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रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझि मातु करतूति।।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति ॥ २०६॥
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति ॥ २०६॥
माता की करतूत को समझकर (याद करके) तुम हृदय में ग्लानि मत करो। हे तात! कैकेयी
का कोई दोष नहीं है, उसकी बुद्धि तो सरस्वती बिगाड़ गयी थी॥२०६।।
यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ।
लोकु बेद् बुध संमत दोऊ॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई।
पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥
लोकु बेद् बुध संमत दोऊ॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई।
पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥
यह कहते भी कोई भला न कहेगा, क्योंकि लोक और वेद दोनों ही विद्वानोंको मान्य
है। किन्तु हे तात! तुम्हारा निर्मल यश गाकर तो लोक और वेद दोनों बड़ाई
पावेंगे॥१॥
लोक बेद संमत सबु कहई।
जेहि पितु देइ राजु सो लहई॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई।
देत राजु सुखु धरमु बड़ाई।
जेहि पितु देइ राजु सो लहई॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई।
देत राजु सुखु धरमु बड़ाई।
यह लोक और वेद दोनोंको मान्य है और सब यही कहते हैं कि पिता जिसको राज्य दे वही
पाता है। राजा सत्यव्रती थे; तुमको बुलाकर राज्य देते, तो सुख मिलता, धर्म रहता
और बड़ाई होती ॥२॥
राम गवनु बन अनरथ मूला।
जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला।
सो भावी बस रानि अयानी।
करि कुचालि अंतहुँ पछितानी॥
जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला।
सो भावी बस रानि अयानी।
करि कुचालि अंतहुँ पछितानी॥
सारे अनर्थ की जड़ तो श्रीरामचन्द्रजी का वनगमन है, जिसे सुनकर समस्त संसार को
पीड़ा हुई। वह श्रीराम का वनगमन भी भावीवश हुआ। बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल
करके अन्तमें पछतायी॥३॥
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू।
कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू।
रामहि होत सुनत संतोषू॥
कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू।
रामहि होत सुनत संतोषू॥
उसमें भी तुम्हारा कोई तनिक-सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है।
यदि तुम राज्य करते तो भी तुम्हें दोष न होता। सुनकर श्रीरामचन्द्रजीको भी
सन्तोष ही होता ॥ ४॥
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