शब्द का अर्थ
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वाक् :
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पुं० [सं०√वच् (बोलना)+घञ्] १. वाणी। वाक्य। २. शब्द। ३. कथन। ४. वाद। ५. बोलने की इन्द्रिय। ६. सरस्वती। |
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समानार्थी शब्द-
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वाक :
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पुं० [सं० वक+अण्] १. वकों अर्थात् बगलों का समूह। २. वेदों का एक विशिष्ट अंश या भाग। ३. खेत की वह कूत जो बिना खेत नापे की जाती है। ४. वाक्य। वि० वक या बगले से सम्बन्ध रखनेवाला। |
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वाक़ई :
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अव्य० [अ०] यथार्थ में। वास्तव में। वस्तुतः। जैसे–क्या आप वाकई वहाँ गये थे। |
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वाकफ़ीयत :
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स्त्री० [अ०] जान-पहचान परिचय। |
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वाक़या :
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पुं० [अ० वाकिअ] १. घटना, विशेषता दुर्घटना। २. वृत्तांत। हाल। |
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वाकयाती :
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वि० [अ०] विशिष्ट घटना से संबंध रखनेवाला। जो घटित हुआ हो। |
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वाका :
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वि० [अ० वाकया] १. जो घटना के रूप में घटित हुआ हो। २. किसी स्थान पर स्थित। पं० वाकया (घटना)। |
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वाकारना :
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स० [?] ललकारना। (राज०) उदाहरण–बिलकुलियौ वदन जेम वाकारयौ।–प्रिथीराज। |
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वाकिनी :
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स्त्री० [सं० वाक+इनि+ङीष्] तांत्रिकों की एक देवी। |
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वाक़िफ़ :
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वि० [अ०] १. परिचित। २. जानकार। |
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वाकिफकार :
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वि० [अ० वाकिफ+फा० कार] [भाव० वाकिफदारी] किसी काम या बात की अच्छी ठीक या पूरी जानकारी रखनेवाला। |
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वाकुची :
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स्त्री० [सं० वा√कुच् (संकुचित करना)+क+ङीष्]=वकुची। |
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वाकुल :
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वि० [सं० वकुल+अण्] वकुल संबंधी। वकुल का। पुं० वकुल। मौलसिरी। |
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वाकोपवाक :
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पुं० [सं० द्व० स०] कथोपकथन। बात-चीत। |
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पुं० [सं० द्व० स०] कथोपकथन। बात-चीत। |
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वाकोवाक्य :
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पुं० [सं०] १. कथोपकथन। बात-चीत। २. तर्क-वितर्क। |
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वाक्कलह :
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पुं० [सं० तृ० त०] कहा-सुनी। |
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वाक्-चपल :
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वि० [सं० तृ० त०] १. जो बातें करने में चतुर हो। बकवादी। |
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वाक्-छल :
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पुं० [सं० तृ० त०] १. न्याय शास्त्र के अनुसार छल के तीन भेदों में से एक। ऐसी बात कहना जिसका और भी अर्थ निकल सके तथा इसीलिए दूसरा धोखे में रहे। २. टाल-मटोल की बात। बहाना (क्विब्लिंग)। |
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वाकपटु :
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वि० [सं०] बात-चीत करने में चतुर। |
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वाकपति :
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पुं० [सं० ष० त०] १. बृहस्पति। २. विष्णु। |
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वाकपारुष्य :
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पुं० [सं० तृ० त० या मध्य० स०] १. बात-चीत में होनेवाली कठोरता या परुषता। कड़वी बात कहना। २. धर्मशास्त्रानुसार किसी की जाति, कुल इत्यादि के दोषों को इस प्रकार ऊँचे स्वर से कहना कि उससे उद्वेग या क्रोध उत्पन्न हो। |
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वाक्य :
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पुं० [सं०√वच् (बोलना)+ण्यत्] शब्द या शब्दों का ऐसा समूह जो एक विचार से पूरी तरह से व्यक्त करे। जुमला। (सेन्टेन्स)। |
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वाक्यकर :
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वि० [सं०] झूठी या तरह-तरह की बातें बनानेवाला। पुं० सन्देशवाहक। |
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वाक्य-ग्रह :
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पुं० [सं० ष० त०] मुँह का पक्षाघात से ग्रस्त होना। |
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वाक्य-भेद :
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पुं० [सं० स० त०] मीमांसा में एक ही वाक्य का एक ही काल में परस्पर विरुद्ध अर्थ करना। |
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वाक्य-वक्रता :
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स्त्री० [सं०] साहित्यिक रचनाओं का एक प्रकार का सौन्दर्य सूचक तत्त्व जो वाक्य रचना के अनोखे और उत्कृष्ट बांकपन के रूप में रहता है। यह तत्त्व कवि की बहुत ही उच्च कोटि की प्रतिभा से उदभूत होता है और सारे प्रसाद गुणों, सभी रसों की निष्पति तथा अलंकारों का उदगम या मूल स्रोत होता है। उदाहरण– (क) कहाँ लौं वरनौं सुन्दरताई खेलत कुँवर कनक आँगन में, नैन निरखि छवि छाई। कुलहि लसत सिर स्याम सुभग अति, बहुविधि सुरँग बनाई। मानो नव धन ऊपर राजत मधवा धनुष चढ़ाई। अति सुदेस मृदु चिकुर हरत मनमोहन मुख बगराई। मानो प्रकट कंज पर मंजुल अलि अवली घिरि आई।–सूर। (ख) रुधिर के है जगती के प्रात, चितनल के ये सांयकाल। शून्य निश्वासों के आकाश, आँसुओं के ये सिंधु विशाल। यहाँ सुख सरसों शोक, सुमेरु, अरे जग है जग का कंकाल।–पंत। |
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वाक्य-विन्यास :
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पुं० [सं० ष० त०] वाक्यों, शब्दों या पदों को यथास्थान रखना। वाक्य बनाना। |
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वाक्य-विश्लेषण :
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पुं० [सं०] व्याकरण का वह अंग या क्रिया जिसमें किसी वाक्य में आए हुए शब्दों के प्रकार, भेद० रूप पारस्परिक संबंध आदि का विचार होता है। |
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वाक्याडंबर :
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पुं० [सं० ष० त०] केवल वाक्यों या बातों में दिखाया जानेवाला आडम्बर। |
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वाक्-संयम :
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पुं० [सं० ष० त०] वाणी का संयम। व्यर्थ की बातें न करना। |
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वाक्-सिद्धि :
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स्त्री० [सं० ष० त०] तंत्र-मंत्र योग आदि के द्वारा अथवा स्वाभाविक रूप से प्राप्त होनेवाली ऐसी सिद्धि जिसमें कही हुई बात पूरी होकर रहती है। जो बात मुँह से निकल जाय, वह ठीक सिद्ध होना। |
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