रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
दो.-सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।।
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ।।11क।।
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ।।11क।।
[इधर] सासुओंने जानकीजी को आदरके साथ तुरंत
ही स्नान कराके उनके
अंग-अंगमें दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषण भलीभाँति सजा दिये (पहना
दिये)।।11(क)।।
राम बाम दिसि सोभति रमा रुप गुन खानि।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि।।11ख।।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि।।11ख।।
श्रीरामजीके बायीं ओर रूप और गुणोंकी खान रमा
(श्रीजानकीजी) शोभित हो रही
हैं। उन्हें देखकर सब माताएँ अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित
हुईं।।11(ख)।।
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद।
चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद।।11ग।।
चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद।।11ग।।
[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे पक्षिराज
गरुड़जी ! सुनिये; उस समय
ब्रह्माजी, शिवजी और मुनियों के समूह तथा विमानोंपर चढ़कर सब देवता
आनन्दकन्द भगवान् के दर्शन करने के लिये आये।।11(ग)।।
चौ.-प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा।।
रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई।।1।।
रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई।।1।।
प्रभुको देखकर मुनि वसिष्ठ जी के मन में
प्रेम भर आया। उन्होंने तुरंत ही
दिव्य सिंहासन मँगवाया, जिसका तेज सूर्यके समान था। उसका सौन्दर्य वर्णन
नहीं किया जा सकता। ब्राह्मणों को सिर नवाकर श्रीरामचन्द्रजी उसपर विराज
गये।।1।।
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