रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥२०८॥
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥२०८॥
हे भरत! तुम्हारे लिये (तुम्हारी समझमें) यह कलङ्क है, पर हम सबके लिये तो
उपदेश है। श्रीरामभक्तिरूपी रसकी सिद्धिके लिये यह समय गणेश (बड़ा शुभ) हुआ है।
२०८॥
नव बिधु बिमल तात जसु तोरा।
रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना।
घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥
रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना।
घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥
हे तात! तुम्हारा यश निर्मल नवीन चन्द्रमा है और श्रीरामचन्द्रजीके दास कुमुद
और चकोर हैं [वह चन्द्रमा तो प्रतिदिन अस्त होता और घटता है, जिससे कुमुद और
चकोरको दुःख होता है]; परन्तु यह तुम्हारा यशरूपी चन्द्रमा सदा उदय रहेगा; कभी
अस्त होगा ही नहीं। जगत्पी आकाशमें यह घटेगा नहीं, वरं दिन दिन दूना होगा ॥१॥
कोक तिलोक प्रीति अति करिही।
प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही।
निसि दिन सुखद सदा सब काहू।
ग्रसिहि न कैकई करतबु राहू।।
प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही।
निसि दिन सुखद सदा सब काहू।
ग्रसिहि न कैकई करतबु राहू।।
त्रैलोक्यरूपी चकवा इस यशरूपी चन्द्रमापर अत्यन्त प्रेम करेगा और प्रभु
श्रीरामचन्द्रजीका प्रतापरूपी सूर्य इसकी छविको हरण नहीं करेगा। यह चन्द्रमा
रात-दिन सदा सब किसीको सुख देनेवाला होगा। कैकेयीका कुकर्मरूपी राहु इसे ग्रास
नहीं करेगा ॥२॥
पूरन राम सुपेम पियूषा।
गुर अवमान दोष नहिं दूषा॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ।
कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ।
गुर अवमान दोष नहिं दूषा॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ।
कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ।
यह चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर प्रेमरूपी अमृतसे पूर्ण है। यह गुरुके
अपमानरूपी दोष से दूषित नहीं है। तुमने इस यशरूपी चन्द्रमा की सृष्टि करके
पृथ्वीपर भी अमृतको सुलभ कर दिया। अब श्रीरामजीके भक्त इस अमृतसे तृप्त हो लें
॥३॥
भूप भगीरथ सुरसरि आनी।
सुमिरत सकल सुमंगल खानी॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं।
अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥
सुमिरत सकल सुमंगल खानी॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं।
अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥
राजा भगीरथ गङ्गाजीको लाये, जिन (गङ्गाजी) का स्मरण ही सम्पूर्ण सुन्दर
मङ्गलोंकी खान है। दशरथजीके गुणसमूहोंका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता; अधिक
क्या, जिनकी बराबरीका जगत्में कोई नहीं है ॥४॥
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