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रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
भरद्वाज द्वारा भरत का सत्कार
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए।
भरद्वाज मुनिबर पहिं आए।
दंड प्रनामु करत मुनि देखे।
मूरतिमंत भाग्य निज लेखे।
भरद्वाज मुनिबर पहिं आए।
दंड प्रनामु करत मुनि देखे।
मूरतिमंत भाग्य निज लेखे।
श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर गुणसमूहोंको सुनते हुए वे मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजीके
पास आये। मुनिने भरतजीको दण्डवत्-प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान्
सौभाग्य समझा ॥ २ ॥
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे।
दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे।
चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे।
दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे।
चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे।
उन्होंने दौड़कर भरतजीको उठाकर हृदयसे लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया।
मुनि ने उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो भागकर संकोच के घर में
घुस जाना चाहते हैं ॥३॥
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू।
बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई।
बिधि करतब पर किछु न बसाई॥
बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई।
बिधि करतब पर किछु न बसाई॥
उनके मन में यह बड़ा सोच है कि मुनि कुछ पूछेगे [तो मैं क्या उत्तर दूंगा]।
भरतजी के शील और संकोचको देखकर ऋषि बोले-भरत ! सुनो, हम सब खबर पा चुके हैं।
विधाताके कर्तव्यपर कुछ वश नहीं चलता ॥४॥
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