रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 15
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड



चौ.-अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई।।
राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई।।1।।

अवधपुरी बहुत ही सुन्दर सजायी गयी देवताओंने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी। श्रीरामन्द्रजीने सेवकोंको बुलाकर कहा कि तुमलोग जाकर पहले मेरे सखाओंको स्नान कराओ।।1।।

सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए।।
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे।।2।।

भगवान् के वचन सुनते ही सेवक जहाँ-तहाँ और तुरंत ही उन्होंने सुग्रीवादि को स्नान कराया। फिर करुणानिधान श्रीरामजीने भरतजी को बुलाया और उनकी जटाओंको अपने हाथोंसे सुलझाया।।2।।

अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई।।
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई।।3।।

तदनन्तर भक्तवत्सल कृपालु प्रभु श्रीरघुनाथजीने तीनों भाइयों को स्नान कराया। भरत जी का भाग्य कोमलताका वर्णन अरबों शेषजी भी नहीं कर सकते।।3।।

पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए।।
करि मज्जन प्रभु भूषण साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे।।4।।

फिर श्रीरामजीने अपनी जटाएँ खोलीं और गुरुजीकी आज्ञा माँगकर स्नान किया। स्नान करके प्रभुने आभूषण धारण किये। उनके [सुशोभित] अंगोंको देखकर सैकड़ों (असंख्य) कामदेव लजा गये।।4।।

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