों ओर घेरा बनाना। २. घेरा। परिधि। ३. छिपाने या ढकनेवाली चीज। आच्छादन। आवरण।
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परिवेष्टा (ष्दृ)  : पुं० [सं० परि√विष्+तृच] परिवेषक। (दे०)
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परिवेष्टित  : भू० कृ० [सं० परि√वेष्ट्+क्त] १. जो चारों ओर से घिरा हुआ हो। २. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिव्यक्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो अच्छी तरह से व्यक्त हो चुका हो।
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परिव्यय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज के निर्माण में होनेवाला व्यय। २. वह मूल्य जिस पर बिक्री के लिए उत्पादित की हुई अथवा मँगाई हुई वस्तु का घर पर परता बैठता हो। (कॉस्ट) ३. मूल्य। ४. किसी चीज की मरम्मत आदि करने पर बदले में दिया जानेवाला धन। पारिश्रमिक। ५. शुल्क।
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परिव्ययनीय  : वि० [सं परि√व्यय् (खर्च करना)+ अनीयर्] जो परिव्यय के रूप में किसी से लिया या किसी को दिया जा सके। जिस पर परिव्यय जोड़ा या लगाया जा सके। (चार्जेबुल)
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परिव्याध  : वि० [सं० परि√व्यध् (ताड़ना)+ण] चारों ओर से बेधने या छेदनेवाला। पुं० १. जलबेंत। २. कनेर। ३. एक प्राचीन-ऋषि।
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परिव्याप्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह और सब अंगों या स्थानों में फैला या समाया हुआ।
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परिव्रज्या  : स्त्री० [सं० परि√व्रज् (जाना)+क्यप्, टाप्] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। भ्रमण। २. तपस्या। ३. सदा घूमते-फिरते रहकर और भिक्षा माँग कर जीवन बिताने का नियम, वृत्ति या व्रत।
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परिव्राज (क)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+घञ् (संज्ञा में), परि√व्रज्+ण्वुल्—अक] १. वह संन्यासी जो परिव्रज्या का व्रत ग्रहण करके सदा इधर-उधर भ्रमण करता रहे। २. संन्यासी। ३. बहुत बड़ा यती और परम हंस।
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परिव्राजी  : स्त्री० [सं० परि√व्रज्+णिच्+इन्, ङीष्] गोरखमुंडी। मुंड़ी।
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परिव्राट (ज्)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+क्विप्] परिव्राजक। (दे०)
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परिशंकी (किन्)  : वि० [सं० पर√शंक (आशंका करना)+णिनि] अत्यधिक आशंका करने या सशंकित रहनेवाला।
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परिशयन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक सोना। २. कुछ पशुओं और जीव-जंतुओं की वह निद्रा या तंद्रा वाली निष्क्रिय अवस्था जिसमें वे जाड़े के दिनों में शीत के प्रभाव से बचने के लिए बिना कुछ खाये-पीये चुप-चाप एक जगह दबे-दबाये रहते हैं। (हाइबरनेशन)
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परिशिष्ट  : वि० [सं० परि√शिष् (बचना)+क्त] छूटा या बाकी बचा हुआ। अवशिष्ट। पुं० १. पुस्तकों आदि के अंत में दी जानेवाली वे बातें जो मूल में आने से रह गई हों, अथवा जो मूल में आई हुई बातों के स्पष्टीकरण के लिए हों। (एपेंडेक्स) २. अनुसूची। (दे०)
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परिशीलन  : पुं० [सं० परि√शील् (अभ्यास)+ल्युट्—अन] १. मननपूर्वक किया जानेवाला गंभीर अध्ययन। २. स्पर्श।
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परिशीलित  : भू० कृ० [सं० परि√शील्+क्त] (ग्रंथ या विषय) जिसका परिशीलन किया गया हो।
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परिशुद्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिशुद्धता, परिशुद्धि] १. बिलकुल शुद्ध। विशेषतः जिसमें किसी दूसरी चीज का कुछ भी मेल न हो। खरा। २. जिसमें कुछ भी कमी-बेशी या भूल-चूक न हो। बिलकुल ठीक। (एक्योरेट) ३. चुकता किया हुआ। ४. छोड़ा या बरी किया हुआ।
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परिशुद्धता  : स्त्री० [सं० परिशुद्ध+तल्+टाप्]=परिशुद्ध।
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परिशुद्धि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण शुद्धि। सम्यक् शुद्धि। २. किसी बात या विषय की वह स्थिति जिसमें किसी प्रकार की कमी-बेशी या कोई भूल-चूक न हो। (एक्योरेसी)। ३. छुटकारा। मुक्ति।
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परिशुष्क  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बिलकुल सूखा हुआ। २. अत्यंत रसहीन। ३. रसिकता आदि से बिलकुल रहित। पुं० तला हुआ मांस।
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परिशून्य  : वि० [सं० प्रा० स०] जो बिलकुल शून्य हो। पुं० विज्ञान में, वह स्थान जिसमें वायु आदि कुछ भी न हो या जिसमें वायु निकाल ली गई हो। (वायड)
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परिशेष  : वि० [सं० परि√शिष्+घञ्] [भाव० परिशेषण ] जो अब भी शेष हो। जो पूर्णतः अब भी नष्ट या समाप्त न हुआ हो। पुं० १. वह अंश या तत्त्व जो बाकी बच रहा हो। २. अंत। समाप्ति। ३. दे० ‘परिशिष्ट’।
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परिशोध  : पुं० [सं० परि√शुध् (शुद्ध करना)+घञ्] १. अच्छी तरह शुद्ध करना या बनाना। २. ऋण, देन आदि का चुकाया जाना। (रिपेमेंट) ३. किसी से चुकाया जानेवाला बदला। उपकार के बदले में किया जानेवाला अपकार। प्रतिशोध।
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परिशोधन  : पुं० [सं० परि√शुध्+ल्युट्—अन] [वि० परिशोधनीय, भू० कृ० परिशोधित] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज अच्छी तरह शुद्ध हो कर श्रेष्ठ अवस्था में आजा वे। (रेक्टिफिकशेन) २. ऋण देन आदि चुकता करने की क्रिया या भाव। ३. प्रतिशोधन।
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परिशोष  : पुं० [सं० परि√शुष् (सूखना)+घञ्] १. किसी चीज को अच्छी तरह से सुखाना। २. पूरी तरह से सूखे हुए होने की अवस्था या भाव।
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परिश्रम  : पुं० [सं० परि√श्रम् (आयास करना)+घञ्] कोई कठिन, बड़ा या दुस्साध्य काम करने के लिए विशेष रूप से तथा मन लगाकर किया जानेवाला मानसिक या शारीरिक श्रम। मेहनत।
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परिश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० परिश्रम+इनि] १. जो परिश्रमपूर्वक कोई काम करता हो। २. हर काम अपनी पूरी शक्ति लगाकर करनेवाला। मेहनती।
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परिश्रय  : पुं० [सं० परि√श्रि (सेवन)+अच्] १. परिषद्। सभा। २. आश्रय या शरण-स्थल।
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परिश्रांत  : वि० [सं० परि√श्रम्+क्त] [भाव० परिश्रांति] बहुत अधिक थका हुआ। थका-माँदा।
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परिश्रांति  : स्त्री० [सं० परि√श्रम्+क्तिन्] परिश्रांत होने की अवस्था या भाव। बहुत अधिक थकावट।
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परिश्रित्  : वि० [सं० परि√श्रि+क्विप्] आश्रय देनेवाला। पुं० यज्ञ में काम आनेवाला पत्थर का एक विशिष्ट टुकड़ा।
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परिश्रुत  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (बात आदि) जो ठीक प्रकार से या भली-भाँति सुनी गई हो। २. ख्यात। प्रसिद्ध।
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परिश्लेष  : पुं० [सं० परि√श्लिष् (आलिंगन करना)+घञ्] आलिंगन। गले लगाना।
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परिषक्त  : स्त्री०=परिषद्।
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परिषत्त्व  : पुं० [सं० परिषद्+त्व] परिषद् का भाव या धर्म।
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परिषद्  : स्त्री० [सं० परि√सद् (गति)+क्विप्] १. चारों ओर से घेर कर या घेरा बनाकर बैठाना। २. वैदिक युग में विद्वानों की वह सभा जो राजा किसी विषय पर व्यवस्था देने के लिए बुलाता था। ३. बौद्ध-काल में वह निर्वाचित राजकीय संस्था या सभा जो राज्य या शासन से संबंध रखनेवाली सब बातों पर विचार तथा निर्णय करती थी। विशेष—प्राचीन काल में परिषदें तीन प्रकार की होती थीं—(क) शिक्षा-संबंधी। (ख) सामाजिक गोष्ठी-सम्बन्धी। और (ग) राज-शासन-सम्बन्धी। ४. आधुनिक राजनीति विज्ञान में, निर्वाचित या मनोनीत विधायकों की वह सभा जो स्थायी या बहुत-कुछ स्थायी होती है। (काउंसिल) ५. सभा। जैसे—संगीत परिषद्।
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परिषद  : पुं० [सं० परि√सद्+अच्] १. सवारी या जुलूस में चलनेवाले वे अनुचर जो स्वामी को घेर कर चलते हैं। परिषद। २. दरबारी। मुसाहब। ३. सदस्य। सभासद। स्त्री०=परिषद्।
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परिषद्य  : पुं० [सं० परिषद्+यत्] १. परिषद् या सदस्य। २. सभासद। सदस्य। ३. दर्शक। प्रेक्षक।
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परिषद्वल  : पुं० [सं० परिषद्+वलच्] सभासद। सदस्य।
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परिषिक्त  : भू० कृ० [सं० परि√सिंच् (सींचना)+क्त] १. जो अच्छी तरह से सींचा गया हो। २. जिस पर छिड़काव हुआ हो।
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परिषीवण  : पुं० [सं० परि√सिव् (सीना)+ल्युट्—अन] १. चारों ओर से सीना। २. गाँठ लगाना। बाँधना।
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परिषेक  : पुं० [सं० परि√सिच्+घञ्] १. पानी से तर करने की क्रिया। सिंचाई। २. छिड़काव। ३. स्नान।
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परिषेचक  : वि० [सं० परि√सिच्+ण्वुल्—अक] १. सींचनेवाला। २. छिड़कनेवाला।
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परिषेचन  : पुं० [सं० परि√सिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिषिक्त] सींचना। छिड़कना।
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परिष्कंद  : पुं० [सं० परि√स्कन्द (गति)+घञ्] वह जिसका पालन-पोषण माता-पिता द्वारा नहीं बल्कि किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा हुआ हो।
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परिष्कर  : पुं० [सं० परि√कृ (करना)+अप्, सुट्] सजावट। सज्जा।
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परिष्करण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० परिष्कृत] परिष्कार करने अर्थात् साफ और सुंदर बनाने की क्रिया या भाव। (एम्बेलिशमेन्ट)
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परिष्करण शाला  : स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ खनिज, तैल, धातुएँ आदि परिष्कृत या साफ की जाती हैं। (रिफाइनरी)
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परिष्करणी  : स्त्री० [सं० परि√कृ+ल्युट्—अन, सुट्] वह कारखाना या स्थान जहाँ यंत्रों आदि की सहायता से तेलों, धातुओं आदि में की मैल निकालकर उन्हें परिष्कृत या साफ किया जाता हो। (रिफाइनरी)
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परिष्कार  : पुं० [सं० परि√कृ+घञ्, सुट्] [भू० कृ० परिष्कृत] १. अच्छी तरह ठीक और साफ करने की क्रिया या भाव। गंदगी, मिलावट, मैल आदि निकालकर किसी चीज को स्वच्छ बनाना। (रिफाइनिंग) २. त्रुटियाँ, दोष आदि दूर करके सुंदर, सुरुचिपूर्ण और स्वच्छ बनाना। (एम्बेलिशमेंट) ३. निर्मलता। स्वच्छता। ४. अलंकार। गहना। ५. शोभा। श्री। ६. बनाव-सिंगार। सजावट। ६. सजाने की सामग्री। उपस्कर। (फरनीचर) ८. संयम। (बौद्ध दर्शन)
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] १. परिष्कृत होने की अवस्था, गुण या भाव। २. परिष्कार। ३. आचार-व्यवहार की वह उन्नत स्थिति जिसमें अशिष्ट, उद्धत, ग्राम्य, पुरुष, रुक्ष आदि बातों का अभाव और कोमल, नागर, विनम्र, शिष्ट तथा स्निग्ध तत्त्वों की अधिकता और प्रबलता होती है। (रिफाइनमेंट)
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परिष्क्रिया  : स्त्री० [सं० परि√कृ+सुट्,+टाप्] परिष्कार। (दे०)
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परिष्कृत  : भू० कृ० [सं० परि√कृ+क्त, सुट्] [भाव० परिष्कृति] १. जिसका परिष्कार किया गया हो। अच्छी तरह ठीक और साफ किया हुआ। २. सवाँरा या सजाया हुआ। अलंकृत। ४. सुधारा हुआ।
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] परिष्कृत होने की अवस्था या भाव। परिष्कार।
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परिष्टवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] प्रशंसा। स्तुति।
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परिष्टोम  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. एक प्रकार का सामगान जिसमें ईश्वर की स्तुति होती है। २. घोडे, हाथी आदि की झूल।
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परिष्ठल  : पुं० [सं० परि-स्थल, प्रा० स०] आस-पास की भूमि।
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परिष्यंद  : पुं० [सं० परि√ष्यंद् (बहना)+घञ्, षत्व]= परिस्यंद।
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परिष्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंद+इनि] बहानेवाला।
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परिष्वंग  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (आलिंगन)+घञ्] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वंजन  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (चिपकना)+ल्युट्—अन] [वि० परिष्वक्त] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वक्त  : भू० कृ० [सं० परि√स्वञ्ज्+क्त] जिसे गले लगाया गया हो। आलिंगित।
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परिसंख्या  : स्त्री० [सं० परि-सम्√ख्या (प्रसिद्ध करना) +अङ्+टाप्] १. गणना। गिनती। २. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी स्थान में होनेवाली बात या वस्तु का प्रश्न या व्यंग्यपूर्वक निषेध करके अन्य स्थान पर प्रतिष्ठापन करने का वर्णन होता है। ३. कुछ स्थानों पर होनेवाली वस्तुओं के संबंध में यह कहना कि अब वे वहाँ नहीं रह गईं केवल अमुक जगह में रह गई हैं। जैसे—रामराज्य की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि उसमें स्त्रियों के नेत्रों को छोड़कर कुटिलता और कहीं नहीं दिखाई देती थी।
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परिसंख्यान  : पुं० [सं० परि√सम्√ख्या+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसंख्यात] अनुसूची। (दे०)
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परिसंघ  : पुं० [सं० प्रा० स०] पारस्परिक तथा सामूहिक हितों के रक्षार्थ बननेवाला वह अंतरराष्ट्रीय संघटन जिसके सदस्य स्वतंत्र राष्ट्र होते हैं। (कनफेडरेशन)
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परिसंचर  : पुं० [सं० परि-सम्√चर् (गति)+अच्] प्रलय-काल।
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परिसंचित  : भू० कृ० [सं० परि—सम्√चि (इकट्ठा करना)+क्त] इकट्ठा या संचित किया हुआ।
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परिसंतान  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. तार। २. तंत्री।
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परिसंपद्  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] व्यक्ति, संघटन, संस्था आदि का वह निजी या अधिकृत धन तथा संपत्ति जिसमें से उसका ऋण, देय आदि चुकाया जाता हो या चुकाया जा सके। (असेट्स)
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परिसंवाद  : पुं० [सं० परि-सम्√वद् (बोलना)+घञ्] १. दो या अधिक व्यक्तियों में किसी बात, विषय आदि के संबंध में होनेवाला तर्क संगत या विचारपूर्ण वादविवाद। (डिस्कशन) २. दे० परिचर्चा।
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परिसंहत  : [सं०] १. अच्छी तरह उठा हुआ। २. (कथन या लेख) जिसमें फालतू या व्यर्थ की बातें अथवा शब्द न हों। (टर्म)
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परिसंहित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] बहुत अच्छी तरह गठा या गाँठा हुआ। २. (साहित्य में ऐसी गठी हुई तथा संक्षिप्त रचना) जिसमें ओज, प्रसाद आदि गुण भी यथेष्ट मात्रा में हों।
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परिसम्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] सभासद। सदस्य।
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परिसमंत  : पुं० [सं० प्रा० स०] वृत्त के चारों ओर की रेखा या सीमा।
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परिसमापक  : पुं० [परि-सम्√आप् (व्याप्ति)+ण्वुट्—अक] परिसमापन करनेवाला अधिकारी। (लिक्वीडेटर)
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परिसमापन  : पुं० [परि-सम्√आप्+ल्युट्—अन] १. समाप्त करना। २. किसी चलते हुए काम का समाप्त होना। (टरमीनेशन) ३. किसी ऋणग्रस्त संस्था का कार-बार बंद करते समय किसी सरकारी अधिकारी या आदाता द्वारा उसकी परिसंपद लहनेदारों में किसी विशिष्ट अनुपात में बाँटा जाना। (लिक्वीडेशन) ३. दे० ‘अपाकरण’।
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परिसमाप्त  : भू० कृ० [सं० परि-सम्√आप+क्त] १. जो पूरी तरह से समाप्त हो चुका हो। २. (संस्था) जिसका परिसमापन हो चुका हो।
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परिसमाप्ति  : स्त्री० [सं० परि-सम्√आप्+क्तिन्] परिसमापन।
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परिसमूहन  : पुं० [सं० परि-सम्√ऊह् (वितर्क)+ल्युट्—अन] १. एकत्र करना। २. यज्ञ की अग्नि में समिधा डालना। ३. तृण आदि आग में डालना। ४. यज्ञाग्नि के चारों ओर जल छिड़कने की क्रिया।
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परिसर  : वि० [सं० परि√सृ (गति)+अप्] [स्त्री० परिसरा] १. किसी के चारों ओर वहने (अथवा चलने) वाला। २. किसी के साथ जुड़ा, मिला, लगा या सटा हुआ। ३. फैला हुआ। विस्तृत। उदा०—खुली रूप कलियों में परभर स्तर स्तर सु-परिसरा।—निराला। पुं० १. किसी स्थान के आस-पास की भूमि या खुला मैदान। २. प्रांत भूमि। ३. मृत्यु। ४. ढंग। तरीका। विधि। ५. शरीर की नाड़ी या शिरा।
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परिसरण  : पुं० [सं० परि√सृ+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसृत] १. किसी के चारों ओर बहना (या चलना)। २. पर्यटन। ३. पराजय। हार। ४. मृत्यु। मौत। ५. दे० रसाकर्षण।
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परिसर्प  : पुं० [सं० परि√सृप् (गति)+घञ्] १. किसी के चारों ओर घूमना। परिक्रिया। परिक्रमण। २. घूमना-फिरना या टहलना। ३. ढूँढ़ने या तलाश करने के लिए निकलना। ४. चारों ओर से घेरना। ५. साहित्य दर्पण के अनुसार नाटक में किसी का किसी की खोज और केवल मार्गचिह्नों आदि के सहारे उसका पता लगाने का प्रयत्न करना। जैसे—सीता-हरण के उपरान्त, राम का सीता को बन में ढूँढ़ते फिरना। ६. सुश्रुत के अनुसार ११ प्रकार के क्षुद्र कुष्ठों में से एक जिसमें छोटी-छोटी फुंसियाँ निकलती हैं और उन फुँसियों से पंछा या मवाद निकलता है। ६. एक प्रकार का साँप।
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परिसर्पण  : पुं० [सं० परि√सृप्+ल्युट्—अन] १. घूमना-फिरना। टहलना। २. साँप की तरह टेढ़े-तिरछे चलना या रेंगना।
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परिसर्पा  : स्त्री० [सं० परि√सृ (गति)+क्यप्+टाप्] १. मृत्यु। २. हार।
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परिसांत्वन  : पुं० [सं० परि√सान्त्व् (ढाढस देना)+ ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक सांत्वना देना। २. उक्त प्रकार से दी हुई सान्त्वना।
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परिसाम (मन्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक विशेष साम।
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परिसार  : पुं० [सं० परि√सृ+घञ्]=परिसरण।
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परिसारक  : वि० [सं० परि√सृ+ण्वुल्—अक] जो परिसरण करे। चारों ओर चलने, जाने या बहनेवाला।
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परिसारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√सृ+णिनि] १. परिसरण-संबंधी। २. परिसारक। (दे०)
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परिसिद्धिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वैद्यक में, चावले की एक प्रकार की लपसी।
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परिसीमन  : पुं० [सं० परिसीमा से] [भू० कृ० परिसीमित] किसी क्षेत्र, विषय आदि की सीमाएँ निर्धारित करना। (डिलिमिटेशन)
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परिसीमा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अंतिम या चरम सीमा। २. वह मर्यादा या रेखा जहाँ आगे किसी विषय का विस्तार न हो।
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परिसीमित  : भू० कृ० [सं० परिसीमा+इतच्] जिसका परिसीमन हुआ या किया जा चुका हो। २. (संस्था) जिसकी पूँजी, हिस्सेदारी आदि कुछ विशिष्ट नियमों या सीमाओं के अन्दर रखी गई हो। (लिमिटेड)
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परिसून  : पुं० [सं० अत्या० स०] बिना अधिकार के और बूचड़खाने से बाहर मारा हुआ पशु।
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परिसेवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक सेवा करना।
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परिसेवित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसकी बहुत अच्छी तरह सेवा की गई हो। २. जिसका बहुत अच्छी तरह सेवन किया गया हो।
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परिस्कंद  : पुं०=परिष्कंद।
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परिस्तरण  : पुं० [सं० परि√स्तृ (आच्छादन)+ल्युट्—अन] १. इधर-उधर फेंकना या डालना। छितराना। २. फैलाना। ३. ढकना या लपेटना।
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परिस्तान  : पुं० [फा०] १. परियों अर्थात् अप्सराओं का जगत् या देश। २. ऐसा स्थान जहाँ बहुत-सी सुंदर स्त्रियों का जमघट या निवास हो।
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परिस्तोम  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] चित्रित या अनेक रंगोंवाली (हाथी की पीठ पर डाली जानेवाली) झूल।
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परिस्थान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वासस्थान। २. दृढ़ता।
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परिस्थिति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [वि० परिस्थितिक] किसी व्यक्ति के चारों ओर होनेवाली वे सब बातें या उनमें से कोई एक जिससे बाध्य या प्रेरित होकर वह कोई कार्य करता हो। (सर्कम्स्टैंसेज)
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परिस्थिति विज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक जीव विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि देश, काल आदि की परिस्थितियों का जीव-जंतुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है। (इकालोजी)
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परिस्पंद  : पुं० [सं० परि√स्पंद् (हिलना)+घञ्] १. कापने की क्रिया या भाव। कंप। कँपकँपी। २. दबाना या मलना। ३. ठाट-बाट। तड़क-भड़क। ४. फूलों आदि से सिर के बाल सजाना। ५. निर्वाह का साधन। ६. परिवार। ६. धारा। प्रवाह। ८. नदी। ९. द्वीप। टापू।
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परिस्पंदन  : पुं० [सं० परि√स्पंद्+ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक हिलना। खूब काँपना। २. काँपना।
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परिस्पर्द्धा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०]=प्रतिस्पर्धा।
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परिस्पर्द्धी (र्द्धिन्)  : पुं० [सं० परि√स्पर्ध् (जीतने की इच्छा)+णिनि]=प्रतिस्पर्धी।
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परिस्फुट  : वि० [सं० प्रा० स०] १. भली-भाँति व्यक्त। सब प्रकार से प्रकट या खुला हुआ। २. अच्छी तरह खिला हुआ। पूर्ण विकसित।
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परिस्फुरण  : पुं० [सं० परि√स्फुर् (गति)+ल्युट्—अन] १. कंपन। २. कलियों, कल्लों आदि का निकलना या फूटना।
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परिस्मापन  : पुं० [सं० परि√स्मि (विस्मय करना)+ णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] बहुत अधिक चकित या विस्मित करना।
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परिस्यंद  : पुं० [सं० परिष्यंद] चूना। रसना।
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परिस्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंदी] जिसमें प्रवाह हो। बहता हुआ।
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परिस्रव  : पुं० [सं० परि√स्रु (बहना)+अप्] बहुत अधिक या चारों ओर से चूना या रसना।
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परिस्राव  : पुं० [सं० परि√स्रु+घञ्] १. चू या रसकर अधिक परिमाण में निकलनेवाला तरल पदार्थ। २. एक रोग जिसमें रोगी को ऐसे बहुत अधिक दस्त होते हैं जिनमें कफ और पित्त मिला होता है।
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परिस्रावण  : पुं० [सं० परि√स्रु+णिच्+ल्युट्—अन] वह पात्र जिसमें कोई चीज चुआ या रसाकर इकट्ठी की जाय।
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परिस्रावी (विन्)  : वि० [सं० परि√स्रु+णिनि] चूने, रसने या बहनेवाला। पुं० ऐसा भगंदर रोद जिसमें फोड़े में से बराबर गाढ़ा मवाद निकलता रहता है।
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परिस्रुत  : वि० [सं० परि√स्रु+क्त] १. जिससे कुछ टपक या चू रहा हो। स्रावयुक्त। २. चुआया या टपकाया हुआ। पुं० फूलों का सुगंधित सार। (वैदिक) स्त्री० मदिरा। शराब।
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परिस्रुत-दधि  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा दही जिसे निचोड़कर उसमें का जल निकाल दिया गया हो।
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परिस्रुता  : स्त्री० [सं० परिस्रुत+टाप्] १. चुआई या टपकाई हुई तरल वस्तु। २. मद्य। शराब। ३. अंगूरी शराब।
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परिहँस  : पुं० [सं० परिहास] १. हँसी-दिल्लगी। परिहास। २. लोक में होनेवाली हँसी। उपहास। उदा०—परहँसि मरसि कि कौनेहु लाजा—जायसी। ३. खेद। दुःख। रंज। (मुख्यतः लोक-निंदा, उपहास आदि के भय से होनेवाला) उदा०—कंठ बचन न बोलि आवै हृदय परिहँस करि, नैन जल भरि रोई दीन्हों, ग्रसति आपद दीन।—सूर।
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परिहत  : भू० कृ० [सं० परि√हन् (हिंसा)+क्त] १. जो मार डाला गया हो। २. मरा हुआ। मृत। ३. पूरी तरह से नष्ट किया हुआ। ४. ढीला किया हुआ। स्त्री० हल की वह लकड़ी जो चौभी में ठुकी रहती है, तथा जिसके ऊपरी भाग में लगी हुई मुठिया को पकड़कर हलवाला हल चलाता है।
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परिहरण  : पुं० [सं० परि√हृ (हरण करना)+ल्युट्—अन] [वि० परिहरणीय] १. किसी की चीज पर बिना उसके पूछे और बलपूर्वक किया जानेवाला अधिकार। २. परित्याग। ३. दोष आदि दूर करने का उपचार या प्रयत्न। निवारण।
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परिहरणीय  : वि० [सं० परि√हृ+अनीयर्] १. जो छीना जा सके या छीने जाने के योग्य हो। २. त्याज्य। ३. जिसका उपचार या निवारण हो सके। निवार्य।
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परिहरना  : स० [सं० परिहरण] १. छीनना। २. त्यागना। छोड़ना।
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परिहस  : पुं०=परिहँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहस्त  : पुं० [सं० अव्य० स०] हाथ में बाँधा जानेवाला एक तरह का तावीज या यंत्र।
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परिहाण  : पुं० [सं० परि√हा (त्याग)+क्त] नुकसान या हानि उठाना।
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परिहाणि, परिहानि  : स्त्री० [सं० परि√हा+क्तिन्] नुकसान। हानि।
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परिहार  : पुं० [सं० परि√हृ+घञ्] १. बलपूर्वक छीनने की क्रिया या भाव। २. युद्ध में जीतकर प्राप्त किया हुआ धन या पदार्थ। ३. छोड़ने, त्यागने या दूर करने की क्रिया या भाव। ४. त्रुटियों, दोषों, विकारों आदि का किया जानेवाला अंत या निराकरण। ५. पशुओं के चरने के लिए खाली छोड़ी हुई जमीन। चारागाह। ६. प्राचीन भारत में, कष्ट या संकट के समय राज्य की ओर से प्रजा के साथ की जानेवाली आर्थिक रिआयत। ६. कर या लगान की छूट। माफी। ८. खंडन। ९. अवज्ञा। तिरस्कार। १॰. उपेक्षा। ११. मनु के अनुसार एक प्राचीन देश। १२. नाटक में किसी अनुचित या अविधेय कर्म का प्रायश्चित्त करना। (साहित्य दर्पण) पुं० [?] अवध, बुंदेलखंड आदि में बसे हुए राजपूतों की एक जाति जिनके पूर्वज तीसरी शताब्दी में कालिंजर के शासक थे।
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परिहारक  : वि० [सं० परि√हृ+ण्वुल्—अक] परिहार करनेवाला।
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परिहारना  : स० [सं० परिहार] १. परिहरण करना। २. परिहार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√हृ+णिनि] परिहरण करनेवाला।
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परिहार्य  : वि० [सं० परि√हृ+ण्यत्] जिसका परिहरण होने को हो या हो सकता हो।
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परिहास  : वि० [सं० परि√हस् (हँसना)+घञ्] १. बहुत जोरों की हँसी। २. हँसी-मजाक।
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परिहासापह्नुति  : स्त्री० [सं० परिहास-अपह्नुति, मध्य० स०] साहित्य में, अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें पूर्वपद तो किसी अश्लील भाव का द्योतक होता है परंतु उत्तर-पद से उस अश्लीलत्व का परिहार हो जाता है और श्रोता हँस पड़ता है। उदा०—तुमको लाजिम है पकड़ो अब मेरा। हाथ में हाथ बामुहब्बतो प्यार।—कोई शायर।
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परिहास्य  : वि० [सं० परि√हस्+ण्यत्] १. जिसके संबंध में परिहास किया जा सके या हो सके। २. हास्यास्पद।
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परिहित  : भू० कृ० [सं० परि√धा (धारण करना)+क्त, हि—आदेश] १. चारों ओर से छिपाया या ढका हुआ। आवृत्त। आच्छादित। २. ओढ़ा या पहना हुआ। (कपड़ा)
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परिहीण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. सब प्रकार से दीन-हीन। अत्यंत हीन। २. छोड़ा, निकाला या फेंका हुआ।
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परिहृति  : स्त्री० [सं० परि+हृ+क्तिन्] ध्वंस। नाश।
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परिहेलना  : स० [सं० प्रा० स०] अनादर या तिरस्कारपूर्वक दूर हटाना। उदा०—कै ममता करु राम-पद कै ममता परिहेलु।—तुलसी।
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परिपात्र  : पुं० [सं०] सात मुख्य पर्वत-मालाओं में से एक। पारियात्र।
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परितोख  : पुं० [सं० परि√तुष् (प्रीति)+घञ्] १. निश्चिन्तता युक्त सुख जो कामना या साध पूरी होने पर होता है। अच्छी तरह होनेवाला तोष। पूर्ण तृप्ति। २. खुशी। प्रसन्नता।
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परितोषक  : वि० [सं० परि√तुष्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. परितोष करनेवाला। संतुष्ट करनेवाला। २. प्रसन्न या खुश करनेवाला।
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परितोषण  : पुं० [सं० परि√तुष्+णिच्+ल्युट्—अन] १. परितुष्ट करने की क्रिया या भाव। ऐसा काम करना जिससे किसी का परितोष हो। २. वह धन जो किसी को परितुष्ट करने के लिए दिया गया हो।
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परितोषवान् (वत्)  : वि० [सं० परितोष+मतुप्, वत्व] जो सहज में परितोष प्राप्त कर लेता है।
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परितोषी (विन्)  : वि० [सं० परितोष+इनि] १. जिसे परितोष हो। २. जल्दी या सहज में परितुष्ट होनेवाला।
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परितोस  : पुं०=परितोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परित्यक्त  : भू० कृ० [सं० परि√त्यज् (छोड़ना)+क्त] जिसे पूर्ण रूप से अथवा उपेक्षापूर्वक छोड़ दिया गया हो। (एबन्डन्ड)
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परित्यक्ता  : पुं० [सं० परित्यक्त+टाप्] त्यागने या छोड़नेवाला। वि० सं० ‘परित्यक्त’ का स्त्री०। स्त्री० वह स्त्री० जिसे उसके पति ने त्याग या छोड़ दिया हो।
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परित्यजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+ल्युट्—अन] परित्याग करने की क्रिया या भाव। त्यागना। छोड़ना।
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परित्यज्य  : वि० [सं० परित्याज्य]=परित्याज्य।
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परित्याग  : पुं० [सं० परि√त्यज्+घञ्] अधिकार स्वामित्व, संबंध, आधिकृत वस्तु, निजी संपत्ति, संबंधी आदि का पूर्ण रूप से तथा सदा के लिए किया जानेवाला त्याग। पूरी तरह से छोड़ देना। (एबन्डनिंग)
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परित्यागना  : स० [सं० परित्याग] पूरी तरह से ये सदा के लिए परित्याग करना।
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परित्यागी (गिन्)  : वि० [सं० परि√त्यज्+घिनुण्] परित्याग करने अर्थात् पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़नेवाला।
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परित्याजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+णिच्+ल्युट्—अन] परित्याग।
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परित्याज्य  : वि० [सं० परि√त्याज्+ण्यत्] जिसका परित्याग करना उचित हो या किया जाने को हो। जो पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़े जाने के योग्य हो।
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परित्रस्त  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक त्रस्त या डरा हुआ।
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परित्राण  : पुं० [सं० परि√त्रै (बचाना)+ल्युट्—अन] १. कष्ट, विपत्ति आदि से की जानेवाली पूर्ण रक्षा। २. शरीर पर के बाल या रोएँ। रोम।
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परित्रात  : भू० कृ० [सं० परि√त्रै+क्त] जिसका परित्राण या रक्षा की गई हो। रक्षा-प्राप्त।
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परित्राता (तृ)  : वि० [सं० परि√त्रै+तृच्] जो दूसरों का परित्राण करता हो। पूरी रक्षा करनेवाला।
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परित्रायक  : वि० [सं० परि√त्रै+ण्वुल—अक]=परित्राता।
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परित्रास  : पुं० [सं० परि√त्रस् (डरना)+घञ्] अत्यधिक त्रास।
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परिदंशित  : भू० कृ० [सं० परिदंश, प्रा० स०,+इतच्] जो पूर्ण रूप से अस्त्रों से सुसज्जित हो या किया गया हो।
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परिदत्त  : भू० कृ० [सं० परि√दा (देना)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे परिदान मिला हो। २. (धन) जो परिदान के रूप में दिया गया हो।
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परिदर  : पुं० [सं० परि√दृ (फाड़ना)+अप्] मसूड़ों में से खून और मवाद निकलने या बहने का एक रोग। (पायरिया)
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परिदर्शन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अच्छी तरह से किया जानेवाला या होनेवाला दर्शन। पूर्ण दर्शन। २. निरीक्षण। ३. न्यायालय में किसी मुकद्दमे की होनेवाली सुनवाई। (ट्रायल)
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परिदष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√दंश+क्त] १. काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया हो। २. जिसे डंक या दाँत लगा हो। डंका या दाँत से काटा हुआ। दंशित।
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परिदहन  : पुं० [सं० परि√दह् (जलाना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह या पूर्ण रूप से जलाना।
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परिदान  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिदत्त] १. लौटा देना। वापस कर देना। फेर देना। २. अदला-बदली। ३. अमानत लौटाना। ४. आज-कल वह आर्थिक सहायता जो राज्य सरकार व्यक्तियों, संस्थाओं आदि को उद्योगीकरण में प्रोत्साहित करने के लिए देती है। (सब्साइडी)
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परिदाय  : पुं० [सं० पर√दा (देना)+घञ्] सुगंधि। खुशबू।
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परिदायी (यिन्)  : वि० [सं० परि√दा+णिनि] जो ऐसे वर से अपनी कन्या का विवाह करता हो जिसका बड़ा भाई अभी तक कुआँरा हो।
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परिदाह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत जलन या दाह। २. मानसिक कष्ट। दुःख या संताप।
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परिदिग्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] जिस पर कोई वस्तु बहुत अधिक मात्रा में लगी या पुती हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
परिदीन  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक दीन या दुःखी।
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परिदृढ़  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत दृढ़।
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परिदृष्टि  : स्त्री० [सं०] किसी वस्तु का ऐसा दृश्य या रूप जिसमें दूर से देखने पर उसके सब अंग अपने ठीक अनुपात में और एक दूसरे से उचित दूरी पर दिखाई दें। संदर्श। (परस्पेक्टिव)
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परिदेव  : पुं० [सं० परि√दिव् (गति)+घञ्] रोना-धोना। विलाप।
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परिदेवन  : पुं० [सं० परि√दिव्+ल्युट्—अन] १. कष्ट पहुँचने या हानि होने पर की जानेवाली चीख-पुकार। २. उक्त स्थिति में की जानेवाली फरियाद या शिकायत। परिवाद। (कम्प्लेन्ट)
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परिदेवना  : स्त्री०=परिदेवन।
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परिद्रष्टा (ष्ट्ट)  : वि० [सं० परि√दृश् (देखना)+तृच्] परिदर्शन करनेवाला।
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परिद्वीप  : पुं० [सं० ब० स०] गरुड़ का एक पुत्र।
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परिध  : स्त्री०=परिधि।
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परिधन  : पुं० [सं० परिधान] कमर और उससे निचला भाग ढकने के लिए पहना जानेवाला कपड़ा। अधोवस्त्र।
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परिधर्षण  : पुं० [सं० परि√धृष् (झिड़कना)+ल्युट्—अन] १. आक्रमण। २. अपमान। तिरस्कार। ३. दूषित या बुरा व्यवहार।
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परिधान  : पुं० [सं० परि√धा (धारण करना)+ल्युट्—अन] १. शरीर पर वस्त्र आदि धारण करना। कपड़े ओढ़ना या पहनना। २. वे कपड़े जो शरीर पर धारण किये या पहने जायँ। पोशाक। ३. कमर के नीचे पहनने या बाँधने का कपड़ा। जैसे—धोती, लुंगी आदि। ४. प्रार्थना स्तुति आदि का अंत या समाप्ति।
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परिधानीय  : वि० [सं० परि√धा+अनीयर्] [स्त्री० परिधानीया] जो परिधान के रूप में धारण किया जा सके पहने जाने के योग्य (वस्त्र)
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परिधाय  : पुं० [सं० परि√धा+घञ्] १. कपड़ा। वस्त्र। २. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। ३. वह स्थान जहाँ जल हो।
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परिधायक  : वि० [सं० परि√धा+ण्वुल्—अक] १. ढकने, लपेटने या चारों ओर से घेरनेवाला। पुं० १. घेरा। २. चहारदीवारी। प्राचीर।
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परिधायन  : पुं० [सं० परि√धा+णिच्+ल्युट्—अन] १. पहनना। २. पोशाक।
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परिधारण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिधार्य, परिधृत] १. अच्छी तरह किया जानेवाला धारण। २. अपने ऊपर उठाना, लेना या सहना। ३. बचाकर या रक्षित रूप में रखना।
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परिधावन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या बहुत तेज दौड़ना।
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परिधि  : स्त्री० [सं० परि√धा+कि] १. वृत्त की रेखा। २. किसी गोलाकार वस्तु के चारों ओर खिंची हुई वृत्ताकार रेखा। (सरकम्फरेन्स) ३. वह गोलाकार मार्ग जिस पर कोई चीज चलती, घूमती या चक्कर लगाती हो। ४. प्रायः गोलाकार माना जानेवाला कोई ऐसा वास्तविक या कल्पित घेरा, जो दूसरे बाहरी क्षेत्रों से अलग हो। कुछ विशेष लोगों या कार्यों का स्वतंत्र क्षेत्र। वृत्त। (सर्किल) ५. सूर्य या चन्द्रमा के आस-पास दिखाई पड़नेवाला घेरा। परिवेश। मंडल। ६. किसी वस्तु की रक्षा के लिए बनाया हुआ घेरा। बड़ा चहारदीवारी। नियत या नियमित मार्ग। ८. वे तीन खूँटे जो यज्ञ-मंडप के आस-पास गाड़े जाते थे। ९. क्षितिज। १॰. परिधान। ११. दे० ‘परिवेश’।
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परिधिक  : वि० [सं०] १. परिधि-संबंधी। २. जिसका कार्य-क्षेत्र किसी विशेष परिधि में हो। जैसे—परिधिक निरीक्षक। (सर्किल इंस्पेक्टर)
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परिधिस्थ  : वि० [सं० परिधि√स्था (ठहरना)+क] जो किसी परिधि में स्थित हो। पुं० १. नौकर। सेवक। २. वह सेना जो रथ और रथी की रक्षा के लिए नियुक्त रहती थी।
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परिधीर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक धीरजवाला। परम धीर।
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परिधूपित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] धूप से अच्छी तरह बसाया या सुगंधित किया हुआ।
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परिधूमन  : पुं० [सं० परिधूम, प्रा० स०,+क्विप्+ल्युट्—अन] १. डकार। २. सुश्रुत के अनुसार तृष्णा रोग का एक उपद्रव जिसमें एक विशेष प्रकार की कै होती है।
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परिधूसर  : वि० [सं० प्रा० स०] १. धूल से भरा हुआ। जिसमें खूब धूल लगी हो। २. धूल के रंग का। मटमैला।
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परिधेय  : वि० [सं० परि√धा (धारण)+यत्] जो परिधान के रूप में काम आ सके। जो पहना जा सके या पहने जाने योग्य हो। पुं० १. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। २. अंदर या नीचे पहनने का कपड़ा। जैसे—गंजी, लहँगा या साया।
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परिध्वंस  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से होनेवाला ध्वसं या नाश। सर्व-नाश। २. ध्वंस। नाश
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परिध्वस्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका पूरी तरह से ध्वंस या नाश हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिनगर  : पुं० [सं० प्रा० स०] नगर से कुछ हटकर बनी हुई बस्ती जो शासकीय दृष्टि से उसकी सीमा के अंतर्गत मानी जाती हो। (सबर्व)
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परिनय  : पुं०=परिणय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनागर  : वि० [सं० पारिनगर] परिनगर-संबंधी। (सबर्बन)
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परिनाम  : पुं०=परिणाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनामी  : वि०=परिणामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनिर्णय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी विवाद के संबंध में दिया हुआ पंचों का निर्णय। २. वह पत्र जिसमें पंचों का निर्णय लिखा हुआ हो। पंचाट। (अवार्ड)
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परिनिर्वाण  : पुं० [सं० प्रा० स०] पूर्ण निर्वाण। पूर्ण मोक्ष।
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परिनिर्वाति  : स्त्री० [सं० परि-निर्√वा (गति)+क्तिन्]=परिनिर्वाण।
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परिनिर्वृत्त  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिनिर्वृत्ति] १. जो मुक्त हो चुका हो। छूटा हुआ। २. जिसे मोक्ष मिल चुका हो।
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परिनिर्वृत्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. मोक्ष। २. छुटकारा। मुक्ति।
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परिनिष्ठा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. चरमसीमा या अवस्था। अंतिम सीमा। पराकाष्ठा। २. पूर्णता। ३. अभ्यास या ज्ञान की पूर्णता।
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परिनिष्ठित  : वि० [सं० परि-नि√स्था+क्त] १. (कार्य) जो पूरा या सम्पन्न किया जा चुका हो। निपटाया हुआ। २. जो किसी काम में पूरी तरह से कुशल या दक्ष हो।
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परिनिष्पन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (काम) जो अच्छी तरह पूरा हो चुका हो। २. जो भाव-अभाव और सुख-दुःख की कल्पना से बिलकुल दूर या परे हो। (बौद्ध)
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परिनैष्ठिक  : वि० [सं० प्रा० स०] सर्वश्रेष्ठ। सर्वोत्कृष्ट।
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परिन्यास  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी पद, वाक्य आदि के भाव में पूर्णता लाना जो साहित्य में एक विशिष्ट गुण माना गया है। २. साहित्यिक रचना में उक्त प्रकार का स्थल। ३. नाटक में आख्यान बीज अर्थात् मुख्य कथा की मूलभूत घटना का संकेत करना।
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परिपंच  : पुं०=प्रपंच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपंथ  : वि० [सं० परि√पंथ् (गति)+अच्] जो रास्ता रोके हुए हो।
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परिपंथक  : वि० [सं० परि√पंथ्+ण्वुल्—अक] मार्ग या रास्ता रोकने वाला। पुं० १. वह जो प्रतिकूल या विरुद्ध आचरण या व्यवहार करता हो। २. दुश्मन। शत्रु। उदा०—पार भई परिपंथि गंजिमय।—गोरखनाथ। ३. लुटेरा। डाकू।
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परिपंथिक  : वि०, पुं०=परिपंथक।
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परिपंथी (न्थिन्)  : वि०, पुं० [सं० परि√पंथ्+ णिनि ]=परिपंथक।
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परिपक्व  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिपक्वता] १. जो अभिवृद्धि, विकास आदि की दृष्टि से पूर्णता तक पहुँच चुका हो। जैसे—परिपक्व अन्न, फल आदि २. अच्छी तरह पचा हुआ (भोजन)। ३. जिसका उपयुक्त या नियत समय आ गया हो। (मैच्योर) ४. अच्छा अनुभवी, ज्ञाता और बहुदर्शी। ५. कुशल। दक्ष। निपुण।
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परिपक्वता  : स्त्री० [सं० परिपक्व+तल्+टाप्] परिपक्व होने की अवस्था या भाव।
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परिपण  : पुं० [परि√पण् (व्यवहार करना)+घ] मूलधन। पूँजी।
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परिपणन  : पुं० [सं० परि√पण्+ल्युट्—अन] १. बाजी या शर्त लगाना। २. प्रतिज्ञा या वादा करना।
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परिपणित  : भू० कृ० [सं० परि√पण्+क्त] १. (कार्य या बात) जिस पर शर्त लगी या लगाई गई हो। २. (धन) जो बाजी या शर्त में लगाया गया हो। ३. (बात) जिसके संबंध में वादा किया गया हो।
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परिपणित-काल-संधि  : स्त्री० [सं० काल-संधि, ष० त० परिपणित-काल संधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली एक तरह की संधि, जिसमें यह नियत किया जाता था कि कितने-कितने समय तक कौन-कौन सदस्य लड़ेगा।
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परिपणित-देश-संधि  : स्त्री० [सं० देश-संधि, ष० त०, परिपणित-देशसंधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली वह संधि, जिसमें यह नियत होता था कि कौन किस देश पर आक्रमण करेगा।
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परिपणित-संधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह संधि जिसमें कुछ शर्तें स्वीकार की गई हों।
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परिपणितार्थ-संधि  : स्त्री० [सं० अर्थ-संधि, ष० त० परिपणितअर्थसंधि, कर्म० स०] ऐसी संधि जिसके अनुसार किसी को पूर्व निश्चय के अनुसार कुछ काम करना पड़ता हो।
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परिपतन  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी के चारों ओर उड़ना, चक्कर लगाना या मँडराना।
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परिपति  : वि० [सं० परि√पत् (गिरना)+इन्] जो सब का स्वामी हो। पुं० परमात्मा।
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परिपत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह आधिकारिक पत्र जो विशिष्ट या संबद्ध पदाधिकारियों, सदस्यों आदि को सूचनार्थ भेजा जाता है। गश्ती चिट्ठी। (सरक्यूलर) २. वह पत्र जिसमें किसी को कुछ स्मरण करने के लिए कुछ लिखा गया हो। स्मृतिपत्र। (मैमोरैण्डम)
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परिपथ  : पुं० [सं०] १. किसी वृत्ताकार वस्तु के किनारे-किनारे बना हुआ पथ। २. अनेक नगरों, देशों, स्थलों आदि में पारी-पारी से होते हुए जाने के लिए पहले से नियत किया हुआ मार्ग। (सरकिट)
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परिपर  : पुं० [सं० परि√पृ (पूर्ति)+अप्]=परिपथ।
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परिपवन  : पुं० [सं० परि√पू (पवित्र करना)+ल्युट्—अन] १. अनाज ओसाना या बरसाना। २. अन्न ओसाने का सूप।
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परिपांडिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पांडिमान, पांडु+ इमनिच्, परिपांडिमन्, प्रा० स०] बहुत अधिक सफेदी या पीलापन।
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परिपांडु  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत हलका पीला। सफेदी लिए हुए पीला। २. दुबला-पतला। कृश और क्षीण।
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परिपाक  : पुं० [सं० परि√पच् (पकाना)+घञ्] १. अच्छी तरह या ठीक पकना या पकाया जाना। २. पेट में भोजन अच्छी तरह पचना। ३. किसी विषय या बात की ऐसी पूर्ण अवस्था तक पहुँचना जिसमें कुछ भी त्रुटि न रह जाय। ४. परिणाम। फल। ५. निपुणता। दक्षता।
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परिपाकिनी  : स्त्री० [सं० परिपाक+इनि+ङीष्] निसोथ।
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परिपाचन  : पुं० [सं० परि√पच्+णिच्+ल्युट्—अन] अच्छी तरह पचाना। भली भाँति पचाना।
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परिपाचित  : भू० कृ० [सं० परि√पच्+णिच्+क्त] अच्छी तरह पकाया हुआ।
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परिपाटल  : वि० [सं० प्रा० स०] पीलापन लिए लाल रंगवाला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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परिपाटलित  : भू० कृ० [सं० परिपाटल+क्विप्+क्त] परिपाटल रंग में रँगा हुआ।
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परिपाटि  : स्त्री० [सं० परि√पट् (गति)+णिच्+ इन्]= परिपाटी।
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परिपाटी  : स्त्री० [सं० परिपाटि+ङीष्] १. किसी जाति, समाज आदि में कोई काम करने का कोई विशिष्ट बँधा हुआ ढंग अथवा शैली। २. विशिष्ट अवसर पर कोई विशिष्ट काम करने की प्रथा। ३. उक्त प्रकार के काम करने का ढंग या प्रथा। विशेष—परिपाटी, पद्धति और प्रथा का अन्तर जानने के लिए देखें ‘प्रथा’ का विशेष।
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परिपाठ  : पुं० [सं० परि√पठ् (पढ़ना)+घञ्] १. वेदों का पुनर्पठन। २. विस्तार के साथ उल्लेख या पाठ करना।
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परिपार (रि)  : स्त्री० [सं० पाली=मर्यादा]। उदा०—किहिं नर किहिं सर राखियै खैंर बठै परिपारि।—बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपार्श्व  : वि० [सं० प्रा० स०] पार्श्व या बगल का। बहुत पास का। पुं० १. पार्श्व। २. समीप्य।
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परिपालक  : वि० [सं० परि√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+ ण्वुल—अक] परिपालन करनेवाला।
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परिपालन  : पुं० [सं० परि+पाल+णिच्+ल्युट्—अन] १. रक्षा। बचाव। २. बहुत ही सावधानी से किया जानेवाला पालन-पोषण या लालन-पालन।
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परिपालना  : स्त्री० [सं० परि√पाल्+णिच्+युच्—अन] रक्षण। बचाव। स० [सं० परिपालन] परिपालन करना।
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परिपालनीय  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+अनीयर्] जिसका परिपालन करना या होना चाहिए।
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परिपालयिता (तृ)  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+ अनीयर्] जिसका परिपालन करनेवाला व्यक्ति। परिपालक।
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परिपाल्य  : वि० [सं० परि√पाल्+ण्यत्] जिसका परिपालन करना उचित हो या किया जाने को हो।
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परिपिंजर  : वि० [सं० प्रा० स०] हलके लाल रंग का।
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परिपिच्छ  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक प्रकार का आभूषण, जो मोर की पूँछ के परो का बना होता था।
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परिपिष्टक  : पुं० [सं० परि√पिष् (चूर्ण करना)+क्त+ कन्] सीसा।
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परिपीड़न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत पीड़ा पहुँचाना। बहुत कष्ट देना। २. अच्छी तरह दबाना या पीसना। ३. अनिष्ट, अपकार या हानि करना।
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परिपीड़ित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो बहुत अधिक पीड़ित किया गया हो या हुआ हो।
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परिपोवर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधि मोटा या स्थूल।
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परिपुष्करा  : स्त्री० [सं० प्रा० ब० स०] गोडुंब ककड़ी। गोंडुबा।
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परिपुष्ट  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसका पोषण भली भाँति हुआ हो। पूर्ण रूप से पुष्ट।
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परिपुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिपूजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्यक् प्रकार से किया जानेवाला पूजन या उपासना।
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परिपूत  : वि० [सं० प्रा० स०] अति पवित्र। पुं० ऐसा अन्न जिसमें से कूड़ा-करकट, भूसी आदि निकाल दी गई हो। साफ किया हुआ अन्न।
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परिपूरक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. परिपूर्ण करनेवाला। भर देनेवाला। २. धन-धान्य आदि से युक्त या संपन्न करनेवाला। ३. पूरा। संपूर्ण। सारा।
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परिपूरणीय  : वि० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण किये जाने के योग्य।
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परिपूरन  : वि०=परिपूर्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपूरित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह या पूरा-पूरा भरा हुआ। लबालब। २. पूरा या समाप्त किया हुआ।
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परिपूर्ण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो सब प्रकार से पूर्ण हो। २. अच्छी तरह तृप्त किया हुआ। ३. जो पूरा या समाप्त हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिपूर्णेन्दु  : पुं० [सं० परिपूर्ण-इंदु, कर्म० स०] सोलहों कलाओं से युक्त चंद्रमा। पूर्णिमा का पूरा चाँद।
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परिपूर्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण होने की अवस्था, क्रिया या भाव। परिपूर्णता।
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परिपृच्छक  : वि० [सं० परिप्रच्छक] जिज्ञासा या प्रश्न करनेवाला। पूछनेवाला।
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परिपृच्छनिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह बात जिसके संबंध में वाद-विवाद किया जाय। वाद का विषय।
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परिपृच्छा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूछने की क्रिया या भाव। पूछताछ। २. जिज्ञासा।
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परिपेल  : पुं० [सं० परि√पेल् (कंपन)+अच्] केवटी मोथा। कैवर्त मुस्तक।
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परिपेलव  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर तथा सुकुमार। पुं० केवटी मोथा।
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परिपोट (क)  : पुं० [सं० परि√पुट् (फोड़ना)+घञ्] [परिपोट+कन्] कान का एक रोग जिसमें उसकी त्वचा गल या छिल जाती है।
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परिपोटन  : पुं० [सं० परि√पुट्+ल्युट्—अन] किसी चीज का छिलका अथवा ऊपरी आवरण हटाना।
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परिपोषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिपोषित] अच्छी तरह किया जानेवाला पोषण। भली भाँति पुष्ट करना।
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परिप्रश्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] कोई बात जानने के लिए किया जानेवाला प्रश्न। (एन्क्वायरी)
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परि-प्रश्नक  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ विशेष रूप से किसी विशिष्ट विभाग या विषय से संबंध रखनेवाली बातों की पूछ-ताछ की जाती है। (एन्क्वायरी आफिस)
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परिप्रेक्ष्य  : पुं० [सं०] चित्रकला में, दृश्यों, पदार्थों, व्यक्तियों का ऐसा अंकन या चित्रण जिसमें उनका पारस्परिक अन्तर ठीक उसी रूप में दिखाई देता हो, जिस रूप में वह साधारणतः आँखों से देखने पर दिखाई देता है। (पर्स्पेक्टिव)
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परिप्रेषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिप्रेषित] १. चारों ओर भेजना। २. किसी को दूत या हरकारा बनाकर कहीं भेजना। २. देश-निकाला। निर्वासन। ३. परित्याग।
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परिप्रेषित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. भेजा हुआ। प्रेषित। २. निकाला हुआ। निष्काषित। ३. छोड़ा या त्यागा हुआ। परित्यक्त।
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परिप्रेष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं० प्रा० स०] जो भेजा जाने को हो या भेजे जाने के योग्य हो। पुं० नौकर। सेवक।
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परिप्लव  : वि० [सं० परि√प्लु (गति)+अच्] १. तैरता या बहता हुआ। २. जो गति में हो। ३. हिलता-काँपता हुआ। पुं० १. तैरना। २. पानी की बाढ़। ३. अत्याचार। ४. नाव। नौका।
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परिप्लावित  : भू० कृ० [सं०] (स्थान) जो बाढ़ के कारण जलमग्न हो चुका हो।
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परिप्लुत  : वि० [सं० परि√प्लु+क्त] १. जिसके चारों ओर जल ही जल हो। २. भीगा हुआ। आर्द्र। गीला। तर। ३. काँपता या हिलता हुआ। पुं० कहीं पहुँचने के लिए उछलकर आगे बढ़ने की क्रिया। छलाँग।
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परिप्लुता  : स्त्री० [सं० परिप्लुत+टाप्] १. मदिरा। शराब। २. ऐसी योनि जिसमें मैथुन या मासिक रजःस्राव के समय पीड़ा होती हो। (वैद्यक)
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परिप्लुष्ट  : वि० [सं० परि√प्लुष् (दाह)+क्त] १. जला या जलाया हुआ। २. झुलसा हुआ।
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परिप्लोष  : पुं० [सं० परि√प्लुष्+घञ्] १. तपना। ताप। २. जलन। दाह। ३. शरीर के अन्दर का ताप।
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परिफुल्ल  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह खिला हुआ। खूब खिला हुआ। २. अच्छी तरह खुला हुआ। ३. बहुत अधिक प्रसन्न। ४. जिसके रोएँ खड़े हो गये हों। जिसे रोमांच हुआ हो।
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परिबंधन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिबद्ध] ऐसा बंधन जिसमें चारों ओर से किसी को जकड़ा जाय।
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परिबर्ह  : पुं० [सं० परि√बर्ह् (दान)+घञ्] १. राजाओं के हाथी-घोड़ों पर डाली जानेवाली झूल। २. राजा के छत्र, चँवर आदि राजचिह्न। राजा का साज-सामान। ३. घर-गृहस्थी में नित्य काम आनेवाली चीजें। घर का सामान। ४. धन-सम्पत्ति। दौलत।
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परिबर्हण  : पुं० [सं० परि√बर्ह्+ल्युट्—अन] १. पूजा। उपासना। २. सब प्रकार से होनेवाली वृद्धि। ३. सम्पन्नता। समृद्धि।
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परिबल  : पुं० [सं० प्रा० स०] यंत्रों आदि का वह बल या शक्ति जिसकी प्रेरणा से उसका कोई अंग या पहिया किसी अक्ष या बिन्दु पर घूमता या चक्कर लगाता है। (मोमेन्टम)
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परिबाधा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बहुत बड़ी या विकट बाधा। २. कष्ट। पीड़ा। ३. परिश्रम। ४. थकावट। श्रांति।
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परिबृंहण  : पुं० [सं० परि√बृंह् (वृद्धि)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवृंहित] १. चारों ओर या हर तरफ से बढ़ना। वर्धन। २. पूरक ग्रंथ जो किसी मुख्य ग्रंथ में प्रतिपादित विचारों की पुष्टि और समर्थन करता हो।
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परिबेख  : पुं०=परिवेष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिबेठना  : स० [सं० प्रतिवेष्ठन] आच्छादित करना। लपेटना। ढकना। उदा०—ग्रीष्म द्वैपहरी मिस जोन्ह महा विष ज्वालन सों परिबेठी।—देव।
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परिबोध  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ज्ञान। २. तर्क। ३. वे प्रतिबंध या विघ्न जो दुर्बल चित्तवाले साधकों को समाधिस्थ नहीं होने देते।
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परिबोधन  : पुं० [सं० परि√बुद्ध+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिबोधनीय] १. ठीक प्रकार से बोध करना। २. दंड की धमकी देकर कोई विशेष कार्य करने से रोकना। चेतावनी देना। ३. चेतावनी।
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परिबोधना  : स्त्री० [सं० परि√बुध्+णिच्+युच्—अन, टाप्] चेतावनी।
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परिभंग  : पुं० [सं० प्रा० स०] टुकड़े-टुकड़े करना।
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परिभक्ष  : वि० [सं० परि√भक्ष् (खाना)+अच्] परिभक्षण करनेवाला।
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परिभक्षण  : पुं० [सं० परि√भक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभक्षित] १. पूरी तरह से खाना। २. खूब खाना।
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परिभक्षा  : स्त्री० [सं० परि√भक्ष्+अ+टाप्] आपस्तंब सूत्र के अनुसार एक प्रकार का विधान।
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परिभर्त्सन  : पुं० [सं० प्रा० स०] चारों ओर से होनेवाली भर्त्सना।
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परिभव  : पुं० [सं० परि√भू (होना)+अप्] अनादर। अपमान। तिरस्कार। उदा०—चिर परिभव से श्रेष्ठ है मरण।—पंत।
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परिभवनीय  : वि० [सं० परि√भू+अनीयर्] १. जो अनादर या अपमान का पात्र हो। २. जिसकी पराजय निश्चित-प्राय हो।
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परिभवी (विन्)  : वि० [सं० पर√भू+इनि] दूसरों का अनादर या अपमान करनेवाला।
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परिभाव  : पुं० [सं० परि√भू+घञ्] १. अनादर। अपमान। परिभव। २. मात करना। हराना। पराभव।
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परिभावन  : पुं० [सं० परि√भू+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभावित] १. मिलाप। संयोग। मिलन। २. चिंता। फिक्र।
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परिभावना  : स्त्री० [सं० परि√भू+णिच्+युच्—अन+टाप्] १. चिन्तन। विचार। २. चिंता। फिक्र। ३. साहित्य में ऐसा वाक्य या पद जिससे अतिशय उत्सुकता उत्पन्न हो।
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परिभावित  : भू० कृ० [सं० परि√भू+णिच्+क्त] १. मिला या मिलाया हुआ। मिश्रित। २. व्याप्त। ३. जिस पर विचार किया जा चुका हो। विचारित।
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परिभावी (विन्)  : वि० [सं० परि√भू+णिच्+णिनि] अनादर, अपमान या तिरस्कार करनेवाला।
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परिभावुक  : वि०=परिभावी।
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परिभाषक  : वि० [सं० परि√भाष् (बोलना)+ण्वुल—अक] १. निंदा के द्वारा किसी का अपमान करनेवाला। २. निंदक।
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परिभाषण  : पुं० [सं० परि√भाष्+ल्युट्—अन] १. बात-चीत। वार्तालाप। २. दोषारोपण तथा निंदा करना। ३. नियम।
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परिभाषा  : स्त्री० [सं० परि√भाष्+अ+टाप्] १. बात-चीत। २. निंदा। ३. व्याकरण में वह व्याख्यापक सूत्र जो पाणिनी के सूत्रों के साथ रहता और उनके प्रयोग की रीति बतलाता है। ४. किसी वाक्य में आये हुए पद या शब्द का अर्थ अथवा आशय निश्चित रूप से स्पष्ट करने की क्रिया या प्रकार। ५. ऐसा कथन या वाक्य जो किसी पद या शब्द का अर्थ या आशय स्पष्ट रूप से बतलाता या व्यक्त करता हो। व्याख्या से युक्त अर्थापन। (डेफिनेशन) ६. ऐसा शब्द जो किसी विज्ञान या शास्त्र में किसी विशिष्ट अर्थ में चलता या प्रयुक्त होता हो। परिभाषिक शब्द। (टेक्निकल टर्म)
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परिभाषित  : भू० कृ० [सं० परि√भाष्+क्त] (शब्द या पद) जिसकी परिभाषा की गई या हो चुकी हो। (डिफाइन्ड)
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परिभाषी (षिन्)  : वि० [सं० परि√भाष्+णिनि] बोलने या भाषण करनेवाला।
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परिभाष्य  : वि० [सं० परि√भाष्+ण्यत्] १. जो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता हो या कहा जाने को हो। २. जिसकी परिभाषा की जा रही हो या की जाने को हो।
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परिभिन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. टूटा-फूटा या फटा हुआ। २. विकृत।
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परिभुक्त  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (भोगना)+क्त] जिसका परिभोग किया गया हो या हो चुका हो।
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परिभुग्न  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (चूर्ण करना)+क्त] टेढ़ा।
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परिभू  : वि० [सं० परि√भू+क्विप्] १. जो चारों ओर से घेरे या आच्छादित किये हुए हो। २. नियम, बंधन आदि में रहनेवाला। ३. नियामक। परिचालक।
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परिभूत  : भू० कृ० [सं० परि√भू+क्त] [भाव० परिभूति] १. जिसका परिभव हुआ हो। २. अनादृत। तिरस्कृत। ३. हारा हुआ। परास्त।
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परिभूति  : स्त्री० [सं० परि+भू+क्तिन्] अपमानित होने या हारने की अवस्था या भाव।
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परिभूषण  : पुं० [सं० परि√भूष् (सजाना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभूषित] १. अच्छी तरह से भूषित करना। अलंकृत करना। २. प्राचीन भारत में, वह संधि जो आक्रमक को अपने देश का राजस्व देकर की जाती थी।
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परिभूषित  : भू० कृ० [सं० परि√भूष्+क्त] जिसका परिभूषण किया गया हो या हुआ हो।
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परिभेद  : पुं० [सं० परि√भिद् (फाड़ना)+घञ्] १. अच्छी तरह से भेदन करना। २. शास्त्रों आदि से किया जानेवाला आघात। ३. उक्त प्रकार के आघात से होनेवाला क्षत। घाव। जखम।
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परिभेदक  : वि० [सं० परि√भिद्+ण्वुल्—अक] १. अच्छी तरह भेदन करने अर्थात् काटने या फाड़नेवाला। २. गहरा घाव करनेवाला। पुं० यथेष्ट क्षत या घात करनेवाला शस्त्र।
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परिभोक्ता (क्तृ)  : वि० परि√भुज्+तृच्] १. परिभोग करनेवाला। २. दूसरे के धन का उपभोग करनेवाला। पुं० गुरु के धन का उपभोग करनेवाला व्यक्ति।
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परिभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिभोग्य] १. बहुत अधिक किया जानेवाला भोग। २. स्त्री० के साथ किया जानेवाला मैथुन। संभोग।
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परिभ्रंश  : पुं० [सं० परि√भ्रंश् (अधःपतन)+घञ्] १. गिरना या गिराना। पतन। स्खलन। २. पलायन। भगदड़।
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परिभ्रम  : पुं० [सं० परि√भ्रम (घूमना)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। पर्यटन। २. भ्रम। ३. सीधी तरह से कोई बात न कहकर उसे घुमाफिराकर चक्करदार ढंग या सांकेतिक रूप से कहना। जैसे—‘नाक पर मक्खी न बैठने देना।’ के बदले में कहना—सूँघने की इन्द्रिय पर घर उड़ते फिरने वाले कीड़े या पतंगे को आसन न लगाने देना।
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परिभ्रमण  : पुं० [सं० परि√भ्रम्+ल्युट्—अन] १. चारों ओर घूमना। २. विज्ञान में, किसी एक वस्तु का किसी दूसरी वस्तु को केन्द्र मानकर उसके चारों ओर घूमना या चक्कर लगाना। (रोटेशन) जैसे—चंद्रमा पृथ्वी का और पृथ्वी सूर्य का परिभ्रमण करता है। ३. घेरा। परिधि।
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परिभ्रष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√भ्रंश+क्त] १. गिरा हुआ। च्युत। पतित। २. स्खलित। भागा हुआ।
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परिभ्रामी (मिन्)  : वि० [सं० परि√भ्रम्+णिनि] परिभ्रमण करनेवाला।
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परिमंडल  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिमंडलता] १. गोल। वर्तुलाकार। २. जो तौल में एक परमाणु के बराबर हो। पुं० १. चक्कर। २. घेरा। विशेषतः वृत्ताकार घेरा। परिधि। ३. एक तरह का जहरीला कीड़ा। ३. चंद्रमा अथवा सूर्य के चारों ओर की प्रकाशमान वृत्ताकार रेखा। ४. चंद्रमा या सूर्य का प्रभामंडल। (कारोना)
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परिमंडल कुष्ठ  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुष्ठ का एक भेद।
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परिमंडलता  : स्त्री० [सं० परिमंडल+तल्+टाप्] गोलाई।
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परिमंडलित  : भू० कृ० [सं० परिमंडल+इतच्] चारों ओर से गोल किया हुआ। गोलाकृति बनाया हुआ।
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परिमंथर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक मंथर।
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परिमंद  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अत्यधिक मंद बुद्धि। २. बहुत ही शिथिल या सुस्त।
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परिमन्यु  : वि० [सं० अत्या० स०] जिसे बहुत अधिक क्रोध आता हो। क्रोधी स्वभाव का। गुस्सेवर।
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परिमर  : पुं० [सं० परि√मृ (मरना)+अप्] १. पूर्ण नाश। २. किसी के पूर्ण नाश के लिए किया जानेवाला एक तांत्रिक प्रयोग। ३. वायु।
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परिमर्द्द  : पुं० [सं० परि√मृद् (मर्दन)+घञ्] बहुत अधिक या अच्छी तरह से किया जानेवाला मर्दन।
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परिमर्श  : पुं० [सं० परि√मृद् (छूना, विचारना)+घञ्] १. छू जाना। लग जाना। २. लगाव होना। ३. अच्छी तरह किया जानेवाला विचार। परामर्श।
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परिमर्ष  : पुं० [सं० परि√मृष् (सहना)+घञ्] १. ईर्ष्या। २. कुढ़न। ३. क्रोध।
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परिमल  : पुं० [सं० परि√मल् (धारण)+अच्] १. अच्छी तरह मलना। २. शरीर में सुगंधित द्रव्य मलना या लगाना। ३. उक्त प्रकार से शरीर में मले या लगाये हुए पदार्थों से निकलनेवाली सुगंध। ४. खुशबू। सुगंध। सुवास। ५. पुष्पों आदि से निकलनेवाली वह सुगंध जो चारों ओर दूर तक फैलती हो। ६. मैथुन। संभोग। ६. पंडितों या विद्वानों की मंडली या समुदाय।
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परिमलज  : वि० [सं० परिमल√जन् (उत्पन्न होना)+ ड] परिमल अर्थात् मैथुन से प्राप्त होनेवाला (सुख)।
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परिमलित  : भू० कृ० [सं० परिमल+इतच्] फूलों आदि की सुगंध से सुगंधित किया हुआ।
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परिमा  : स्त्री० [सं० परि√मा (मापना)+अङ्+टाप्] १. सीमा। हद। २. ज्यामिति में, किसी क्षेत्र की सीमा सूचित करनेवाली रेखा। (बाउंड)
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परिमाण  : पुं० [सं० परि√मा+ल्युट्—अन] १. गिनने, तौलने, मापने आदि पर प्राप्त होनेवाला फल। २. नाप, जोख तौल आदि की दृष्टि से किसी वस्तु की लंबाई, चौड़ाई, भार, घनत्व विस्तार आदि। मान। (क्वान्टिटी) ३. चारों ओर का विस्तार। घेरा।
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परिमाणक  : पुं० [सं० परिमाण+कन्] १. परिमाण। २. तौल। भार।
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परिमाण-मंडल  : पुं० [सं०] भूगर्भ-शास्त्र में पृथ्वी के तीन मुख्य पटलों या विभागों में बीच का पटल या विभाग जो अनेक प्रकार की धातु-मिश्रित चट्टानों का बना हुआ गरम और ठोस है और जिसके ऊपरी पटल पर मनुष्य बसते और वनस्पतियाँ उगती हैं। (बैरिस्फीयर)
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परिमाणी (णिन्)  : वि० [सं० परिमाण+इनि] परिमाण युक्त। परिमाण विशिष्ट।
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परिमाता (तृ)  : वि० [सं० परि√मा+तृच्] परिमाण का पता लगानेवाला। परिमाण स्थिर करनेवाला।
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परिमाथी (थिन्)  : वि० [सं० परि√मथ् (मथना)+ णिनि] कष्ट देनेवाला।
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परिमान  : पुं०=परिमाण।
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परिमाप  : पुं० [सं० परि√मा+णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] १. मापने या नापने की क्रिया या भाव। २. लंबाई, चौड़ाई की नाप या लेखा। (डाइमेंशन) ३. वह उपकरण जिससे कोई चीज मापी या नापी जाय। (स्केल) ४. ज्यामिति में किसी आकृति, क्षेत्र या तल को चारों ओर से घेरनेवाली बाहरी रेखा अथवा ऐसी रेखा की लंबाई या विस्तार। (परिमीटर)
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परिमार्ग  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी चीज के चारों ओर बना हुआ पथ या मार्ग। परिपथ।
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परिमार्गन  : पुं० [सं० परि√मार्ग (खोजना)+ल्युट्—अन ] १. टोह या पता लगाने के लिए चारों ओर जाना। २. अन्वेषण। ३. मन-बहलाव या सैर-सपाटे के लिए घूमना। (एक्सकर्शन)
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परिमार्गी (गिन्)  : वि० [सं० परि√मार्ग+णिनि] टोह या पता लगाने वाला।
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परिमार्जक  : वि० [सं० परि√मृज् (शुद्धि करना)+ ण्वुल्—अक] परिमार्जन करनेवाला।
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परिमार्जन  : पुं० [सं० परि√मृज्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमार्जित] १. साफ करने के लिए अच्छी तरह धोना। २. अच्छी तरह साफ करना। ३. साहित्य में, उनकी त्रुटियों, कमियों आदि को दूर करना और इस प्रकार उन्हें उज्जवल बनाना। ४. भूलें आदि सुधारना। ५. प्राचीन भारत में एक प्रकार की मिठाई जो शहद में पागकर बनाई जाती थी।
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परिमार्जित  : भू० कृ० [सं० परि√मृज्+णिच्+क्त] जिसका परिमार्जन किया गया हो या हुआ हो। स्वच्छ किया या सुधारा हुआ।
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परिमित  : वि० [सं० परि√मा+क्त] [भाव० परिमिति] १. जो मापा जा चुका हो। २. परिमाण या मात्रा में जो किसी विशिष्ट विंदु, संख्या आदि से कम हो, कम किया गया हो अथवा उससे अधिक न बढ़ सकता हो। (लिमिटेड)
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परिमितकथी (थिन्)  : वि० [सं० परिमित√कथ् (कहना)+णिनि] कम बोलनेवाला। नपे-तुले शब्द या बातें कहनेवाला। अल्प-भाषी।
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परिमितायु (स्)  : वि० [सं० परिमित-आयुस्, ब० स० ] जिसकी आयु परिमिति अर्थात् थोड़ी हो।
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परिमिताहार  : पुं० [सं० परिमिति-आहार, ब० स०] अल्प भोजन। कम खाना। वि० कम भोजन करनेवाला। अल्पाहारी।
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परिमिति  : स्त्री० [सं० परि√मा+क्तिन्] १. परिमिति होने की अवस्था या भाव। २. परिमाण। ३. सीमा। हद। ४. क्षितिज। ५. प्रतिष्ठा। मर्यादा।
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परिमिलन  : पुं० [सं० परि√मिल् (मिलना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमिलित] १. मिलन। २. संपर्क। ३. स्पर्श। ४. संयोग।
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परिमीठ  : भू० कृ० [सं० परि√मिह् (सींचना)+क्त] मूत्र से सिक्त।
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परिमुक्त  : वि० [सं० परि√मुच् (छोड़ना)+क्त] [भाव० परिमुक्ति] बिलकुल स्वतन्त्र।
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परिमृज्य  : वि० [सं० परि√मृज्+क्विप्] १. परिमार्जित किये जाने के योग्य। २. जिसका परिमार्जन होने को हो।
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परिमृष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√मृज् (शुद्ध करना)+क्त] १. धोया हुआ। २. साफ किया हुआ। ३. अधिकार में किया या लिया हुआ। अधिकृत। ४. (व्यक्ति) जिससे परामर्श किया गया हो। ५. (विषय) जिसके संबंध में परामर्श हो चुका हो। ६. आलिंगित।
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परिमृष्टि  : स्त्री० [सं० परिमृज्+क्तिन्] परिमृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिमेय  : वि० [सं० परि√मा+यत्] १. जिसका परिमाण जाना जा सके अथवा जाना जाने को हो। २. घनत्व, मान, विस्तार, संख्या आदि में कम।
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परिमोक्ष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण मोक्ष। निर्वाण। २. परित्याग। छोड़ना। ३. सब को मोक्ष देनेवाले, विष्णु। ४. मल-त्याग करना। हगना।
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परिमोक्षण  : पुं० [सं० परि√मोक्ष (छोड़ना)+ल्युट्—अन ] १. मुक्त करना या होना। २. मुक्ति या मोक्ष देना। ३. परित्याग करना। छोड़ना। ४. मल-त्याग करना। हगना। ५. हठयोग की भाँति धौति क्रिया से आँतें साफ करना।
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परिमोष  : पुं० [सं० परि√मुष् (चोरी करना)+घञ्] १. चोरी। २. डाका।
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परिमोषक  : पुं० [सं० परि√मुष्+ण्वुल्—अक] १. चोर। डाकू।
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परिमोषण  : पुं० [सं० परि√मुष्+ल्युट्—अन] चुराने या डाका डालने का काम। किसी को मूसना; अर्थात् उसका सब-कुछ ले लेना।
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परिमोषी (षिन्)  : पुं० [सं० परि√मुष्+णिनि] १. चोर। २. डाकू।
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परिमोहन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्मोहन। (दे०)
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परिम्लान  : वि० [सं० प्रा० स०] १. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ। २. निस्तेज। हतप्रभ।
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परियंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियंत  : अव्य०=पर्यंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियज्ञ  : पुं० [सं० ब० स०] किसी बड़े यज्ञ के पहले या पीछे किया जानेवाला छोटा यज्ञ
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परियत्त  : भू० कृ० [सं० परि√यत् (प्रयत्न)+क्त] चारों ओर से घिरा हुआ।
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परियष्टा (ष्टृ)  : पुं० [सं० परि√यज् (देवपूजन)+तृच्] अपने बड़े भाई से पहले सोम-याग करनेवाला व्यक्ति।
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परिया  : पुं० [तामिल परेंयान] दक्षिण भारत की एक प्राचीन अछूत या अस्पृश्य जाति। वि० १. अछूत। अस्पृश्य। २. क्षुद्र। तुच्छ। स्त्री० [देश०] वे लकड़ियाँ जिससे ताना ताना जाता है।
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परियाण  : पुं० [सं० परि√या (जाना)+ल्युट्—अन] १ चारों ओर घूमना। २. पर्यटन।
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परियाणिक  : पुं० [सं० परियाण+ठन्—इक्] १. वह जो परियाण या पर्यटन कर रहा हो। २. वह गाड़ी जिस पर बैठकर घूमा-फिरा जाता हो।
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परियात  : वि० [सं० परि√या+क्त] १. जो घूम-फिरकर लौट आया हो।
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परियाना  : अ० [सं० प्र-याति] जाना। उदा०—केन कार्य परियासि कुत्र।—प्रिथीराज। स० [?] अलग अलग करना। छाँटना।
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परियार  : पुं० [देश०] बिहारी शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की एक उपजाति। २. मदरास में बसनेवाली एक छोटी जाति।
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परियुक्ति  : स्त्री० [सं० परि√युज् (लगाना)+क्तिन्] १. काम, बात, समय आदि निश्चित या नियत करने अथवा इनके लिए किसी व्यक्ति को नियत या नियुक्त करने की क्रिया या भाव। २. वह स्थिति जिसमें किसी काम या बात के लिए कोई किसी से वचन-बद्ध हो। ठहराव। (एंगेजमेंट)
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परियुद्धक  : पुं० [सं०] युद्ध-काल में वह देस जो अपने हितों के रक्षार्थ दूसरे देश या देशों से लड़ रहा हो। (बेलीगरेन्ट)
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परियोजना  : स्त्री० [सं०] कार्य-रूप में लायी जानेवाली योजना के संबंध में नियमित और व्यवस्तिति रूप से स्थिर किया हुआ विचार और स्वरूप। (स्कीम)
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परिरंभ, परिरंभण  : पुं० [सं० परि√रभ् (मलना)+घञ्, मुम्] [सं० परि√रभ्+ल्युट्—अन] [वि० परिरंभित, परिरंभी] अच्छी तरह से गले लगाना। कसकर गले मिलना। गाढ़ अलिंगन।
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परिरंभना  : स० [सं० परिरंभ+ना (प्रत्य०)] किसी को गले से लगाना। आलिंगन करना।
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परिरक्षक  : वि० [सं० परि√रक्ष् (बचाना)+ण्वुल्—अक] जो सब ओर से रक्षा करता हो। हर तरफ से बचानेवाला।
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परिरक्षण  : पुं० [सं० परि√रक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिरक्षित] हर तरह से रक्षा करना।
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परिरथ्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] चौड़ा रास्ता जिस पर रथ चलते थे।
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परिरब्ध  : वि० [सं० परि√रभू+क्त] १. घिरा हुआ। गले लगाया हुआ।
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परिरमित  : वि० [सं० परिरत] (काम, क्रीड़ा आदि में) लीन।
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परिराटी (टिन्)  : वि० [सं० परि√रट् (रटना)+घिनुण्] १. चीखने-चिल्लानेवाला। २. कर्कश ध्वनि करनेवाला।
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परिरूप  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. कला, शिल्प आदि के क्षेत्र में, वह कलापूर्ण रेखा-चित्र जिसे आधार मानकर तथा जिसके अनुकरण पर कोई काम किया या रचना खड़ी की जाय। भाँत। २. उक्त के अनुकरण पर बनी हुई चीज। (डिज़ाइन, उक्त दोनों अर्थों में) जैसे—शहरों में कपड़ों और मकानों के नये-नये परिरूप देखने में आते हैं।
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परिरूपक  : पुं० [सं० परि√रूप् (रूपान्वित करना)+ णिच्+ण्वुल्—अक] वह शिल्पी जो विभिन्न वस्तुओं के नये-नये परिरूप बनाता हो। (डिज़ाइनर)
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परिरेखा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी तिकोने, चौकोर अथवा बहुभुजी क्षेत्र के सब ओर पड़नेवाली रेखा। (पेरिफेरी) जैसे—किसी टापू या पहाड़ की परिरेखा।
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परिरोध  : पुं० [सं० परि√रुध् (रोकना)+घञ्] चारों ओर से छेंकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलंघन  : पुं० [सं० परि√लङ्घ (लाँघना)+ल्युट्—अन] लाँघना।
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परिलघु  : वि० [सं० अत्या० स०] १. बहुत छोटा। २. बहुत जल्दी पचनेवाला। लघुपाक।
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परिलिखन  : पुं० [सं० परि√लिख् (लिखना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिलिखित] घिस या रगड़ कर किसी चीज को चिकना बनाना।
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परिलिखित  : भू० कृ० [सं० परि√लिख्+क्त] घिस या रगड़कर चिकना किया हुआ।
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परिलीढ़  : भू० कृ० [सं० परि√लिह् (चाटना)+क्त] अच्छी तरह चाटा हुआ
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परिलुप्त  : भू० कृ० [स० परि√लुप् (काटना)+क्त] १. जो लुप्त हो चुका हो। खोया हुआ। २. क्षतिग्रस्त।
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परिलुप्त-संज्ञ  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी संज्ञा न रह गई हो। बेहोश।
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परिंलूत  : भू० कृ० [सं० परि√लू+क्त] कटा अथवा काटकर अलग किया हुआ।
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परिलेख  : पुं० [सं० परि√लिख्+घञ्] १. चित्र का ढाँचा। रेखा-चित्र। खाका। २. चित्र। तसवीर। ३. चित्र अंकित करने की कूँची या कलम। ४. उल्लेख। वर्णन। ५. बड़े अधिकारियों के पास भेजा जानेवाला विवरण। (रिटर्न)
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परिलेखन  : पुं० [सं० परि√लिख्+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु के चारों ओर रेखाएँ बनाना। २. लिखना। ३. चित्र अंकित करना।
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परिलेखना  : स० [सं० परिलेख] कुछ महत्त्व का मानना या समझना। किसी लेखे में गिनना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलेही (हिन्)  : पुं० [सं० परि√लिह्+णिनि] एक रोग जिसमें कान की लोलक पर फुंसियाँ निकल आती हैं।
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परिलोप  : पुं० [सं० परि√लुप् (छेदन)+घञ्] १. लुप्त हो जाना। २. क्षति। हानि। ३. विनाश। विलोप।
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परिवंचन  : पुं० [सं० परि√वञ्च् (ठगना)+ल्युट्—अन] धोखा देना ठगना।
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परिवक्रा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वृत्ताकार गड्ढा।
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परिवत्सर  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. आदि से अंत तक का पूरा वर्ष या साल। २. ज्योतिष के पाँच विशेष संवत्सरों में से एक जिसका अधिपति सूर्य होता है।
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परिवत्सरीय  : वि० [सं० परिवत्सर+छ—ईय] परिवत्सर-संबंधी।
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परिवदन  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+ल्युट्—अन] दूसरे की की जानेवाली निंदा या बुराई।
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परिवपन  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+ल्युट्—अन] १. कतरना। २. मूँड़ना।
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परिवर्जन  : पुं० [सं० परि√वृज् (निषेध)+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्जनीय, भू० कृ० परिवर्जित] परित्याग करना। त्यागना। छोड़ना। तजना। २. मार डालना। वध या हत्या करना।
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परिवर्जनीय  : वि० [सं० परिवृज+अनीयर्] परित्याज्य।
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परिवर्जित  : भू० कृ० [सं० परि√वृज्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्जन हुआ हो। त्यागा हुआ।
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परिवर्णी  : वि० [सं० परिवर्ण+हिं० ई (प्रत्य०)] (शब्द) जो कई शब्दों के आरंभिक वर्णों या अक्षरों के योग से अथवा कुछ शब्दों के आरंभिक तथा कुछ शब्दों के अंतिम वर्णों या अक्षरों के योग से बना हो। (ऐक्रास्टिक) जैसे—भारतीय+युरोपीय के योग से ‘भारोपीय’ अथवा चानव और जेहलम (झेलम) नदियों के बीचवाले प्रदेश का नाम ‘चज’ परिवर्णीशब्द है। इसी प्रकार चांद्रमास के पक्षों के ‘बदी’ (देखें) और ‘सुदी’ (देखें) भी परिवर्णी शब्द हैं।
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परिवर्त  : पुं० [सं० परि√वृत् (बरतना)+घञ्] १. घुमाव। चक्कर। फेरा। २. अदला-बदली। विनिमय। ३. वह चीज जो किसी दूसरी चीज के बदले में दी या ली जाय। ४. किसी काल या युग का अंत होना या बीतना। ५. ग्रंथ का अध्याय या परिच्छेद। ६. संगीत में स्वर-साधन की एक प्रणाली।
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परिवर्तक  : वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्—अक] घूमनेवाला। चक्कर खानेवाला। वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्] १. घुमानेवाला। फिरानेवाला। चक्कर देनेवाला। २. अदला-बदली या विनिमय करनेवाला। ३. किसी प्रकार का परिवर्तन करनेवाला। ४. युग का अंत करनेवाला। पुं० मृत्यु के पुत्र दुस्साह का एक पुत्र।
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परिवर्तन  : पुं० [सं० परि√वृत्+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्तनीय, परिवर्तित, परिवर्ती] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। २. चक्कर या फेरा लगाना। घुमाव। चक्कर फेरा। ४. किसी काल या युग का अंत या समाप्ति। ५. एक चीज के बदले में दूसरी चीज देना। विशेषतः किसी की पसंद या सुभीते की चीज उसे देकर उसके बदले में अपनी पसंद या सुभीते की चीज लेना। (कम्यूटेशन) जैसे—नोटों का रुपये में और रुपये का रेजगी में परिवर्तन। ६. वह चीज जो इस प्रकार बदले में दी या ली जाय। ६. किसी की आकृति, गुण, रूप, स्थिति आदि में होनेवाला फेर-फार, सुधार, ह्रास आदि। जैसे—रंग, स्वास्थ्य या हृदय का परिवर्तन। ८. वह क्रिया जो किसी चीज या बात का रूप बदलने अथवा उसे नया रूप देने के लिए की जाय। (चेंज) ९. एक के स्थान पर दूसरे के आने का भाव। जैसे—ऋतु का परिवर्तन, पहनावे का परिवर्तन। १॰. भारतीय युद्ध-कला में शत्रु पर प्रहार करने के लिए उसके चारों ओर घूमना।
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परिवर्तनीय  : वि० [सं० परि√वृत्+अनीयर्] जिसमें परिवर्तन किया जाने को हो।
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परिवर्तिका  : स्त्री० [सं० परि√वृत्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें अधिक खुजलाने, दबाने या चोट लगने के कारण लिंगचर्म उलट कर सूज जाता है।
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परिवर्तित  : भू० कृ० [सं० परि√वृत्+णिच्+क्त] १. जिसमें परिवर्तन किया गया हो या हुआ हो। जिसका आकार या रूप बदला गया हो। बदला हुआ। रूपांतरित। २. जो किसी के परिवर्तन या बदले में मिला हो।
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परिवर्तिनी  : स्त्री० [सं० परिवर्तिन्+ङीप्] भादों के शुक्ल पक्ष की एकादशी।
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परिवर्ती (र्तिन्)  : [सं० परि√वृत्+णिनि] १. बराबर घूमता रहनेवाला। २. जिसमें परिवर्तन या फेर-बदल होता रहता हो। बराबर बदलता रहनेवाला। परिवर्तनशील। ३. परिवर्तन या विनिमय करनेवाला।
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परिवर्तुल  : वि० [सं० प्रा० स०] ठीक और पूरा गोल या वर्त्तुल।
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परिवर्त्यता  : स्त्री० [सं०] परिवर्त्य होने की अवस्था, गुण या भाव।
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परिवर्द्धन  : पुं० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवर्द्धित] १. आकार-प्रकार, विषय-वस्तु आदि में की जानेवाली वृद्धि। (एनलार्जमेंट) जैसे—पुस्तक का परिवर्द्धन। २. इस प्रकार बढ़ाया हुआ अंश। ३. जोड़।
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परिवर्द्धित  : भू० कृ० [सं० परि√वर्ध्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्द्धन किया गया हो या हुआ हो। बढ़ा या बढ़ाया हुआ। (एनालार्जड)
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परिवर्म (वर्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] वर्म से ढका हुआ। बख्तर से ढका हुआ। जिरहपोश।
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परिवर्ष  : पुं० [सं०] उतना समय जितना किसी एक ग्रह को रवि-बीच से चलकर फिर दोबारा वहाँ तक पहुँचने में लगता है। (अनोमेलस्टिक ईयर)
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परिवर्ह  : पुं० [सं० परि√वर्ह (उत्कर्ष)+घञ्] १. चँवर, छत्र आदि राजत्व की सूचक वस्तुएँ। २. राजाओं के दास आदि। ३. घर, कमरे आदि को सजाने के लिए उसमें रखी जानेवाली वस्तुएँ। सजावट की चीजें। ४. गृहस्थी में काम आनेवाली वस्तुएँ। ५. सम्पत्ति।
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परिवर्हण  : पुं० [सं० परि √वर्ह+ल्युट्—अन] १. अनुचर वर्ग। २. वेश-भूषा। पोशाक। ३. वृद्धि। ४. पूजा।
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परिवसथ  : पुं० [सं० परि√वस् (बसना)+अथच्] गाँव। ग्राम।
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परिवह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+अच्] १. सात पवनों में से छठा पवन; जो आकाश गंगा, सप्तऋषियों आदि को वहन करता है। २. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक जिह्वा की संज्ञा।
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परिवहन  : पुं० [सं० परि√वह्+ल्युट्—अन] माल, यात्रियों आदि को एक स्थान से ढोकर दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य, जो आज-कल रेलों, मोटरों, जहाजों, नावों आदि अनेक साधनों द्वारा किया जाता है। (ट्रान्सपोर्ट)
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परिवहन तंत्र  : पुं० [सं०] दे० ‘रक्तवह-तंत्र।
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परिवाँण  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवा  : स्त्री०=प्रतिपदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवाद  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+घञ्] १. निंदा। बुराई। शिकायत। २. बदनामी। ३. झूठी निन्दा या शिकायत। मिथ्या दोषारोपण। ४. कोई असुविधा या कष्ट होने पर अधिकारियों के सामने की जानेवाली किसी काम, बात, व्यक्ति आदि की शिकायत। (कम्पलेन्ट) ५. लोहे के तारों का वह छल्ला जिसे उँगली पर पहनकर वीणा, सितार आदि बजाई जाती है। मिजराब।
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परिवादक  : वि० [सं० परि√वद्+ण्वुल्—अक] १. परिवाद या निंदा करनेवाला। निंदक। २. शिकायत करनेवाला। पुं० वह जो वीणा, सितार या इसी तरह का और कोई बाजा बजाता हो।
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परिवादिनी  : स्त्री० [सं० परिवादिन्+ङीष्] एक तरह की वीणा जिसमें सात तार होते हैं।
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परिवादी (दिन्)  : वि० [सं० परि√वद्+णिनि]= परिवादक।
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परिवान  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवानना  : स० [सं० प्रमाण] प्रमाण के रूप में या ठीक मानना।
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परिवाप  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+घञ्] १. बाल आदि मूँड़ना। २. बोना। ३. जलाशय। ४. घर का उपयोगी सामान। ५. अनुचरवर्ग। ६. भूना हुआ चावल। लावा। फरुही। ६. छेना।
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परिवापित  : भू० कृ० [सं० परि√वप्+णिच्+क्त] मूँड़ा हुआ। मुंडित।
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परिवार  : पुं० [सं० परि√वृ (ढकना)+घञ्] १. एक ही पूर्व पुरुष के वंशज। २. एक घर में और विशेषतः एक कर्ता के अधीन या संरक्षण में रहनेवाले लोग। ३. किसी विशिष्ट गुण, संबंध आदि के विचार से चीजों का बननेवाला वर्ग। जैसे—आर्य-भाषाओं का परिवार। (फेमिली) ४. किसी राजा, रईस आदि के आगे-पीछे चलने या साथ रहनेवाले लोग।
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परिवारण  : पुं० [सं० परि√वृ+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिवारित] १. ढकने या छिपाने की क्रिया। २. आवरण। आच्छादन। ३. तलवार की म्यान। कोष।
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परिवार नियोजन  : पुं० [सं०] आज-कल देश अथवा संसार की दिन पर दिन बढ़ती हुई जन-संख्या को नियंत्रित करने या सीमित रखने के उद्देश्य से गार्हस्थ जीवन के संबंध में की जानेवाली वह योजना जिससे लोग आवश्यकता अथवा औचित्य से अधिक संतान उत्पन्न न करें। (फैमिली प्लानिंग)
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परिवारित  : भू० कृ० [सं० परि√वृ+णिच्+क्त] घिरा या घेरा हुआ। आवेष्टित।
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परिवारी  : पुं० [सं० परिवार] १. परिवार के लोग। २. नाते-रिश्ते के लोग। वि० पारिवारिक।
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परिवार्षिक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो पूरे वर्ष भर चलता या होता रहे। जैसे—परिवार्षिक नाला—ऐसा नाला जो बराबर बहता रहे, गरमियों में सूख न जाय; परिवार्षिक वृक्ष=ऐसा वृक्ष जो बराबर हरा रहता हो, और जिसके पत्ते किसी ऋतु में झड़ते न हों। २. बराबर या बहुत दिन तक स्थायी रूप से बना रहनेवाला। (पेरीनियल)
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परिवास  : पुं० [सं० परि√वस्+घञ्] १. टिकना। ठहरना। २. घर। मकान। ३. खुशबू। सुगन्ध। ४. संघ से किसी भिक्षु का होनेवाला बहिष्करण। (बौद्ध)
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परिवासन  : पुं० [सं० परि√वस्+णिच्+ल्युट्—अन] खंड। टुकड़ा।
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परिवाह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+घञ्] १. ऐसा बहाव जिसके कारण पानी ताल, तालाब आदि की समाई से अधिक हो जाता हो। पानी का खूब भर जाने के कारण बाँध, मेंड़ आदि के ऊपर से होकर बहना। २. वह नाली जिसके द्वारा आवश्यकता से अधिक पानी बाहर निकलता या निकाला जाता हो। जल की निकासी का मार्ग। ३. किसी प्रदेश की ऐसी नदियों की व्यवस्था जिनमें नावों आदि से माल भेजे जाते हों।
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परिवाही (हिन्)  : वि० [सं० परि√वह+णिनि] [स्त्री० परिवाहिनी] (तरल पदार्थ) जो आधान या पात्र में या किनारों पर से इधर-उधर भर जाने पर ऊपर से बहता हो।
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परिविंदक  : पुं० [सं० परि√विद् (प्राप्त करना)+ण्वुल—अक, नुम्] वह व्यक्ति जो बड़े भाई का विवाह होने से पहले अपना विवाह कर ले। परवेत्ता।
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परिविंदत्  : पुं० [परि√विन्द्+शतृ, नुम्] परिविंदक। (दे०)
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परिविण्ण (न्न)  : पुं० [सं० परि√विन्द् (लाभ)+क्त]= परिवित्त।
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परिवितर्क  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. विचार। २. परीक्षा। (बौद्ध)
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परिवित्त  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिविंदक। (दे०)
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परिवित्ति  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिवित्त। परिविंदक।
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परिविद्ध  : वि० [सं० परि√व्यध् (बेधना)+क्त] भली भाँति या चारों ओर से बिधा हुआ। पुं० कुबेर।
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परिविविदान  : पुं० [सं० परि√विद्+लिट्+कानच्] परिविंदक। (दे०)
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परिविष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√विष् (व्याप्ति)+क्त] [भाव० परिविष्टि] १. घिरा अथवा घेरा हुआ। २. परोसा हुआ (भोजन)।
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परिविष्टि  : स्त्री० [सं० परि√विष्+क्तिन्] घेरा। वेष्टन। २. सेवा। टहल। ३. भोजन परोसना।
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परिविहार  : पुं० [सं० प्रा० स०] जी भरकर या भली-भाँति किया जानेवाला विहार।
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परिवीक्षण  : पुं० [सं० परि-वि√ईक्ष् (देखना)—ल्युट्—अन] १. भली भाँति देखना। २. चारों ओर ध्यानपूर्वक देखना।
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परिवीजित  : वि० [सं० परि√वीज् (पंखा झलना)+क्त] जिस पर पंखे से हवा की गई हो।
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परिवीत  : भू० कृ० [सं० परि√व्य (बुनना)+क्त] १. घिरा हुआ। लपेटा हुआ। २. छिपाया हुआ। ३. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिवृत्त  : वि० [सं० परि√वृ+क्त] १. घेरा, छिपाया या ढका हुआ। २. उलटा-पुलटा हुआ। पुं० कार्य, घटना आदि के संबंध में, दूसरों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया जानेवाला संक्षिप्त विवरण। (स्टेटमेंट)
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परिवृत्ति  : स्त्री० [सं० परि√वृ+क्तिन्] १. ढकने, घेरने या छिपाने वाली वस्तु। घेरा। वेष्टन। २. घुमाव। चक्कर। ३. विनिमय। ४. अंत। समाप्ति। ५. दोबारा कोई काम करने की क्रिया या भाव। ६. किसी के किये हुए काम को देखकर वैसा ही और कोई काम करना। ६. व्याकरण में, एक शब्द या पद को दूसरे ऐसे शब्द या पद से बदलना जिससे अर्थ वही बना रहे। जैसे—‘कमललोचन’ के ‘कमल’ के स्थान पर पद्म’ अथवा ‘लोचन के स्थान पर ‘नयन’ रखना। ८. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी को अनुपात में कम या सस्ती वस्तु देकर अधिक या महंगी वस्तु लेने का वर्णन होता है।
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परिवृद्ध  : वि० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+क्त] [भाव परिवद्धि] १. जिसका परिवर्द्धन हुआ हो। २. चारों ओर से बढ़ा हुआ।
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परिवृद्धि  : स्त्री० [सं० परि√वृध्+क्तिन्] परिवृद्ध होने की अवस्था या भाव।
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परिवेता (तृ)  : पुं० [सं० परि√विद्+तृच्] परिविंदक। (दे०)
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परिवेद  : पुं० [सं० परि√विद्+घञ्] १. पूर्ण ज्ञान। २. अनेक विषयों की होनेवाली जानकारी। ३. परिवेदन।
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परिवेदन  : पुं० [सं० परि√विद्+ल्युट्—अन] १. पूर्ण ज्ञान। परिवेद। २. बड़े भाई के विवाह से पहले छोटे भाई का होनेवाला विवाह। ३. विवाह। शादी। ४. उपस्थिति। विद्यमानता। ५. प्राप्ति। लाभ। ६. वाद-विवाद। बहस। ६. कष्ट। विपत्ति।
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परिवेदना  : स्त्री० [सं० परि√विद् (ज्ञान)+णिच्+युच्—अन, टाप्] १. पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की विवेक-शक्ति। २. चतुराई।
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परिवेदनीया  : स्त्री० [सं० परि√विद्+अनीयर्+टाप्] परिविंदक की पत्नी। आविवाहित व्यक्ति की अनुज वधू।
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परिवेदिनी  : स्त्री० [सं० परिवेद+इनि—ङीष्]=परिवेदनीया।
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परिवेध  : पुं० [सं० परि√विध्+घञ्] १. प्रायः दो चीजों को जोड़ने के लिए उनमें किया जानेवाला ऐसा छेद जिसमें कील, पेच आदि लगाये अथवा चूल कसी जाती है। ३. इस प्रकार का बनाया जानेवाला छेद। (बोर)
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परिवेधन  : पुं० [परि√विध्+ल्युट्] परिवेध करने की क्रिया या भाव। (बोरिंग)
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परिवेश  : पुं० [सं० परि√विश् (प्रवेश)+घिञ्] १. वेष्टन। परिधि। घेरा। २. बदली के समय सूर्य या चंद्रमा के चारों ओर दिखाई देनेवाला घेरा। ३. प्रकाशमान पिंडों के चारों ओर कुछ दूरी तक दिखाई देनेवाला प्रकाश जो मंडलाकार होता है। ४. तेजस्वी पुरुषों, देवताओं आदि के चित्रों में उनके मुखमंडल के चारों ओर दिखलाया जानेवाला प्रकाशमान घेरा। प्रभा-मंडल। भा-मंडल। (हेलो)
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परिवेष  : पुं० [सं० परि√विष् (व्यक्ति)+घञ्] १. भोजन परसना या परोसना। २. चारों ओर से घेरकर रक्षा करनेवाली रचना या वस्तु। ३. परकोटा। प्राचीर। ४. दे० ‘परिवेश’। ५. दे० ‘प्रभावमंडल’।
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परिवेषक  : पुं० [सं० परि√विष्+ण्वुल्—अक] वह व्यक्ति जो भोजन आदि परसता या परोसता हो।
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परिवेषण  : पुं० [सं० परि√विष्+ल्युट्—अन] १. भोजन आदि परसने या या परोसने का काम। २. घेरा। परिधि। ३. दे० ‘परिवेष’।
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परिवेष्टन  : पुं० [सं० परि√वेष्ट् (घेरना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवेष्टित] १. किसी चीज को घेरना अथवा उसके चारों ओर घेरा बनाना। २. घेरा। परिधि। ३. छिपाने या ढकनेवाली चीज। आच्छादन। आवरण।
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परिवेष्टा (ष्दृ)  : पुं० [सं० परि√विष्+तृच] परिवेषक। (दे०)
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परिवेष्टित  : भू० कृ० [सं० परि√वेष्ट्+क्त] १. जो चारों ओर से घिरा हुआ हो। २. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिव्यक्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो अच्छी तरह से व्यक्त हो चुका हो।
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परिव्यय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज के निर्माण में होनेवाला व्यय। २. वह मूल्य जिस पर बिक्री के लिए उत्पादित की हुई अथवा मँगाई हुई वस्तु का घर पर परता बैठता हो। (कॉस्ट) ३. मूल्य। ४. किसी चीज की मरम्मत आदि करने पर बदले में दिया जानेवाला धन। पारिश्रमिक। ५. शुल्क।
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परिव्ययनीय  : वि० [सं परि√व्यय् (खर्च करना)+ अनीयर्] जो परिव्यय के रूप में किसी से लिया या किसी को दिया जा सके। जिस पर परिव्यय जोड़ा या लगाया जा सके। (चार्जेबुल)
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परिव्याध  : वि० [सं० परि√व्यध् (ताड़ना)+ण] चारों ओर से बेधने या छेदनेवाला। पुं० १. जलबेंत। २. कनेर। ३. एक प्राचीन-ऋषि।
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परिव्याप्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह और सब अंगों या स्थानों में फैला या समाया हुआ।
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परिव्रज्या  : स्त्री० [सं० परि√व्रज् (जाना)+क्यप्, टाप्] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। भ्रमण। २. तपस्या। ३. सदा घूमते-फिरते रहकर और भिक्षा माँग कर जीवन बिताने का नियम, वृत्ति या व्रत।
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परिव्राज (क)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+घञ् (संज्ञा में), परि√व्रज्+ण्वुल्—अक] १. वह संन्यासी जो परिव्रज्या का व्रत ग्रहण करके सदा इधर-उधर भ्रमण करता रहे। २. संन्यासी। ३. बहुत बड़ा यती और परम हंस।
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परिव्राजी  : स्त्री० [सं० परि√व्रज्+णिच्+इन्, ङीष्] गोरखमुंडी। मुंड़ी।
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परिव्राट (ज्)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+क्विप्] परिव्राजक। (दे०)
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परिशंकी (किन्)  : वि० [सं० पर√शंक (आशंका करना)+णिनि] अत्यधिक आशंका करने या सशंकित रहनेवाला।
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परिशयन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक सोना। २. कुछ पशुओं और जीव-जंतुओं की वह निद्रा या तंद्रा वाली निष्क्रिय अवस्था जिसमें वे जाड़े के दिनों में शीत के प्रभाव से बचने के लिए बिना कुछ खाये-पीये चुप-चाप एक जगह दबे-दबाये रहते हैं। (हाइबरनेशन)
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परिशिष्ट  : वि० [सं० परि√शिष् (बचना)+क्त] छूटा या बाकी बचा हुआ। अवशिष्ट। पुं० १. पुस्तकों आदि के अंत में दी जानेवाली वे बातें जो मूल में आने से रह गई हों, अथवा जो मूल में आई हुई बातों के स्पष्टीकरण के लिए हों। (एपेंडेक्स) २. अनुसूची। (दे०)
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परिशीलन  : पुं० [सं० परि√शील् (अभ्यास)+ल्युट्—अन] १. मननपूर्वक किया जानेवाला गंभीर अध्ययन। २. स्पर्श।
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परिशीलित  : भू० कृ० [सं० परि√शील्+क्त] (ग्रंथ या विषय) जिसका परिशीलन किया गया हो।
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परिशुद्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिशुद्धता, परिशुद्धि] १. बिलकुल शुद्ध। विशेषतः जिसमें किसी दूसरी चीज का कुछ भी मेल न हो। खरा। २. जिसमें कुछ भी कमी-बेशी या भूल-चूक न हो। बिलकुल ठीक। (एक्योरेट) ३. चुकता किया हुआ। ४. छोड़ा या बरी किया हुआ।
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परिशुद्धता  : स्त्री० [सं० परिशुद्ध+तल्+टाप्]=परिशुद्ध।
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परिशुद्धि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण शुद्धि। सम्यक् शुद्धि। २. किसी बात या विषय की वह स्थिति जिसमें किसी प्रकार की कमी-बेशी या कोई भूल-चूक न हो। (एक्योरेसी)। ३. छुटकारा। मुक्ति।
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परिशुष्क  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बिलकुल सूखा हुआ। २. अत्यंत रसहीन। ३. रसिकता आदि से बिलकुल रहित। पुं० तला हुआ मांस।
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परिशून्य  : वि० [सं० प्रा० स०] जो बिलकुल शून्य हो। पुं० विज्ञान में, वह स्थान जिसमें वायु आदि कुछ भी न हो या जिसमें वायु निकाल ली गई हो। (वायड)
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परिशेष  : वि० [सं० परि√शिष्+घञ्] [भाव० परिशेषण ] जो अब भी शेष हो। जो पूर्णतः अब भी नष्ट या समाप्त न हुआ हो। पुं० १. वह अंश या तत्त्व जो बाकी बच रहा हो। २. अंत। समाप्ति। ३. दे० ‘परिशिष्ट’।
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परिशोध  : पुं० [सं० परि√शुध् (शुद्ध करना)+घञ्] १. अच्छी तरह शुद्ध करना या बनाना। २. ऋण, देन आदि का चुकाया जाना। (रिपेमेंट) ३. किसी से चुकाया जानेवाला बदला। उपकार के बदले में किया जानेवाला अपकार। प्रतिशोध।
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परिशोधन  : पुं० [सं० परि√शुध्+ल्युट्—अन] [वि० परिशोधनीय, भू० कृ० परिशोधित] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज अच्छी तरह शुद्ध हो कर श्रेष्ठ अवस्था में आजा वे। (रेक्टिफिकशेन) २. ऋण देन आदि चुकता करने की क्रिया या भाव। ३. प्रतिशोधन।
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परिशोष  : पुं० [सं० परि√शुष् (सूखना)+घञ्] १. किसी चीज को अच्छी तरह से सुखाना। २. पूरी तरह से सूखे हुए होने की अवस्था या भाव।
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परिश्रम  : पुं० [सं० परि√श्रम् (आयास करना)+घञ्] कोई कठिन, बड़ा या दुस्साध्य काम करने के लिए विशेष रूप से तथा मन लगाकर किया जानेवाला मानसिक या शारीरिक श्रम। मेहनत।
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परिश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० परिश्रम+इनि] १. जो परिश्रमपूर्वक कोई काम करता हो। २. हर काम अपनी पूरी शक्ति लगाकर करनेवाला। मेहनती।
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परिश्रय  : पुं० [सं० परि√श्रि (सेवन)+अच्] १. परिषद्। सभा। २. आश्रय या शरण-स्थल।
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परिश्रांत  : वि० [सं० परि√श्रम्+क्त] [भाव० परिश्रांति] बहुत अधिक थका हुआ। थका-माँदा।
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परिश्रांति  : स्त्री० [सं० परि√श्रम्+क्तिन्] परिश्रांत होने की अवस्था या भाव। बहुत अधिक थकावट।
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परिश्रित्  : वि० [सं० परि√श्रि+क्विप्] आश्रय देनेवाला। पुं० यज्ञ में काम आनेवाला पत्थर का एक विशिष्ट टुकड़ा।
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परिश्रुत  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (बात आदि) जो ठीक प्रकार से या भली-भाँति सुनी गई हो। २. ख्यात। प्रसिद्ध।
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परिश्लेष  : पुं० [सं० परि√श्लिष् (आलिंगन करना)+घञ्] आलिंगन। गले लगाना।
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परिषक्त  : स्त्री०=परिषद्।
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परिषत्त्व  : पुं० [सं० परिषद्+त्व] परिषद् का भाव या धर्म।
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परिषद्  : स्त्री० [सं० परि√सद् (गति)+क्विप्] १. चारों ओर से घेर कर या घेरा बनाकर बैठाना। २. वैदिक युग में विद्वानों की वह सभा जो राजा किसी विषय पर व्यवस्था देने के लिए बुलाता था। ३. बौद्ध-काल में वह निर्वाचित राजकीय संस्था या सभा जो राज्य या शासन से संबंध रखनेवाली सब बातों पर विचार तथा निर्णय करती थी। विशेष—प्राचीन काल में परिषदें तीन प्रकार की होती थीं—(क) शिक्षा-संबंधी। (ख) सामाजिक गोष्ठी-सम्बन्धी। और (ग) राज-शासन-सम्बन्धी। ४. आधुनिक राजनीति विज्ञान में, निर्वाचित या मनोनीत विधायकों की वह सभा जो स्थायी या बहुत-कुछ स्थायी होती है। (काउंसिल) ५. सभा। जैसे—संगीत परिषद्।
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परिषद  : पुं० [सं० परि√सद्+अच्] १. सवारी या जुलूस में चलनेवाले वे अनुचर जो स्वामी को घेर कर चलते हैं। परिषद। २. दरबारी। मुसाहब। ३. सदस्य। सभासद। स्त्री०=परिषद्।
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परिषद्य  : पुं० [सं० परिषद्+यत्] १. परिषद् या सदस्य। २. सभासद। सदस्य। ३. दर्शक। प्रेक्षक।
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परिषद्वल  : पुं० [सं० परिषद्+वलच्] सभासद। सदस्य।
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परिषिक्त  : भू० कृ० [सं० परि√सिंच् (सींचना)+क्त] १. जो अच्छी तरह से सींचा गया हो। २. जिस पर छिड़काव हुआ हो।
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परिषीवण  : पुं० [सं० परि√सिव् (सीना)+ल्युट्—अन] १. चारों ओर से सीना। २. गाँठ लगाना। बाँधना।
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परिषेक  : पुं० [सं० परि√सिच्+घञ्] १. पानी से तर करने की क्रिया। सिंचाई। २. छिड़काव। ३. स्नान।
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परिषेचक  : वि० [सं० परि√सिच्+ण्वुल्—अक] १. सींचनेवाला। २. छिड़कनेवाला।
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परिषेचन  : पुं० [सं० परि√सिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिषिक्त] सींचना। छिड़कना।
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परिष्कंद  : पुं० [सं० परि√स्कन्द (गति)+घञ्] वह जिसका पालन-पोषण माता-पिता द्वारा नहीं बल्कि किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा हुआ हो।
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परिष्कर  : पुं० [सं० परि√कृ (करना)+अप्, सुट्] सजावट। सज्जा।
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परिष्करण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० परिष्कृत] परिष्कार करने अर्थात् साफ और सुंदर बनाने की क्रिया या भाव। (एम्बेलिशमेन्ट)
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परिष्करण शाला  : स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ खनिज, तैल, धातुएँ आदि परिष्कृत या साफ की जाती हैं। (रिफाइनरी)
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परिष्करणी  : स्त्री० [सं० परि√कृ+ल्युट्—अन, सुट्] वह कारखाना या स्थान जहाँ यंत्रों आदि की सहायता से तेलों, धातुओं आदि में की मैल निकालकर उन्हें परिष्कृत या साफ किया जाता हो। (रिफाइनरी)
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परिष्कार  : पुं० [सं० परि√कृ+घञ्, सुट्] [भू० कृ० परिष्कृत] १. अच्छी तरह ठीक और साफ करने की क्रिया या भाव। गंदगी, मिलावट, मैल आदि निकालकर किसी चीज को स्वच्छ बनाना। (रिफाइनिंग) २. त्रुटियाँ, दोष आदि दूर करके सुंदर, सुरुचिपूर्ण और स्वच्छ बनाना। (एम्बेलिशमेंट) ३. निर्मलता। स्वच्छता। ४. अलंकार। गहना। ५. शोभा। श्री। ६. बनाव-सिंगार। सजावट। ६. सजाने की सामग्री। उपस्कर। (फरनीचर) ८. संयम। (बौद्ध दर्शन)
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] १. परिष्कृत होने की अवस्था, गुण या भाव। २. परिष्कार। ३. आचार-व्यवहार की वह उन्नत स्थिति जिसमें अशिष्ट, उद्धत, ग्राम्य, पुरुष, रुक्ष आदि बातों का अभाव और कोमल, नागर, विनम्र, शिष्ट तथा स्निग्ध तत्त्वों की अधिकता और प्रबलता होती है। (रिफाइनमेंट)
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परिष्क्रिया  : स्त्री० [सं० परि√कृ+सुट्,+टाप्] परिष्कार। (दे०)
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परिष्कृत  : भू० कृ० [सं० परि√कृ+क्त, सुट्] [भाव० परिष्कृति] १. जिसका परिष्कार किया गया हो। अच्छी तरह ठीक और साफ किया हुआ। २. सवाँरा या सजाया हुआ। अलंकृत। ४. सुधारा हुआ।
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] परिष्कृत होने की अवस्था या भाव। परिष्कार।
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परिष्टवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] प्रशंसा। स्तुति।
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परिष्टोम  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. एक प्रकार का सामगान जिसमें ईश्वर की स्तुति होती है। २. घोडे, हाथी आदि की झूल।
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परिष्ठल  : पुं० [सं० परि-स्थल, प्रा० स०] आस-पास की भूमि।
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परिष्यंद  : पुं० [सं० परि√ष्यंद् (बहना)+घञ्, षत्व]= परिस्यंद।
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परिष्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंद+इनि] बहानेवाला।
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परिष्वंग  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (आलिंगन)+घञ्] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वंजन  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (चिपकना)+ल्युट्—अन] [वि० परिष्वक्त] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वक्त  : भू० कृ० [सं० परि√स्वञ्ज्+क्त] जिसे गले लगाया गया हो। आलिंगित।
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परिसंख्या  : स्त्री० [सं० परि-सम्√ख्या (प्रसिद्ध करना) +अङ्+टाप्] १. गणना। गिनती। २. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी स्थान में होनेवाली बात या वस्तु का प्रश्न या व्यंग्यपूर्वक निषेध करके अन्य स्थान पर प्रतिष्ठापन करने का वर्णन होता है। ३. कुछ स्थानों पर होनेवाली वस्तुओं के संबंध में यह कहना कि अब वे वहाँ नहीं रह गईं केवल अमुक जगह में रह गई हैं। जैसे—रामराज्य की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि उसमें स्त्रियों के नेत्रों को छोड़कर कुटिलता और कहीं नहीं दिखाई देती थी।
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परिसंख्यान  : पुं० [सं० परि√सम्√ख्या+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसंख्यात] अनुसूची। (दे०)
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परिसंघ  : पुं० [सं० प्रा० स०] पारस्परिक तथा सामूहिक हितों के रक्षार्थ बननेवाला वह अंतरराष्ट्रीय संघटन जिसके सदस्य स्वतंत्र राष्ट्र होते हैं। (कनफेडरेशन)
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परिसंचर  : पुं० [सं० परि-सम्√चर् (गति)+अच्] प्रलय-काल।
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परिसंचित  : भू० कृ० [सं० परि—सम्√चि (इकट्ठा करना)+क्त] इकट्ठा या संचित किया हुआ।
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परिसंतान  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. तार। २. तंत्री।
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परिसंपद्  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] व्यक्ति, संघटन, संस्था आदि का वह निजी या अधिकृत धन तथा संपत्ति जिसमें से उसका ऋण, देय आदि चुकाया जाता हो या चुकाया जा सके। (असेट्स)
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परिसंवाद  : पुं० [सं० परि-सम्√वद् (बोलना)+घञ्] १. दो या अधिक व्यक्तियों में किसी बात, विषय आदि के संबंध में होनेवाला तर्क संगत या विचारपूर्ण वादविवाद। (डिस्कशन) २. दे० परिचर्चा।
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परिसंहत  : [सं०] १. अच्छी तरह उठा हुआ। २. (कथन या लेख) जिसमें फालतू या व्यर्थ की बातें अथवा शब्द न हों। (टर्म)
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परिसंहित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] बहुत अच्छी तरह गठा या गाँठा हुआ। २. (साहित्य में ऐसी गठी हुई तथा संक्षिप्त रचना) जिसमें ओज, प्रसाद आदि गुण भी यथेष्ट मात्रा में हों।
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परिसम्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] सभासद। सदस्य।
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परिसमंत  : पुं० [सं० प्रा० स०] वृत्त के चारों ओर की रेखा या सीमा।
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परिसमापक  : पुं० [परि-सम्√आप् (व्याप्ति)+ण्वुट्—अक] परिसमापन करनेवाला अधिकारी। (लिक्वीडेटर)
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परिसमापन  : पुं० [परि-सम्√आप्+ल्युट्—अन] १. समाप्त करना। २. किसी चलते हुए काम का समाप्त होना। (टरमीनेशन) ३. किसी ऋणग्रस्त संस्था का कार-बार बंद करते समय किसी सरकारी अधिकारी या आदाता द्वारा उसकी परिसंपद लहनेदारों में किसी विशिष्ट अनुपात में बाँटा जाना। (लिक्वीडेशन) ३. दे० ‘अपाकरण’।
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परिसमाप्त  : भू० कृ० [सं० परि-सम्√आप+क्त] १. जो पूरी तरह से समाप्त हो चुका हो। २. (संस्था) जिसका परिसमापन हो चुका हो।
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परिसमाप्ति  : स्त्री० [सं० परि-सम्√आप्+क्तिन्] परिसमापन।
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परिसमूहन  : पुं० [सं० परि-सम्√ऊह् (वितर्क)+ल्युट्—अन] १. एकत्र करना। २. यज्ञ की अग्नि में समिधा डालना। ३. तृण आदि आग में डालना। ४. यज्ञाग्नि के चारों ओर जल छिड़कने की क्रिया।
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परिसर  : वि० [सं० परि√सृ (गति)+अप्] [स्त्री० परिसरा] १. किसी के चारों ओर वहने (अथवा चलने) वाला। २. किसी के साथ जुड़ा, मिला, लगा या सटा हुआ। ३. फैला हुआ। विस्तृत। उदा०—खुली रूप कलियों में परभर स्तर स्तर सु-परिसरा।—निराला। पुं० १. किसी स्थान के आस-पास की भूमि या खुला मैदान। २. प्रांत भूमि। ३. मृत्यु। ४. ढंग। तरीका। विधि। ५. शरीर की नाड़ी या शिरा।
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परिसरण  : पुं० [सं० परि√सृ+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसृत] १. किसी के चारों ओर बहना (या चलना)। २. पर्यटन। ३. पराजय। हार। ४. मृत्यु। मौत। ५. दे० रसाकर्षण।
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परिसर्प  : पुं० [सं० परि√सृप् (गति)+घञ्] १. किसी के चारों ओर घूमना। परिक्रिया। परिक्रमण। २. घूमना-फिरना या टहलना। ३. ढूँढ़ने या तलाश करने के लिए निकलना। ४. चारों ओर से घेरना। ५. साहित्य दर्पण के अनुसार नाटक में किसी का किसी की खोज और केवल मार्गचिह्नों आदि के सहारे उसका पता लगाने का प्रयत्न करना। जैसे—सीता-हरण के उपरान्त, राम का सीता को बन में ढूँढ़ते फिरना। ६. सुश्रुत के अनुसार ११ प्रकार के क्षुद्र कुष्ठों में से एक जिसमें छोटी-छोटी फुंसियाँ निकलती हैं और उन फुँसियों से पंछा या मवाद निकलता है। ६. एक प्रकार का साँप।
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परिसर्पण  : पुं० [सं० परि√सृप्+ल्युट्—अन] १. घूमना-फिरना। टहलना। २. साँप की तरह टेढ़े-तिरछे चलना या रेंगना।
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परिसर्पा  : स्त्री० [सं० परि√सृ (गति)+क्यप्+टाप्] १. मृत्यु। २. हार।
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परिसांत्वन  : पुं० [सं० परि√सान्त्व् (ढाढस देना)+ ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक सांत्वना देना। २. उक्त प्रकार से दी हुई सान्त्वना।
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परिसाम (मन्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक विशेष साम।
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परिसार  : पुं० [सं० परि√सृ+घञ्]=परिसरण।
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परिसारक  : वि० [सं० परि√सृ+ण्वुल्—अक] जो परिसरण करे। चारों ओर चलने, जाने या बहनेवाला।
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परिसारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√सृ+णिनि] १. परिसरण-संबंधी। २. परिसारक। (दे०)
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परिसिद्धिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वैद्यक में, चावले की एक प्रकार की लपसी।
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परिसीमन  : पुं० [सं० परिसीमा से] [भू० कृ० परिसीमित] किसी क्षेत्र, विषय आदि की सीमाएँ निर्धारित करना। (डिलिमिटेशन)
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परिसीमा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अंतिम या चरम सीमा। २. वह मर्यादा या रेखा जहाँ आगे किसी विषय का विस्तार न हो।
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परिसीमित  : भू० कृ० [सं० परिसीमा+इतच्] जिसका परिसीमन हुआ या किया जा चुका हो। २. (संस्था) जिसकी पूँजी, हिस्सेदारी आदि कुछ विशिष्ट नियमों या सीमाओं के अन्दर रखी गई हो। (लिमिटेड)
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परिसून  : पुं० [सं० अत्या० स०] बिना अधिकार के और बूचड़खाने से बाहर मारा हुआ पशु।
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परिसेवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक सेवा करना।
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परिसेवित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसकी बहुत अच्छी तरह सेवा की गई हो। २. जिसका बहुत अच्छी तरह सेवन किया गया हो।
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परिस्कंद  : पुं०=परिष्कंद।
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परिस्तरण  : पुं० [सं० परि√स्तृ (आच्छादन)+ल्युट्—अन] १. इधर-उधर फेंकना या डालना। छितराना। २. फैलाना। ३. ढकना या लपेटना।
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परिस्तान  : पुं० [फा०] १. परियों अर्थात् अप्सराओं का जगत् या देश। २. ऐसा स्थान जहाँ बहुत-सी सुंदर स्त्रियों का जमघट या निवास हो।
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परिस्तोम  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] चित्रित या अनेक रंगोंवाली (हाथी की पीठ पर डाली जानेवाली) झूल।
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परिस्थान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वासस्थान। २. दृढ़ता।
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परिस्थिति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [वि० परिस्थितिक] किसी व्यक्ति के चारों ओर होनेवाली वे सब बातें या उनमें से कोई एक जिससे बाध्य या प्रेरित होकर वह कोई कार्य करता हो। (सर्कम्स्टैंसेज)
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परिस्थिति विज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक जीव विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि देश, काल आदि की परिस्थितियों का जीव-जंतुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है। (इकालोजी)
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परिस्पंद  : पुं० [सं० परि√स्पंद् (हिलना)+घञ्] १. कापने की क्रिया या भाव। कंप। कँपकँपी। २. दबाना या मलना। ३. ठाट-बाट। तड़क-भड़क। ४. फूलों आदि से सिर के बाल सजाना। ५. निर्वाह का साधन। ६. परिवार। ६. धारा। प्रवाह। ८. नदी। ९. द्वीप। टापू।
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परिस्पंदन  : पुं० [सं० परि√स्पंद्+ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक हिलना। खूब काँपना। २. काँपना।
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परिस्पर्द्धा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०]=प्रतिस्पर्धा।
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परिस्पर्द्धी (र्द्धिन्)  : पुं० [सं० परि√स्पर्ध् (जीतने की इच्छा)+णिनि]=प्रतिस्पर्धी।
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परिस्फुट  : वि० [सं० प्रा० स०] १. भली-भाँति व्यक्त। सब प्रकार से प्रकट या खुला हुआ। २. अच्छी तरह खिला हुआ। पूर्ण विकसित।
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परिस्फुरण  : पुं० [सं० परि√स्फुर् (गति)+ल्युट्—अन] १. कंपन। २. कलियों, कल्लों आदि का निकलना या फूटना।
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परिस्मापन  : पुं० [सं० परि√स्मि (विस्मय करना)+ णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] बहुत अधिक चकित या विस्मित करना।
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परिस्यंद  : पुं० [सं० परिष्यंद] चूना। रसना।
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परिस्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंदी] जिसमें प्रवाह हो। बहता हुआ।
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परिस्रव  : पुं० [सं० परि√स्रु (बहना)+अप्] बहुत अधिक या चारों ओर से चूना या रसना।
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परिस्राव  : पुं० [सं० परि√स्रु+घञ्] १. चू या रसकर अधिक परिमाण में निकलनेवाला तरल पदार्थ। २. एक रोग जिसमें रोगी को ऐसे बहुत अधिक दस्त होते हैं जिनमें कफ और पित्त मिला होता है।
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परिस्रावण  : पुं० [सं० परि√स्रु+णिच्+ल्युट्—अन] वह पात्र जिसमें कोई चीज चुआ या रसाकर इकट्ठी की जाय।
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परिस्रावी (विन्)  : वि० [सं० परि√स्रु+णिनि] चूने, रसने या बहनेवाला। पुं० ऐसा भगंदर रोद जिसमें फोड़े में से बराबर गाढ़ा मवाद निकलता रहता है।
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परिस्रुत  : वि० [सं० परि√स्रु+क्त] १. जिससे कुछ टपक या चू रहा हो। स्रावयुक्त। २. चुआया या टपकाया हुआ। पुं० फूलों का सुगंधित सार। (वैदिक) स्त्री० मदिरा। शराब।
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परिस्रुत-दधि  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा दही जिसे निचोड़कर उसमें का जल निकाल दिया गया हो।
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परिस्रुता  : स्त्री० [सं० परिस्रुत+टाप्] १. चुआई या टपकाई हुई तरल वस्तु। २. मद्य। शराब। ३. अंगूरी शराब।
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परिहँस  : पुं० [सं० परिहास] १. हँसी-दिल्लगी। परिहास। २. लोक में होनेवाली हँसी। उपहास। उदा०—परहँसि मरसि कि कौनेहु लाजा—जायसी। ३. खेद। दुःख। रंज। (मुख्यतः लोक-निंदा, उपहास आदि के भय से होनेवाला) उदा०—कंठ बचन न बोलि आवै हृदय परिहँस करि, नैन जल भरि रोई दीन्हों, ग्रसति आपद दीन।—सूर।
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परिहत  : भू० कृ० [सं० परि√हन् (हिंसा)+क्त] १. जो मार डाला गया हो। २. मरा हुआ। मृत। ३. पूरी तरह से नष्ट किया हुआ। ४. ढीला किया हुआ। स्त्री० हल की वह लकड़ी जो चौभी में ठुकी रहती है, तथा जिसके ऊपरी भाग में लगी हुई मुठिया को पकड़कर हलवाला हल चलाता है।
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परिहरण  : पुं० [सं० परि√हृ (हरण करना)+ल्युट्—अन] [वि० परिहरणीय] १. किसी की चीज पर बिना उसके पूछे और बलपूर्वक किया जानेवाला अधिकार। २. परित्याग। ३. दोष आदि दूर करने का उपचार या प्रयत्न। निवारण।
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परिहरणीय  : वि० [सं० परि√हृ+अनीयर्] १. जो छीना जा सके या छीने जाने के योग्य हो। २. त्याज्य। ३. जिसका उपचार या निवारण हो सके। निवार्य।
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परिहरना  : स० [सं० परिहरण] १. छीनना। २. त्यागना। छोड़ना।
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परिहस  : पुं०=परिहँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहस्त  : पुं० [सं० अव्य० स०] हाथ में बाँधा जानेवाला एक तरह का तावीज या यंत्र।
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परिहाण  : पुं० [सं० परि√हा (त्याग)+क्त] नुकसान या हानि उठाना।
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परिहाणि, परिहानि  : स्त्री० [सं० परि√हा+क्तिन्] नुकसान। हानि।
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परिहार  : पुं० [सं० परि√हृ+घञ्] १. बलपूर्वक छीनने की क्रिया या भाव। २. युद्ध में जीतकर प्राप्त किया हुआ धन या पदार्थ। ३. छोड़ने, त्यागने या दूर करने की क्रिया या भाव। ४. त्रुटियों, दोषों, विकारों आदि का किया जानेवाला अंत या निराकरण। ५. पशुओं के चरने के लिए खाली छोड़ी हुई जमीन। चारागाह। ६. प्राचीन भारत में, कष्ट या संकट के समय राज्य की ओर से प्रजा के साथ की जानेवाली आर्थिक रिआयत। ६. कर या लगान की छूट। माफी। ८. खंडन। ९. अवज्ञा। तिरस्कार। १॰. उपेक्षा। ११. मनु के अनुसार एक प्राचीन देश। १२. नाटक में किसी अनुचित या अविधेय कर्म का प्रायश्चित्त करना। (साहित्य दर्पण) पुं० [?] अवध, बुंदेलखंड आदि में बसे हुए राजपूतों की एक जाति जिनके पूर्वज तीसरी शताब्दी में कालिंजर के शासक थे।
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परिहारक  : वि० [सं० परि√हृ+ण्वुल्—अक] परिहार करनेवाला।
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परिहारना  : स० [सं० परिहार] १. परिहरण करना। २. परिहार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√हृ+णिनि] परिहरण करनेवाला।
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परिहार्य  : वि० [सं० परि√हृ+ण्यत्] जिसका परिहरण होने को हो या हो सकता हो।
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परिहास  : वि० [सं० परि√हस् (हँसना)+घञ्] १. बहुत जोरों की हँसी। २. हँसी-मजाक।
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परिहासापह्नुति  : स्त्री० [सं० परिहास-अपह्नुति, मध्य० स०] साहित्य में, अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें पूर्वपद तो किसी अश्लील भाव का द्योतक होता है परंतु उत्तर-पद से उस अश्लीलत्व का परिहार हो जाता है और श्रोता हँस पड़ता है। उदा०—तुमको लाजिम है पकड़ो अब मेरा। हाथ में हाथ बामुहब्बतो प्यार।—कोई शायर।
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परिहास्य  : वि० [सं० परि√हस्+ण्यत्] १. जिसके संबंध में परिहास किया जा सके या हो सके। २. हास्यास्पद।
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परिहित  : भू० कृ० [सं० परि√धा (धारण करना)+क्त, हि—आदेश] १. चारों ओर से छिपाया या ढका हुआ। आवृत्त। आच्छादित। २. ओढ़ा या पहना हुआ। (कपड़ा)
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परिहीण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. सब प्रकार से दीन-हीन। अत्यंत हीन। २. छोड़ा, निकाला या फेंका हुआ।
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परिहृति  : स्त्री० [सं० परि+हृ+क्तिन्] ध्वंस। नाश।
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परिहेलना  : स० [सं० प्रा० स०] अनादर या तिरस्कारपूर्वक दूर हटाना। उदा०—कै ममता करु राम-पद कै ममता परिहेलु।—तुलसी।
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परिपात्र  : पुं० [सं०] सात मुख्य पर्वत-मालाओं में से एक। पारियात्र।
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परिक्षण  : पुं०=प्रतिरक्षा।
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