रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 10
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसुदीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबरतपबल कीन्ह॥२१४॥


और फिर कुटुम्बसहित भरतजी को दिये, क्योंकि ऋषि भरद्वाजजी ने ऐसी ही आज्ञा दे रखी थी। [भरतजी चाहते थे कि उनके सब संगियों को आराम मिले, इसलिये उनके मनकी बात जानकर मुनि ने पहले उन लोगोंको स्थान देकर पीछे सपरिवार भरतजी को स्थान देने के लिये आज्ञा दी थी।] मुनिश्रेष्ठने तपोबल से ब्रह्मा को भी चकित कर देनेवाला वैभव रच दिया॥ २१४।।

मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका।
सब लघु लगे लोकपति लोका॥
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी।
देखत बिरति बिसारहिं ग्यानी॥


जब भरतजीने मुनिके प्रभावको देखा तो उसके सामने उन्हें [इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि] सभी लोकपालोंके लोक तुच्छ जान पड़े। सुखकी सामग्रीका वर्णन नहीं हो सकता, जिसे देखकर ज्ञानीलोग भी वैराग्य भूल जाते हैं ॥१॥

आसन सयन सुबसन बिताना।
बन बाटिका बिहग मृग नाना॥
सुरभि फूल फल अमिअ समाना।
बिमल जलासय बिबिध बिधाना॥


आसन, सेज, सुन्दर वस्त्र, चँदोवे, वन, बगीचे, भाँति-भाँतिके पक्षी और पशु, सुगन्धित फूल और अमृतके समान स्वादिष्ट फल, अनेकों प्रकारके (तालाब, कुएँ, बावली आदि) निर्मल जलाशय, ॥ २॥

असन पान सुचि अमिअ अमी से।
देखि लोग सकुचात जमी से।
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें।
लखि अभिलाषु सुरेस सची कें॥

तथा अमृत के भी अमृत-सरीखे पवित्र खान-पानके पदार्थ थे, जिन्हें देखकर सब लोग संयमी पुरुषों (विरक्त मुनियों) की भाँति सकुचा रहे हैं। सभीके डेरोंमें [मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाले] कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं, जिन्हें देखकर इन्द्र और इन्द्राणी को भी अभिलाषा होती है (उनका भी मन ललचा जाता है) ॥३॥

रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी।
सब कहँ सुलभ पदारथ चारी।
स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा।
देखि हरष बिसमय बस लोगा॥


वसन्त ऋतु है। शीतल, मन्द, सुगन्ध तीन प्रकारकी हवा बह रही है। सभीको [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष] चारों पदार्थ सुलभ हैं। माला, चन्दन, स्त्री आदिक भोगोंको देखकर सब लोग हर्ष और विषादके वश हो रहे हैं। [हर्ष तो भोग सामग्रियोंको और मुनिके तप:प्रभावको देखकर होता है और विषाद इस बातसे होता है कि श्रीरामके वियोगमें नियम-व्रतसे रहनेवाले हमलोग भोग-विलासमें क्यों आ फँसे; कहीं इनमें आसक्त होकर हमारा मन नियम-व्रतोंको न त्याग दे] ॥४॥

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