रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 15
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड


चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं।।
राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी।।2।।

धर्म अपने चारों चरणों (सत्य शौच दया और दान) से जगत् में परिपूर्ण हो रहा है; स्वप्नमें भी कहीं पाप नहीं हैं। पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परमगति (मोक्ष) के अधिकारी है।।2।।

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छनहीना।।3।।

छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर सुन्दर और नीरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न दुखी है न और न दीन ही है। न कोई मूर्ख है और न शुभ लक्षणोंसे हीन ही है।।3।।

सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।4।।

सभी दम्भरहित हैं, धर्मपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं। पुरुष और स्त्री सभी चतुर और गुणवान् हैं। सभी गुणों का आदर करनेवाले और पण्डित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं। सभी कृतज्ञ (दूसरेके किये हुए उपकार को माननेवाले) हैं, कपट-चतुराई (धूर्तता) किसीमें नहीं हैं।।4।।

दो.-राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं।।21।।

[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे पक्षिराज गरुड़जी ! सुनिये ! श्रीरामजी के राज्य में जड़, चेतन सारे जगत् में काल, कर्म, स्वभाव और गुणों से उत्पन्न हुए दुःख किसी को भी नहीं होते (अर्थात् इनके बन्धन में कोई नहीं है)।।21।।

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