शब्द का अर्थ
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रथंकर :
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पुं० [सं० रथ√कृ (करना)+खच्, मुमागम] १. एक कल्प का नाम। २. एक प्रकार का साम। ३. एक प्रकार की अग्नि। |
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समानार्थी शब्द-
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रथ :
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पुं० [सं०√रम् (क्रीड़ा)+कथन्] १. प्राचीन काल की एक प्रकार की सवारी जिसमें चार या दो पहिये हुआ करते थे। गाडी। बहल। शतांग। स्यंदन। २. शरीर जो आत्मा का यान या सवारी है। उदाहरण—तीरथ चलत मन तीरथ चलत है।—सेनापति। ३. पग या पैर जिससे प्राणी चलते हैं। ४. क्रीड़ा या विहार का स्थान। ५. तिनिश का पेड़। ६. वह शिला-मंदिर जो किसी चट्टान को काटकर बनाया गया हो। (दक्षिण) |
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रथ-कल्पक :
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पुं० [सं० ष० त०] १. प्राचीन भारत में वह अधिकारी जो किसी राजा के रथों, यानों आदि की देख-रेख रखता था। २. वाहन। ३. घर। ४. प्राचीन भारत में, धनवानों का वह प्रधान अधिकारी जो उनके घर आदि सजाता और उनके पहनने के वस्त्र आदि रखता था। |
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रथकार :
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पुं० [सं० रथ√कृ (करना)+अण्] १. रथ बनानेवाला कारीगर। २. बढ़ई। ३. माहिष्य पिता से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति। |
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रथ-कूबर :
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पुं० [ष० त०] रथ का वह भाग जिस पर जूआ बाँधा जाता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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रथ-क्रांत :
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पुं० [ब० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल। |
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रथ-क्रांता :
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स्त्री० [सं० रथक्रांत+टाप्] एक प्राचीन जनपद का नाम। |
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रथ-गर्भक :
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पुं० [ब० स०+कप्] कंधों पर उठाई जानेवाली सवारी। जैसे—डोला, पालकी आदि। |
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रथ-गुप्ति :
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स्त्री० [ब० स०] रथ-नीड। (दे०) के चारों ओर सुरक्षा की दृष्टि से लकड़ी-लोहे आदि का लगाया जानेवाला घेरा। |
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रथ-चरण :
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पुं० [ष० त०] १. रथ का पहिया। [रथचरण+अच्] २. चकवा। चक्रवाक। |
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रथ-चर्या :
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स्त्री० [ष० त०] रथ पर चढ़कर भ्रमण करना। |
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रथ-नीड :
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पुं० [ष० त०] रथ में वह स्थान जहाँ लोग बैठते हैं। गद्दी। |
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रथ-पति :
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पुं० [ष० त०] रथ का नायक। रथी। |
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रथ-पर्याय :
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पुं० [ब० स०] १. तिनिश का पेड़। २. बेंत। |
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रथ-पाद :
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पुं० =रथचरण। |
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रथ-महोत्सव :
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पुं० [ष० त०] रथ-यात्रा। (दे०) |
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रथ-यात्रा :
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स्त्री० [तृ० त०] हिन्दुओं का एक पर्व या उत्सव जो आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को होता है और जिसमें जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियाँ रखकर उनकी सवारी निकालते हैं। |
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रथ-योजक :
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पुं० [ष० त०] सारथि। |
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रथ-वर्त्म (न्) :
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पुं० [ष० त०] राजमार्ग। |
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रथवान् (वत्) :
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पुं० [सं० रथ+मतुप्] रथ हाँकनेवाला। सारथि। |
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रथवाह :
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पुं० [सं० रथ√वह (ढोना)+अण्] १. रथ चलानेवाला सारथि २. रथ खींचनेवाला घोड़ा। |
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रथ-वाहक :
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पुं० [सं० रथवाह+कन्] सारथि। |
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रथ-शाला :
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स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ रथ रखे जाते हों। गाड़ी खाना। |
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रथ-शास्त्र :
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पुं० [मध्य० स०] रथ चलाने की क्रिया। |
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रथ-सप्तमी :
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स्त्री० [मध्य० स०] माघ शुक्ला सप्तमी। |
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रथस्था (स्या) :
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स्त्री० [सं०] पंचाल देश की राम-गंगा नामक नदी का पुराना नाम। |
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रथांग :
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पुं० [रथ-अंग, ष० त०] १. रथ का पहिया। २. [रथांग+अच्] चक्र नामक अस्त्र। ३. चकवा पक्षी। |
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रथांग-धर :
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पुं० [ष० त०] १. श्रीकृष्ण। २. विष्णु। |
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रथांग-पाणि :
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पुं० [ब० स०] विष्णु। |
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रथांगी :
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स्त्री० [सं० रथांग+ङीष्] ऋद्धि नामक ओषधि। |
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रथाक्ष :
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पुं० [रथ-अक्षि, ष० त०] १. रथ का पहिया। २. रथ का धुरा। ३. कार्तिकेय का एक अनुचर। ४. चार अंगुल का एक परिमाण। |
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रथाग्र :
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पुं० [रथ-अग्र, ब० स०] वह जिसका रथ सबसे आगे हो, अर्थात् श्रेष्ठतम योद्धा। |
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रथिक :
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पुं० [सं० रथ+ठन्—इक] १. वह जो रथ पर सवार हो। रथी। २. तिनिश का पेड़। |
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रथी (थिन्) :
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पुं० [सं० रथ+इनि] १. वह जो रथ पर चढ़कर चलता हो। रथी। २. रथ पर चढ़कर युद्ध करनेवाला। रथवाला योद्धा। पद—महारथी। ३. एक बार योद्धाओं से अकेला युद्ध करनेवाला योद्धा। उदाहरण—पूरण प्रकृति सात धीर वीर है विख्यात रथी महारथी अतिरथी रण साजिके।—रघुराज। वि० जो रथ पर सवार हो। स्त्री०=अरथी (मृतक की)। |
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रथोत्सव :
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पुं० [रथ-उत्सव, ष० त०] रथ-यात्रा। (दे०) |
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रथोद्धता :
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स्त्री० [रथ-उद्धता, उपमित, स०] ग्यारह अक्षरों का एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसका पहला, तीसरा, सातवां, नवाँ और ग्यारहवाँ वर्ण गुरु तथा अन्य वर्ण लघु होते हैं। |
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रथ्य :
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पुं० [सं० रथ+यत्] १. वह घोड़ा जो रथ में जोता जाता हो २. रथ चलानेवाला। सारथि। ३. पहिया। |
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रथ्या :
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स्त्री० [सं० रथ्य+टाप्] १. रथों का समूह। २. वह मार्ग जो वनों में रथ के चलने से बन जाता था। ३. बड़े नगरों में वह चौड़ी मार्ग या सड़क जिस पर रथ चलते थे। ४. घर का आँगन या चौक। ५. नाबदान। पनाला। |
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