शब्द का अर्थ
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वृद्ध :
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वि० [सं०] [स्त्री० वृद्धा, भाव० वृद्धि] १. बढ़ा हुआ। २. अच्छी या पूरी तरह से बढ़ा हुआ। ३. गुण, विद्या आदि के विचार से औरों की अपेक्षा बहुत अधिक चतुर, विद्वान या बहुत श्रेष्ठ। जैसे—तर्क व्याकरण आदि शास्त्रों के अध्ययन से वृद्ध होना। ४. जो अपनी युवा विशेषतः प्रौढ़ावस्था पार कर चुका हो। बुड्ढा। ५. पुराना। ६. जो खूब सोमपान करता हो। जिसकी उमर सोमपान करने में ही बीती हो। पुं० [√वृधु+क्त] [भाव० वृद्धता, वृद्धत्व] १. वह जो अपनी औषध आयु से अधिक पार कर चुका हो। बुड्ढा। मनुष्यों में साधारणतः ६॰ वर्ष या उससे अधिक अवस्थावाला व्यक्ति। ३. पंडित। विद्वान। ४. वह जो योग्यता आदि के विचार से औरों की अपेक्षा श्रेष्ठ तथा सम्मानित हो। (एल्डर)। ५. वृद्धावस्था। बुढ़ापा। ६. शैलज नामक गन्ध द्रव्य। |
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वृद्ध-काक :
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पुं० [सं० कर्म० स०] द्रोण काक। पहाड़ी कौवा। |
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वृद्ध-केशव :
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पुं० [सं०] सूर्य की प्रतिभा (पुराण)। |
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वृद्ध-गंगा :
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स्त्री० [सं०] हिमालय की एक छोटी नदी। |
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वृद्धता :
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स्त्री० [सं० वृद्ध+तल्+टाप्] वृद्ध होने की अवस्था, धर्म या भाव। |
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वृद्धत्व :
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पुं० [सं० वृद्ध+त्वल्]=वृद्धता। |
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वृद्ध-धूप :
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पुं० [सं०] १. सिरिस का पेड़। २. सरल का पेड़। |
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वृद्ध-नाभि :
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पुं० [सं०] जिसकी तोंद निकली या बढ़ी हुई हो। |
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वृद्ध-पराशर :
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पुं० [सं०] प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार। |
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वृद्ध-प्रपितामह :
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पुं० [सं०] [स्त्री० वृद्ध, प्रतितामही] दादा का दादा। परदादा का पिता। |
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वृद्ध-युवती :
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स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. कुटनी। २. धाय। दाई। |
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वृद्धश्रवा (वस्) :
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पुं० [सं० वृद्ध (बृहस्पति)√धृ (सुनना)+असुन, ब० स०] इंद्र। |
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वृद्धश्रावक :
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पुं० [सं० ष० त०] कापालिक। |
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वृद्धांगुलि :
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स्त्री० [सं० कर्म० स०] अँगूठा। |
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वृद्धांत :
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वि० [सं० ष० त० कर्म० स०] सम्मान या प्रतिष्ठा के योग्य। |
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वृद्धा :
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स्त्री० [सं० वृद्ध+टाप्] वह स्त्री जो अवस्था में वृद्ध हो गई हो। बुड्ढी। वि० बुढ़िया। |
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वृद्धाचल :
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पुं० [सं० मध्यम० स०] दक्षिण भारत का एक तीर्थ। |
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वृद्धावस्था :
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स्त्री० [सं०] वृद्ध होने की अवस्था,धर्म या भाव। बुढ़ापा। |
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वृद्धि :
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स्त्री० [सं०√वृध् (बढ़ना)+क्तिन्] १. वृद्ध होने की अवस्था या भाव। २. गुण, मान मात्रा, संख्या आदि में अधिकता होना जो उन्नति, प्रकति विकास आदि का सूचक होता है। जैसे—वेतन, संतान आदि की वृद्धि। ३. उक्त के आधार पर होनेवाली अधिकता जो उन्नति, प्रगति, विकास आदि की सूचक होती है। ४. विशेषतः वृत्ति वेतन, आदि में होनेवाली अधिकता (इन्क्रीमेंट) ५. अभ्युदय। समृद्धि। ६. ब्याज। सूद। ७. राजनीति में कृषि, वाणिज्य दुर्ग, सेतु, कुंजरबंधन, कन्याकर, वलादान और सैन्यसन्निवेश इन आठों वर्गों का उपचय। वर्द्धन। स्फाति। ८. वह अशौच जो घर मे संतान उत्पन्न होने पर सगे-संबंधियों को होता है। ९. एक प्रकार की लता जो अष्ट वर्गों के अन्तर्गत मानी गई है। १॰. फलित ज्योतिष में विषकंभ आदि २७ योगों के अन्तर्गत ग्यारहवाँ योग। |
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वृद्धिक :
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पुं० [सं०] लिखाई में एक प्रकार का चिन्ह जो इस बात का सूचक होता है कि लिखाई या छपाई में यहाँ कोई पद या शब्द भूल से बढ़ा दिया गया है। यह इस प्रकार लिखा जाता है— ^ |
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वृद्धि-कर्म :
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पुं० [सं० ष० त०]=वृद्धि श्राद्ध। |
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वृद्धिका :
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स्त्री० [सं० वृद्धि+कन्+टाप्] १. ऋद्धि नाम की ओषधि। २. सफेद अपराजिता। ३. अर्कपुष्पी। |
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वृद्धि-जीवक :
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पुं० [सं० तृ० त०] वह जो वृद्धि या ब्याज से अपना निर्वाह करता हो। सूद से अपना निर्वाह करनेवाला। महाजन। |
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वृद्धिद :
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वि० [सं० वृद्धि√दा+क] वृद्धि देनेवाला। पुं० १. जीवक नामक क्षुप। २. शूकरकन्द। |
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वृद्धि-पत्र :
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पुं० [सं० ब० स०] चिकित्सा के काम आनेवाला एक तरह का शल्य। (सुश्रुत) |
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वृद्धियोग :
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पुं० [सं० मध्यम० स०] फलित ज्योतिष के २७ योगों में से एक योग। |
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वृद्धिश्राद्ध :
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पुं० [सं० च० त०] नांदीमुख नामक श्राद्ध जो मांगलिक अवसरों पर होता है। |
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वृद्धि-सानु :
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पुं० [सं०] १. पुरुष। आदमी। २. कर्म। कार्य। ३. पत्ता। |
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