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संस्कार  : पुं० [सं०] १. किसी चीज को ठीक या दुरुस्त करके उचित रूप देने की क्रिया। जैसे—व्यारकण में होने वाला शब्दो का संस्कार। २. किसी चीज की त्रुटियाँ, दोष, विकार आदि दूर करके उसे उपयोगी तथा निर्मल बनाने की क्रिया। जैसे—वैद्यक में होने वाला पारे का संस्कार। ३. किसी प्रकार की असंगति, भद्दापन आदि दूर करके उसे शिष्ट और सुन्दर रूप देने की क्रिया। जैसे—भाषा का संस्कार। ४. धो-पोंछ या माँजकर की जाने वाली सफाई। जैसे—शरीर का संस्कार। ५. किसी को उन्नत, सभ्य, समर्थ आदि बनाने के लिए कुछ बताने, सिखाने या अच्छे मार्ग पर लाने की क्रिया। जैसे—बुद्धि का संस्कार। ६. मनो-वृत्ति, स्वभाव आदि का परिष्करण तथा संशोधन करने की क्रिया। (कल्चर) ७. उपदेश, शिक्षा, संगीत, आदि के प्रभाव का वह बहुत कुछ स्थाई परिणाम जो मन में अज्ञात अथवा ज्ञात रूप से बना रहता है और हमारे परिवर्ती आचार व्यवहार, रहन-सहन आदि का स्वरूप स्थिर करता है। जैसे—बाल्यावस्था का संस्कार, देश समाज आदि के कारण बनने वाला संस्कार। ८. भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में, इंद्रियों के विषय भोगसे मन पर पड़ने वाला संस्कार। ९. धार्मिक क्षेत्र में पूर्वजन्मो के लिए हुए आचार-व्यवहार, पाप-पुण्य आदि का आत्मा पर पड़ा हुआ वह प्रभाव जो मनुष्य के परिवर्ती जन्मों में से उसके कार्यों, प्रवृत्तियों, रुचियों आदि के रूप में प्रकट होता है। १॰. सामाजिक क्षेत्र में, धार्मिक दृष्टि से किया जाने वाला कोई ऐसा कृत्य जो किसी से कोई पात्रता अथवा योग्यता उत्पन्न करने वाला माना जाता हो और उसका कुछ विशिष्ट अवसरों के लिए विधान हो। (सेक्रामेंट) जैसे—(क) जातिच्युत या विधर्मी को जाति या धर्म में मिलाने के लिए किया जाने वाला संस्कार। (ख) मृतक का अन्त्येष्टि संस्कार। ११. हिंदुओं में, जन्म से मरण तक होने वाले वे विशिष्ट धार्मिक कृत्य जो द्विजातियो के लिए विहित हैं। जैसे—मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कार। (रिचुअल राइट) विशेष—मनुस्मृति में, नाम-कर्म, निष्क्रमण, अन्नप्रशन, चूड़ा-कर्म, उपनयन, केशांत, समावर्तन और विवाह। परवर्ती स्मृतिकारों इनमें चार और संस्कार बढ़ाकर इनकी संख्या १६ करदी है। परंतु इन नये संस्कारों के नामों के संबंध में उनके मत भेद हैं। १२. वैशेशिक दर्शन में गुण का वह धर्म जिसके कारण या फलस्वरूप वह अपने आपको अभिव्यक्त करता है। १३. अन्न आदि कूट पीसकर पकाने और उन्हे खाद्य बनाने की क्रिया। १४. स्मरण शक्ति। १५. अलंकरण। सजावट। १६. पत्थर आदि का वह टुकड़ा जिससे रगड़कर कोई चीज साफ की जाती हो। जासे०—पैर के तलुओं के रगड़ने का झाँवाँ।, धातुएँ चमकाने के लिए पत्थर की बटिया आदि।
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संस्कारक  : वि० [सं०] संस्कार करने वाला।
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संस्कारवर्जित  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जिसका धर्म शास्त्र के अनुसार संस्कार न हुआ हो। व्रात्य।
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संस्कारवान (वत्)  : वि० [सं० संस्कार+मतुप्-म=व-नुम् दीर्घ] १. जिसका संस्कार हुआ हो। २. जिसपर किसी संस्कार का प्रभाव दिखाई देता हो। ३. सुन्दर।
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संस्कारहीन  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जिसका धर्म शास्त्र के अनुसार संस्कार हुआ हो। व्रात्य।
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संस्कार्य  : वि० [सं० सं√कृ (करना)+ण्यत] १. जिसका संस्कार हो सकता हो। २. जिसका संस्कार होना आवश्यक या उचित हो।
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