रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
|
|
भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ।
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ॥२०९॥
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ॥२०९॥
जिनके प्रेम और संकोच (शील) के वशमें होकर स्वयं [सच्चिदानन्दघन] भगवान्
श्रीराम आकर प्रकट हुए, जिन्हें श्रीमहादेवजी अपने हृदयके नेत्रोंसे कभी अघाकर
नहीं देख पाये (अर्थात् जिनका स्वरूप हृदयमें देखते-देखते शिवजी कभी तृप्त नहीं
हुए)॥२०९॥
कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा।
जहँ बस राम पेम मृगरूपा॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ।
डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ।
जहँ बस राम पेम मृगरूपा॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ।
डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ।
[परन्तु उनसे भी बढ़कर] तुमने कीर्तिरूपी अनुपम चन्द्रमाको उत्पन्न किया,
जिसमें श्रीरामप्रेम ही हिरनके [चिह्नके] रूपमें बसता है। हे तात! तुम व्यर्थ
ही हृदयमें ग्लानि कर रहे हो। पारस पाकर भी तुम दरिद्रतासे डर रहे हो! ॥१॥
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं।
उदासीन तापस बन रहहीं॥
सब साधन कर सुफल सुहावा।
लखन राम सिय दरसनु पावा॥
उदासीन तापस बन रहहीं॥
सब साधन कर सुफल सुहावा।
लखन राम सिय दरसनु पावा॥
हे भरत! सुनो, हम झूठ नहीं कहते। हम उदासीन हैं (किसीका पक्ष नहीं करते),
तपस्वी हैं (किसीकी मुँह-देखी नहीं कहते) और वनमें रहते हैं (किसीसे कुछ
प्रयोजन नहीं रखते)। सब साधनोंका उत्तम फल हमें लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और
सीताजीका दर्शन प्राप्त हुआ॥२॥
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा।
सहित पयाग सुभाग हमारा॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ।
कहि अस पेम मगन मुनि भयऊ।।
सहित पयाग सुभाग हमारा॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ।
कहि अस पेम मगन मुनि भयऊ।।
[सीता-लक्ष्मणसहित श्रीरामदर्शनरूप] उस महान् फलका परम फल यह तुम्हारा दर्शन
है! प्रयागराजसमेत हमारा बड़ा भाग्य है। हे भरत! तुम धन्य हो, तुमने अपने यशसे
जगत्को जीत लिया है। ऐसा कहकर मुनि प्रेममें मग्न हो गये॥ ३ ॥
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे।
साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा।
सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥
साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा।
सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥
भरद्वाज मनिके वचन सुनकर सभासद हर्षित हो गये। 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते
हुए देवताओंने फूल बरसाये। आकाशमें और प्रयागराजमें 'धन्य, धन्य' की ध्वनि
सुन-सुनकर भरतजी प्रेममें मग्न हो रहे हैं ॥ ४॥
|
लोगों की राय
No reviews for this book