रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 15
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड

प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी।।
अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए।।3।।

किन्तु प्रभुका रुख देखकर, बहुत-से विनय-वचन कहकर तथा हृदय में चरण-कमलों को रखकर वे चले। अत्यन्त आदर के साथ सब वानरों को पहुँचाकर भाइयोंसहित भरतजी लौट आये।।3।।

तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना।।
दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा।।4।।

तब हनुमान जी ने सुग्रीव के चरण पकड़कर अनेक प्रकार से विनती की और कहा- हे देव ! दस (कुछ) दिन श्रीरघुनाथजीकी चरणसेवा करके फिर मैं आकर आपके चरणों के दर्शन करूँगा।।4।।

पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा।।
अस कहि कपिसब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता।।5।।

[सुग्रीव ने कहा-] हे पवनकुमार ! तुम पुण्य की राशि हो [जो भगवान् ने तुमको अपनी सेवा में रख लिया]। जाकर कृपाधाम श्रीरामजी की सेवा करो ! सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल पड़े। अंगद ने कहा- हे हनुमान् ! सुनो-।।5।।

दो.-कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि।।19क।।

मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, प्रभु मेरी दण्डवत् कहना और श्रीरघुनाथजी को बार-बार मेरी याद कराते रहना।।19(क)।।

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