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रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥२०४॥
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥२०४॥
मुझे न अर्थ की रुचि (इच्छा) है, न धर्म की, न काम की और न मैं मोक्ष ही चाहता
हूँ। जन्म-जन्ममें मेरा श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम हो. बस. यही वरदान माँगता
हूँ, दूसरा कुछ नहीं। २०४॥
जानहुँ रामु कुटिल करि मोही।
लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥
सीता राम चरन रति मोरें।
अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।
लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥
सीता राम चरन रति मोरें।
अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।
स्वयं श्रीरामचन्द्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा
स्वामिद्रोही भले ही कहें; पर श्रीसीतारामजीके चरणोंमें मेरा प्रेम आपकी कृपासे
दिन-दिन बढ़ता ही रहे ॥१॥
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ।
जाचत जलु पबि पाहन डारउ॥
चातकु रटनि घटें घटि जाई।
बढ़ें प्रेमु सब भाँति भलाई॥
जाचत जलु पबि पाहन डारउ॥
चातकु रटनि घटें घटि जाई।
बढ़ें प्रेमु सब भाँति भलाई॥
मेघ चाहे जन्मभर चातक की सुधि भुला दे और जल माँगने पर वह चाहे वज्र और पत्थर
(ओले) ही गिरावे, पर चातक की रटन घटने से तो उसकी बात ही घट जायगी (प्रतिष्ठा
ही नष्ट हो जायगी)। उसकी तो प्रेम बढ़ने में ही सब तरहसे भलाई है ॥ २ ॥
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें।
तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें।
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी।
भइ मृदु बानि सुमंगल देनी॥
तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें।
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी।
भइ मृदु बानि सुमंगल देनी॥
जैसे तपानेसे सोनेपर आब (चमक) आ जाती है, वैसे ही प्रियतमके चरणोंमें प्रेमका
नियम निबाहनेसे प्रेमी सेवकका गौरव बढ़ जाता है। भरतजीके वचन सुनकर बीच
त्रिवेणीमेंसे सुन्दर मङ्गल देनेवाली कोमल वाणी हुई ॥३॥
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू।
राम चरन अनुराग अगाधू॥
बादि गलानि करहु मन माहीं।
तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥
राम चरन अनुराग अगाधू॥
बादि गलानि करहु मन माहीं।
तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥
हे तात भरत ! तुम सब प्रकार से साधु हो। श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में तुम्हारा
अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्रीरामचन्द्र को
तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है ॥ ४॥
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