रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत।
तासु प्रीति प्रभु सन कही मगन भए भगवंत।।19ख।।
तासु प्रीति प्रभु सन कही मगन भए भगवंत।।19ख।।
ऐसा कहकर बालि पुत्र अंगद चले, तब हनुमान् जी
लौट आये और आकर प्रभु से उनका
प्रेम वर्णन किया। उसे सुनकर भगवान् प्रेममग्न हो गये।।19(ख)।।
कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि।।19ग।।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि।।19ग।।
[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे गरुड़जी !
श्रीरामजीका चित्त वज्र से भी
अत्यन्त कठोर और फूल से भी अत्यन्त कोमल है। तब कहिये, वह किसकी समझ में आ
सकता है ?।।19(ग)।।
चौ.-पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा।।
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू।।1।।
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू।।1।।
फिर कृपालु श्रीरामजीने निषादराजको बुला लिया
और उसे भूषण, वस्त्र
प्रसादमें दिये। [फिर कहा-] अब तुम भी घर जाओ, वहाँ मेरा स्मरण करते रहना
और मन, वचन तथा धर्म के अनुसार चलना।।1।
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता।।
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी।।2।।
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी।।2।।
तुम मेरे मित्र हो और भरत के समान भाई हो।
अयोध्या में सदा आते-जाते रहना।
यह वचन सुनते ही उसको भारी सुख उत्पन्न हुआ। नेत्रोंमें [आनन्द और प्रेमके
आँसुओंका] जल भरकर वह चरणों में गिर पड़ा।।2।।
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