शब्द का अर्थ
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विषम :
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वि० [सं० मध्य० स०] [स्त्री० विषमा] [भाव० विषमता] १. जो सम अर्थात् समान या बराबर न हो। असमान। सम का विपर्याय। २. (संख्या) जो दो से भाग देने पर पूरी न बँटे बल्कि जिसमें एक बाकी बचे। ताक। ३. (कार्य या स्थिति) जो बहुत ही कठिन या विकट हो। ४. (विषय) जिसकी मीमांसा सहज में न हो सके। जैसे—विषम समस्या। ५. बहुत ही उत्कृष्ट, प्रचंड भीषण या विकट। जैसे—विषम विपत्ति। ६. भयंकर। भीषण। ७. तीव्र। तेज। पुं० १. विपत्ति। संकट। २. छंद शास्त्र में, ऐसा वृत्त जिसके चारों चरणों में अक्षरों और मात्राओं की संख्या समान हो। ३. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें या तो दो परस्पर विरोधी बातों या वस्तुओं के संयोग का उल्लेख होता है, या उस संयोग की विषमता, अर्थात् अनौचित्य दिखलाया जाता है। (इन्कांग्रैचुइटी) ४. गणित में पहली तीसरी, पाँचवी आदि विषम संख्याओं पर पड़नेवाली राशियाँ। ५. संगीत में एक ताल का प्रकार। ६. वैद्यक में, चार प्रकार की जठराग्नियों में से एक जो वायु के प्रकोप से उत्पन्न होती है। |
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विषम-कर्ण :
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पुं० [सं० ब० स०] (चतुर्भुज) जिसके कोण सम न हो। |
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विषम कोण :
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पुं० [सं० कर्म० स०] ज्यामिति में ऐसा कोण जो सम न हो। समकोण से भिन्न कोई और कोण। |
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विषम-चतुष्कोण :
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पुं० [सं० ब० स०] ऐसा चतुष्कोण जिसकी भुजाएँ विषम हों। (ज्यामिति)। |
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विषम-छंद :
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पुं०=विषमवृत्त। |
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विषम-ज्वर :
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पुं० [सं० कर्म० स०] १. मच्छरों के दंश से फैलनेवाला एक प्रकार का ज्वर जिसके साथ प्रायः जिगर और तिल्ली भी बढ़ती है। इसके आरंभ में बहुत जाड़ा लगता है, इसी से इसे जूड़ी और शीत ज्वर भी कहते हैं। (मलेरिया) २. क्षय रोग में होनेवाला ज्वर। |
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विषमता :
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स्त्री० [सं० विषम+तल्+टाप्] १. विषम होने की अवस्था या भाव। २. ऐसा तत्त्व या बात जिसके कारण दो वस्तुओं या व्यक्तियों में अंतर उत्पन्न होता है। ३. द्रोह। बैर। |
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विषम त्रिभुज :
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पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा त्रिभुज जिसके तीनों भुज छोटे बड़े हों, समान न हों। (ज्यामिति)। |
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विषमत्व :
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पुं० [सं० विषम+त्व] विषम होने की अवस्था या भाव। विषमता। |
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विषम-नयन :
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पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव। |
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विषम-नेत्र :
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पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव। |
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विषम-बाहु :
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पुं०=विषम भुज। |
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विषम-भुज :
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पुं० [सं० ब० स०] ज्यामिति में ऐसा क्षेत्र विशेषतः त्रिभुज जिसके कोई दो भुज आपस में बराबर न हों। (स्केलीन)। |
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विषम-वाण :
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पुं० [सं० ब० स०] १. कामदेव का एक नाम। २. कामदेव। |
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विषमवृत्त :
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पुं० [सं० ब० स०] ऐसा छंद या वृत्त जिसके चरण या पद समान न हों। असमान पदोंवाला वृत्त। |
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विषम-शिष्ट :
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पुं० [सं०] प्रायश्चित्त आदि के लिए व्यवस्था देने के संबंध का एक रोष जो इस समय माना जाता है जब कोई भारी पाप करने पर हल्का प्रायश्चित्त करने या हल्का पाप करने पर भारी प्रायश्चित्त करने की व्यवस्था दी जाती है। |
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विषमांग :
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वि० [सं० विषम+अंग] जिसके सब अंग या तत्त्व भिन्न-भिन्न अथवा परस्पर विरोधी प्रकार के हों। ‘समांग’ का विपर्याय। (हेटेरोजीनिअस)। |
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विषमा :
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स्त्री० [सं० विषम+टाप्] १. झरबेरी। २. एक प्रकार का बछनाग। |
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विषमाक्ष :
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पुं० [सं० ब० स] शिव। महादेव। |
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विषमाग्नि :
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पुं० [सं० कर्म० स०] वैद्यक में एक प्रकार की जठराग्नि जो वायु के प्रकोप से उत्पन्न होती है। |
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विषमान्न :
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पुं० [सं० कर्म० स०] विषमाशन। |
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विषमायुध :
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पुं० [सं० ब० स०] कामदेव। |
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विषमाशन :
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पुं० [सं० कर्म० स०] १. ठीक समय पर भोजन न करना। २. आवश्यकता से कम या अधिक भोजन करना। |
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विषमित :
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भू० कृ० [सं०] विषम रूप में लाया हुआ। जो विषम किया या बनाया गया हो। |
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विषमीकरण :
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पुं० [सं०] १. ‘सम’ को विषम करने की क्रिया या भाव। विषम करना। २. भाषा-विज्ञान में वह प्रक्रिया जिससे किसी शब्द में दो व्यंजन या स्वर पास-पास आने पर उनमें से कोई उच्चारण के सुभीते के लिए बदल दिया जाता है। ‘समीकरण’ का विपर्याय (डिस्सिमेलेशन)। |
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विषमृष्टि :
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पुं० [सं०] १. केशमुष्टि। २. बकायन। घोड़ा। नीम। ३. कलिहारी। ४. कुचला। |
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विषमेषु :
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पुं० [सं० ब० स०] कामदेव। |
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